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पप्पू यादव की आत्मकथा का एक अंश

किताब लिखने का अधिकार सबको है, उनको पढने न पढने का अधिकार भी हमारा है. राजेश रंजन @ पप्पू यादव की आत्मकथा ‘द्रोहकाल का पथिक’कोई साहित्यिक कृति नहीं है, लेकिन 90 के दशक के बाद की राजनीति से उभरे एक नेता की आत्मकथा है. विमोचन के एक दिन पहले से ही जिस तरह टेलीविजन चैनल्स इस पुस्तक में आये इस खुलासे की चर्चा करते दिखे कि एनडीए की सरकार द्वारा पप्पू यादव को नोट के बदले वोट की पेशकश की गई थी तो यह लगने लगा कि पुस्तक में चर्चा में आ गई है.

कल अपने एक गंभीर राजनीतिक विश्लेषक और राजनीति शास्त्र के प्राध्यापक मित्र ने जब बड़ी शिद्दत से यह कहा कि उनको यह पुस्तक चाहिए तो मुझे समझ में आया कि इस पुस्तक का अपना एक महत्व है. मैं यह मानता हूँ कि मैं पप्पू यादव की राजनीति का कायल नहीं रहा हूँ, उस तरह की राजनीति का कायल नहीं रहा हूँ. लेकिन इसके बावजूद यह समझ में आया कि इस पुस्तक के महत्व के एक से अधिक कारण हैं. एक कारण तो इस तथ्य में छिपा है कि 90 के दशक और उसके बाद की राजनीति के जो प्रतीक बने उनमें से एक पप्पू यादव भी रहे हैं- अच्छे या बुरे यह अलग बहस का मुद्दा है. यह ऐसे किसी नेता द्वारा लिखी गई पहली आत्मकथा है. 90 के बाद मंडल-कमंडल से लेकर राजनीति के अपराधीकरण के जमीनी पहलुओं से इस पुस्तक के माध्यम से कुछ समझ बनाई जा सकती है. यह ऐसे राजनीतिक विश्लेषकों के लिए काम की पुस्तक है.

टीवी पर दिखाए जा रहे पुस्तक के खुलासों से यह उम्मीद बंधी थी कि पप्पू यादव की किताब है पता नहीं इसमें कितने खुलासे हों. लेकिन इस मामले में निराशा ही हाथ लगी. हम साहित्यकारों के लिए पुस्तक में कुछ नहीं है लेकिन एक ख़ास पाठक वर्ग को बहुत अच्छी तरह ध्यान में रखकर पुस्तक लिखी गई है.
470 सत्तर पेज की इस पुस्तक का गेट अप एकदम टंच है- अपमार्केट!

पुस्तक में कहीं कहीं पप्पू यादव ने अपनी राजनीतिक विचारधारा को भी समझाने का प्रयास किया है. पुस्तक में एक अध्याय है- ‘आनंद मार्ग कम्युनिस्ट और मैं’.  लेखक महोदय इसमें मार्क्सवाद का अपना पाठ रखते हैं. अध्याय में वे यह बताने की कोशिश करते दिखाई देते हैं कि उन्होंने जिस तरह की राजनीति की, जिसके लिए सजाएँ भुगती उसके पीछे उनकी अपनी एक राजनीतिक विचारधारा थी. वे ‘आनंद मार्ग’ के साथ अपने संबंधों के बारे में भी बताते हैं.
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बहरहाल, यहाँ पुस्तक का एक छोटा सा अंश जो अध्याय ‘विद्रोही बाहुबली कैसे?’ से लिया गया है. दिलचस्प है. खुद पप्पू यादव की मानसिक बनावट को समझने के लिए भी:

जिंदगी में नाम कमाने की ख्वाहिश बचपन से ही रही. नन्हा बालक रहा होऊंगा जब मैं माँ को यह गाना सुनाता था- ‘माता मुझको बन्दूक दे दो, मैं सरहद पर जाऊँगा… दुश्मन को मार भगाऊंगा.’ ये पंक्तियाँ मैंने कहाँ से सीखीं यह नहीं याद है किन्तु माँ बताती है कि काफी कम उम्र में यह गाना गाता था. नाम कमाने की आकांक्षा से जुड़ी एक और बात मुझे याद आ रही है जब मैं माँ को कहा करता था कि माँ ये सर्किट हाउस में जो नेता लोग आये हैं उन पर अगर बम फोड़ दूंगा तो मेरा नाम हो जायेगा. माँ ने मेरी महत्वाकांक्षा को ध्यान में रखते हुए मैट्रिक परीक्षा के बाद एनडीए(नेशनल डिफेन्स एकेडेमी) की परीक्षा से जुडी किताबें लाकर दी थी. और बोली थी कि अगर मैं सच में नाम कमाना चाहता हूँ तो मुझे एनडीए की तैयारी करनी चाहिए. किन्तु प्रारब्ध ने कुछ और ही तय कर रखा था मेरे लिए. इस स्वरुप में मैं नाम कमाना नहीं चाह रहा था.

मैं बचपन से ही क्रांतिकारी बनना चाह रहा था. भगत सिंह बनना चाह रहा था, सुभाष बनना चाह रहा था, कबीर बनना चाह रहा था, गौतम बुद्ध बनना चाह रहा था लेकिन लगता है जिंदगी ने मुझे नेल्सन मंडेला बनाने की ठानी है. क्रांतिकारी बनने की जिजीविषा का आलम यह रहा था कि किशोरावस्था में जब मैं पूर्णिया में रह रहा था, अंग प्रदेश क्रांतिकारी दल नामक संगठन चल रहा था. संगठन सिर्फ चल नहीं रहा था बल्कि गंभीर रूप ले चुका था. सन 1984 के आठवीं लोकसभा चुनाव की बात है. पूर्णिया में उमाकांत जी सांसद का चुनाव लड़ रहे थे. हम लोग हाफ पेंट पहन उनके चुनाव प्रचार में पोस्टर लगाया करते थे. अंग्रेजी में जितने भी पोस्टर, बैनर तथा वाल राइटिंग रहते थे सबको क्रमशः फाड़, नोच और मिटा देते थे और लिख देते थे कि अंगिका में लिखू(अंगिका में लिखें). इसके अलावा जहाँ भी अंग्रेजी में कोई साइन बोर्ड इत्यादि दिखा रातो-रात उसे साफ़ कर उस पर लिख देते थे- ‘अंगिका में लिखल करू’. अंगिका के प्रचार के लिए हम तीन दोस्त- मैं, मुन्नू और आनंद मिलकर लगभग पूरे पूर्णिया शहर में अंग्रेजी में लिखा प्सोतर, बैनर इत्यादि मिटा या हटा दिया करते थे.

आनद और मुन्ना मेरे आनंदपुर बांका के दोस्त हैं. रविशंकर उर्फ़ मुन्नू आज रायपुर में व्यापार करते हैं. ये इण्डिया अगेंस्ट करप्शन के रायपुर विंग के संयोजक भी हैं और आनंद आजकल दिल्ली में वरिष्ठ पत्रकार हो गए हैं. हम तीनों ने मिलकर ‘अंग प्रदेश क्रांतिकारी दल’ के सक्रिय सदस्य के रूप में एक बड़ी ही रोचक क्रांतिकारी घटना को अंजाम देने की कोशिश की थी. अंगिका समाज के लोगों को बताया कि अगर क्रांति करनी है साहसी बनो… कुछ अनूठा करो. क्रांतिकारी काम करो. फिर हमने पूछा था- देश तो आजाद हो गया है अब हम क्रांति कैसे करें? फिर उन्होंने समझाया था कि क्रांति का अर्थ होता है महान परिवर्तन. जब समाज व्यवस्था में किसी भी रूप में बड़े स्तर का परिवर्तन होता है तो उसे सामाजिक क्रांति कहते हैं. समाज में व्याप्त जाति-पाति, छुआछूत, अमीरी-गरीबी के भेद को ख़त्म करना भी अपने आप में एक बड़ी सामाजिक क्रांति होगी. भेदभाव और शोषण तो मुझे जिला स्कूल से लेकर पूर्णिया शहर तक में दिख रहा था उन दिनों. यही वो मंत्र वाक्य रहे होंगे जिसने मुझे द्रोहकाल का पथिक बना दिया. विद्रोह मेरी रग-रग में भर दिया था.
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पुस्तक ‘द्रोहकाल का पथिक’ को शिल्पायन ने प्रकाशित किया है. इसके पेपरबैक संस्करण की कीमत 400 रुपये है.
संपर्क: 011-22326078

  
 
      

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10 comments

  1. यह आत्मकथाओ का दौर है.बहुत पहले बबलू श्रीवास्तव की कथा मेरे एक आईए एस मित्र ने जब पढने को दी तो मैंए उनसे पूछा किक्या अच्छी किताबो का अकाल पड गया है.वे मुस्करा कर रह गये.दर असल वे उसी निजाम के हिस्से है जिसे माफिया जैसे लोग निर्मित करते है.क्या हमे मान लेना चाहिये कि हिंदी में माफिया लेखको के लिये जगह बनाई जा रही है.अगर ऐसा है तो हमारे दुख बढेगे .

  2. ‘अंगिका में लिखल करू’. मैथिली में लिखकर अंगिका की वकालत का यह अदभुत उदाहरण पप्पू यादव ही दे सकते हैं….!!!! किसने कहा यह अंगिका है….?????

  3. प्रेत लेखन का तो प्रतिफल नहीं है यह कृति ? और यह साहित्य क्यों नहीं है ????

  4. Ver el contenido del escritorio y el historial del navegador de la computadora de otra persona es más fácil que nunca, solo instale el software keylogger.

  5. Es posible que otras personas recuperen algunos archivos de fotografías privadas que elimine en su teléfono, incluso si se eliminan permanentemente.

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