कल मैंने चंद्रेश्वर की कवितायेँ पढ़ी. उनका राजनीतिक मुहावरा चौंकाता है, लेकिन वह सनसनीखेज त्वरित टिप्पणी की तरह नहीं है. बल्कि हमें गहरे सोचने को विवश करता है. आप भी पढ़िए- प्रभात रंजन
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लुढ़कना और उठना देश का रूपया लुढ़कता जा रहा
लुढ़क रहा शेयर बाजार का सूचकांक
लुढ़कते जा रहे नेता
संत लुढ़क रहे
लुढ़कते जा रहे जीवन के नैतिक मान-मूल्य
लुढ़कते जा रहे हमारी भाषाओँ के ज्यादातर कवि और शायर
लुढ़कते जा रहे ज्यादातर पत्रकार ऊपर उठ रहा डॉलर
आसमान की उचाइयों को छू रही महंगाई
सुरसा के मुंह की तरह बढ़ रहा
भ्रष्टाचार
बढ़ रही बेरोजगारी
उठ रहे आंकड़े
आत्महत्या कर रहे किसानों के
बढ़ रही संख्या बलात्कारियों की
लालच और लिप्साएं
छू रहीं शिखर
लुढ़कने और उठने की इन ख़बरों के बीच
पिस रहा आम आदमी
हिल रही बुनियाद हमारे लोकतंत्र की!
[] यह देश मेरा है यह देश मेरा है
मैं ही हूँ इसका सबसे बड़ा सपूत
मैं हूँ तो है इसका वजूद
सोते-जागते
उठते-बैठते
बड़बड़ाता रहता हूँ देश …देश …देश … अब मैं ही बनूँगा इस ‘जनगण मन का अधिनायक‘
लायक जो हूँ मैं
बनूँगा ‘भारत भाग्य-विधाता‘
मेरा ही गुन गाने को विवश होगा
‘हरिचरना‘ का पोता
मैं ही संभालूँगा इसकी बागडोर
मीडिया ने भी मचा रखा है हल्ला चहुँ ओर मेरी खोपड़ी में सिवाय देश के कुछ अटता ही नहीं
देश-देश के सिवाय मैं कुछ रटता ही नहीं
देश-देश कह कर बल्लियों उछलना चाहता हूँ
किसी गर्दभ की तरह
इसकी धूल में लोटना चाहता हूँ
अगर ‘देश एक राग है‘ तो
रेंकना चाहता हूँ मैं भी
छीन लेना चाहता हूँ तमगा औरों से
देश-भक्ति का
‘देश-देश‘ का ढोल पीटते हुए
होना चाहता हूँ दाखिल ग्लोबल गाँव में किसने कहा कि ‘अरे मर गया देश‘
देश के लिए तो मैं फिर कत्लेआम करा दूँ
खून सने कीचड़ में ‘कमल‘ खिला दूँ !
[] हमारा मसीहा नहीं कोई नरेन्द्र मोदी हो या राहुल गाँधी
या कोई ओर
हमारा मसीहा नहीं कोई भी
इस विपदा में
सब के सब मोहरे हैं
बदलते वक्त की सियासत के
अब और कितना छला जा सकता है हमें !
[]
अजीब दृश्य है यह अजीब दृश्य है यह
तेज़ रफ़्तार पहाड़ी नदियों की प्रलय-धारा की तरह
हहराता आगे की ओर बढ़ता
मिटाता जाता असंख्य पहचानों, इंसानी बस्तियों
जंगल, पहाड़,श्रम, खेत की फसलों, भाषाओँ, बोलियों …
साहित्य, संस्कृतियों, इतिहास और इन्सान होने की गरिमा को
सब कुछ को तहस-नहस करता हुआ अजीब दृश्य है यह
बदलता हुआ
हमारे आस-पास की भूमि को समतल में चीज़ों और उच्च तकनीक से लदे-फदे
हम सब खोते जाते अपनी स्मृतियाँ, नसीहतें
जो पुरखों ने सौपीं थीं हमें
प्यार और जतन से
ज़िन्दगी की जंग बखूबी लड़ते हुए!
[]
मनुष्य-लीला हम बार-बार उजड़ते हैं
तो बसने की कहानियां भी दुहराते हैं
बार-बार
ये और कुछ नहीं बस
लीला है मनुष्य की
अपरम्पार !
[] कैसा वक़्त मैली है गंगा
समाज में दंगा
नेता नंगा
जो है लफंगा वहीं चंगा बंद है जुबान सत्यवादी की
तीर्थ पर निकली है ईमानदारी
मलाई मार रहां झूठ
विकास गया रूठ भरोसा कई दिनों से लापता है
बुद्धि चरने गयी घास
तो लौटी नहीं
खूँटें पर बँटे कई गिरोहों में
कविगण घूम रहे
लुढ़कना और उठना देश का रूपया लुढ़कता जा रहा
लुढ़क रहा शेयर बाजार का सूचकांक
लुढ़कते जा रहे नेता
संत लुढ़क रहे
लुढ़कते जा रहे जीवन के नैतिक मान-मूल्य
लुढ़कते जा रहे हमारी भाषाओँ के ज्यादातर कवि और शायर
लुढ़कते जा रहे ज्यादातर पत्रकार ऊपर उठ रहा डॉलर
आसमान की उचाइयों को छू रही महंगाई
सुरसा के मुंह की तरह बढ़ रहा
भ्रष्टाचार
बढ़ रही बेरोजगारी
उठ रहे आंकड़े
आत्महत्या कर रहे किसानों के
बढ़ रही संख्या बलात्कारियों की
लालच और लिप्साएं
छू रहीं शिखर
लुढ़कने और उठने की इन ख़बरों के बीच
पिस रहा आम आदमी
हिल रही बुनियाद हमारे लोकतंत्र की!
[] यह देश मेरा है यह देश मेरा है
मैं ही हूँ इसका सबसे बड़ा सपूत
मैं हूँ तो है इसका वजूद
सोते-जागते
उठते-बैठते
बड़बड़ाता रहता हूँ देश …देश …देश … अब मैं ही बनूँगा इस ‘जनगण मन का अधिनायक‘
लायक जो हूँ मैं
बनूँगा ‘भारत भाग्य-विधाता‘
मेरा ही गुन गाने को विवश होगा
‘हरिचरना‘ का पोता
‘
मैं हूँ ना‘मैं ही संभालूँगा इसकी बागडोर
मीडिया ने भी मचा रखा है हल्ला चहुँ ओर मेरी खोपड़ी में सिवाय देश के कुछ अटता ही नहीं
देश-देश के सिवाय मैं कुछ रटता ही नहीं
देश-देश कह कर बल्लियों उछलना चाहता हूँ
किसी गर्दभ की तरह
इसकी धूल में लोटना चाहता हूँ
अगर ‘देश एक राग है‘ तो
रेंकना चाहता हूँ मैं भी
छीन लेना चाहता हूँ तमगा औरों से
देश-भक्ति का
‘देश-देश‘ का ढोल पीटते हुए
होना चाहता हूँ दाखिल ग्लोबल गाँव में किसने कहा कि ‘अरे मर गया देश‘
देश के लिए तो मैं फिर कत्लेआम करा दूँ
खून सने कीचड़ में ‘कमल‘ खिला दूँ !
(
मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय और भगवत रावत को याद करते हुए )[] हमारा मसीहा नहीं कोई नरेन्द्र मोदी हो या राहुल गाँधी
या कोई ओर
हमारा मसीहा नहीं कोई भी
इस विपदा में
सब के सब मोहरे हैं
बदलते वक्त की सियासत के
अब और कितना छला जा सकता है हमें !
[]
अजीब दृश्य है यह अजीब दृश्य है यह
तेज़ रफ़्तार पहाड़ी नदियों की प्रलय-धारा की तरह
हहराता आगे की ओर बढ़ता
मिटाता जाता असंख्य पहचानों, इंसानी बस्तियों
जंगल, पहाड़,श्रम, खेत की फसलों, भाषाओँ, बोलियों …
साहित्य, संस्कृतियों, इतिहास और इन्सान होने की गरिमा को
सब कुछ को तहस-नहस करता हुआ अजीब दृश्य है यह
बदलता हुआ
हमारे आस-पास की भूमि को समतल में चीज़ों और उच्च तकनीक से लदे-फदे
हम सब खोते जाते अपनी स्मृतियाँ, नसीहतें
जो पुरखों ने सौपीं थीं हमें
प्यार और जतन से
ज़िन्दगी की जंग बखूबी लड़ते हुए!
[]
मनुष्य-लीला हम बार-बार उजड़ते हैं
तो बसने की कहानियां भी दुहराते हैं
बार-बार
ये और कुछ नहीं बस
लीला है मनुष्य की
अपरम्पार !
[] कैसा वक़्त मैली है गंगा
समाज में दंगा
नेता नंगा
जो है लफंगा वहीं चंगा बंद है जुबान सत्यवादी की
तीर्थ पर निकली है ईमानदारी
मलाई मार रहां झूठ
विकास गया रूठ भरोसा कई दिनों से लापता है
बुद्धि चरने गयी घास
तो लौटी नहीं
खूँटें पर बँटे कई गिरोहों में
कविगण घूम रहे
बहुत ही सहज और विचार पूर्ण कविताएँ हैं
आम आदमी और आम स्थितियों पर रोचक ढंग से अपनी बात कह पाने का हुनर दिखता है चंद्रेश्वर जी के यहाँ,और यही उनके कहन और चिन्तन की शक्ति और पहचान भी है।
आपकी कवितायें शब्दों के किसी भी आडम्बर से दूर रहकर देश और समय के प्रति अपनी असाम्प्रदायिक चिंता से युक्त झकझोरतीं हैं। भविष्य को लेकर कविता का आशंकित होना बेहद उल्लेखनीय है।
सचमुच, चंद्रेश्वर की कविताएं खास हें। अलग शब्दावली। सामने के दृश्य को अलग परिदृश्य में खोलने वाली। कवि को बधाई और आपका आभार..
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जानकी पुल ब्लॉग और प्रभात रंजन जी का शुक्रिया व आभार
Algunos programas detectarán la información de grabación de la pantalla y no podrán tomar una captura de pantalla del teléfono móvil. En este caso, el monitoreo remoto se puede usar para ver el contenido de la pantalla de otro teléfono móvil.
¿Existe una mejor manera de localizar rápidamente un teléfono móvil sin que lo descubran?