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येल्लो, येल्लो, हम न कहते थे!

‘सबलोग’ पत्रिका के नए अंक में ‘आम आदमी पार्टी’ की सीमाओं और संभावनाओं को लेकर कई महत्वपूर्ण लेख आए हैं। लेकिन सबसे जानदार है यह पत्र जो युवा आलोचक संजीव कुमार ने लिखा है। आप भी देखिये और बताइये है कि नहीं- प्रभात रंजन।
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प्यारे अरविंद जी,
जी हां, आप ही को संबोधित कर रहा हूं। अरविंदर न समझ लीजिएगा। प्यारेका मतलब भी प्यारे ही है, ‘लवलीनहीं। उन जैसों को ख़त लिखना होता तो दिक़्क़त ही क्या थी! किसी व्यंग्यकार के लिए कांग्रेसियों और भाजपाइयों से बेहतर मसाला और क्या हो सकता है? वही पुरानी मसल याद आती है कि पूरी धरती को काग़ज़ बना दो, समस्त वनराजि को लेखिनी, और समुद्रों को स्याही, तब भी उनकी महिमा पूरी लिखी न जा सकेगी। कविवर ने यह बात भगवान के बारे में कही थी, पर ये नेतागण भगवान से कम थोड़े ही हैं। एक प्रशस्ति का अगाध विषय है तो दूसरा व्यंग्य और तंज़ का।

पर इन भगवानों के मुक़ाबले आप ठहरे आम आदमी। सो लिखते हुए संकट में हूं। इस स्तंभ के पाठकों की उम्मीद के अनुरूप मुझे आप पर तंज़ कसना चाहिए, जबकि अंदर से वह फूट नहीं रहा। क्या करूं, मैं उन लोगों की क़तार में रत्ती भर भी अपने लिए जगह नहीं देख पाता जो नीचे से आपकी नैतिक उच्च भूमि पर टकटकी लगाए बैठे हैं और बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं कि बंदा अब फिसला कि तब फिसला। आपके फिसलने के भ्रम से ही इस क़तार में खुशियों की लहर दौड़ जाती है और हम-न-कहते-थे!-हम-न-कहते-थे!का उल्लसित शोर व्याप जाता है। पतन का लेश, पतन की आशंका, पतन का रज्जु-सर्प-भ्रम भी इतना सुखकर हो सकता है, किसे पता था! मुझे तो डर है कि अगर आप सचमुच पतन के शिकार हो जाएं तो ये खुशी से पागल ही हो जाएंगे, मुहावरे में नहीं, शब्दशः!… पर थोड़े सकारात्मक सुर में कहूं तो मानना चाहिए कि वह पतन को देखने की नहीं, अपनी भविष्यवाणी को सच होता देखने की खुशी होगी। अभी तक तो आप उनकी भविष्यवाणियों की ऐसी-तैसी ही फेरते आ रहे हैं।

शुरू में आप सरकार बनाने के इच्छुक नहीं दिखे तो उनने कहाः हम न कहते थे! ये भला क्या सरकार बनाएंगे, बड़े-बड़े वादे करके फंस गए हैं, अब भागना तो पड़ेगा ही!

फिर आप जनता के बीच पूछने गए कि सरकार बनाएं या न बनाएं, तो उनने कहाः हम न कहते थे! सब जान बचाने की बहानेबाजि़यां हैं, जनता ने तो मतदान किया ही है, फिर यह रायशुमारी कैसी

फिर जब जनता के बीच जाने की इस तरक़ीब का महत्व उजागर होता गया और यह दिखा कि चार दिसंबर के दिन दिल्ली की जनता के बीच आपकी जो स्वीकार्यता थी, वह इस कार्रवाई के साथ दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जा रही है, तो खीझ कर बोलेः रायशुमारी भारतीय संविधान के हिसाब से ग़ैरक़ानूनी प्रक्रिया है। इन लोगों के मन में देश के संविधान की कोई इज़्ज़त नहीं। हम न कहते थे!
फिर आपने घोषणा की कि सरकार बनाएंगे तो वे खुशी से चीत्कार कर उठेः हम न कहते थे! हम न कहते थे! आखि़रकार यह बंदा अनैतिक गठबंधन की पंकपयोधि में उतर ही गया। देखो, सब जने देखो, इसकी कमीज़ भी सफ़ेद नहीं है।

फिर ज्यों ही पता चला कि आप पांच शयनकक्ष वाला सरकारी फ़्लैट लेने की तैयारी में हैं, वे खुशी से नाचने लगेः येल्लो, येल्लो, हम न कहते थे!

पर अफ़सोस! जितनी बार हम-न-कहते-थे की विजयध्वनि करते हुए वे जनता की ओर मुड़े, उनने पाया कि वह उन्हें सुन ही नहीं रही है। उसके कान तो आप के हर नये क़दम की आहट पर टिके हैं। इससे जो मायूसी होती है, आप समझ सकते हैं। कोई चुटकुला सुनाए और लोग हंसें ही नहीं, कोई शेर सुनाए और लोग वाह-वाह करने की बजाय प्रश्नवाचक दृष्टि से उसे ताकते रह जाएं, तब जो मायूसी होती होगी, यह उसी से मिलती-जुलती चीज़ है। इस मायूसी ने दीरघ दाघ निदाघकी तरह अहि मयूर मृग बाघको एक साथ ला दिया है। 8 सीटें जीतनेवाले से लेकर 8 गुना 4 सीटें जीतनेवाले तक, सबमें यह मायूसी एक समान है। तुम भी हम जैसे ही निकलेका छद्म संतोष क्षण भर को व्यापता है, फिर आपके अगले क़दम–राजनीति की भाषा में, अगली चाल–के साथ ग़ायब हो जाता है।

तो ख़ैर, मैं कह रहा था कि अगर मैं आपकी फिसलन पर टकटकी लगाए हुए लोगों की इस क़तार में खड़ा होता, तो निश्चित रूप से तंज़ कसने के बहाने ढूंढ़ ही निकालता। शायद वह मायूसी के इलाज के लिए एक ज़रूरी थेरैपी भी होती। पर मैं उम्मीद-वार हूं। और इसीलिए शुभेच्छु भी। आपकी बातों और कोशिशों में मुझे ईमानदारी नज़र आती है और आपका सरल अंदाज़ कहीं से भी ढोंग प्रतीत नहीं होता। जो लोग इस सादगी-सरलता को, सरकारी तामझाम न करने के निश्चय को ढोंग कहते हैं, उनसे मेरा यही कहना है कि ऐसा ढोंग भी हमारी राजनीति में संक्रामक हो जाए तो बहुत भला होगा। मोदी महाराज की सारी मंचीय हीरोपनी को आपके इस तथाकथित ढोंग ने जैसा झटका दिया है, और जिस तरह जनता के बीच बोलने और होने की वैकल्पिक छवि पेश कर उस भाव-भंगिमा का भाव गिराया है, उसके लिए सारी धर्मनिरपेक्ष ताक़तों को आपका आभारी होना चाहिए, भले ही आपने सांप्रदायिकता पर कभी एक लफ़्ज़ न बोला हो। किसी टी.वी. चैनल पर एक जनाब आपकी सारी कारगुज़ारियों को सिनेमैटिक्स ऑफ डेमोक्रेसीक़रार दे रहे थे। ये जनाब आज-गरजेगा-भारत-मां-का-सपूत-वाली नौटंकी पार्टी से थे। साथ बैठा होता तो मैं ज़रूर कहता कि अरविंद कोई इसका कापीराइट थोड़े ही लिखवा आए हैं, आपकी औक़ात हो तो आप भी करो, किसने मना किया है!

लेकिन… इसके आगे एक गंभीर लेकिन लगा हुआ है। जब मैं आपके जमावड़ों में भारत माता की जयऔर वंदे मातरमके नारे सुनता हूं, जब मैं अब तक की सरकारों के किसी नीतिगत मसले पर आपकी कोई टिप्पणी सुनने के लिए तरस जाता हूं और सिर्फ़ नैतिकता के मसले पर आपके उद्गार सुनता रहता हूं, जब आपके बाजू में अक्सर एक ऐसे तथाकथित कवि को देखता हूं जिसकी घोर स्त्रीविरोधी चुटकुलेबाज़ी मर्दाना काॅमनसेंस रखनेवाले श्रोताओं के जमावड़ों में उसे ख़ासा लोकप्रिय बना चुकी है, तो मुझे आपसे फूटनेवाली रौशनी की परास बहुत छोटी दिखती है और उससे आगे फिर अंधेरे का महासमुद्र नज़र आता है। नहीं, ये चीज़ें अपने-आप में कारण नहीं हैं। कारण तो है सोच की वह बनावट जिसकी ओर ये संकेतक इशारा करते हैं। मैं ग़लत भी हो सकता हूं, पर ईमानदारी से कहूं तो शक होता है कि कहीं आपका आमइतना आम तो नहीं कि वह हर मूलगामी सोच को ख़ासके नाम पर ख़ारिज कर देगा! कहीं ऐसा तो नहीं कि चिराचरित मूल्य-व्यवस्था को, सामाजिक रिश्तों में निहित ग़ैरबराबरी और उत्पीड़न की सहज स्वीकार्यता को, तमाम तरह की वैचारिक निर्मितियोंको स्वाभाविकमाननेवाली सोच को, सांप्रदायिकता की ओर झुकने के लिए तैयार रहनेवाली आम आदमी की सहज धार्मिकता को–इन सबको छेड़ने से आप किनारा कर लेंगे, इस नाम पर कि वही आम है। कहीं ऐसा तो नहीं कि किनारा करने की भी आपको ज़रूरत नहीं पड़ेगी, क्योंकि किनारा करनातो तभी होता है जब उन चीज़ों के कार्यसूची पर आने की कोई संभावना हो। कहीं ऐसा तो नहीं कि भ्रष्टाचार को सबसे बड़ा रोग मानने की आपकी समझ निजीकरण और उदारीकरण की मुहिम को सवालिया घेरे में लेने को तैयार ही नहीं होगी। मुझे आपका इस क़दर आम होना सचमुच असुविधाजनक लगता है कि भूमंडल के पूरे विस्तार में किसी राजनीतिक व्यवस्था और इतिहास के पूरे विस्तार में किसी राजनीतिक आंदोलन को समानधर्मा के रूप में याद करने की आपको ज़रूरत नहीं पड़ती। कहीं यह इसलिए तो नहीं है कि आप अपने कई पक्षों को जानबूझ कर अपरिभाषित रखना चाहते हैं।

भाई अरविंद जी, अब तक सांप्रदायिकता का सवाल नवउदारवादी विश्वपूंजीवाद के भारतीय अध्याय को एक बहुत बड़ी सहूलियत मुहैया कराता आया है। वह यह कि इस सवाल की वजह से भारतीय राजनीति ऐसे ध्रुवीकरण में फंसती रही जिसमें दोनों ध्रुवों के नेतृत्वकारी दल उदारीकरण के प्रबल पक्षधर थे। यानी सांप्रदायिक प्रश्न ने यह सुनिश्चित किया कि नवउदारवाद के विश्वविजय अभियान को कोई चुनौती न दी जा सके। (जो लोग नवउदारवाद को मिली सहूलियत का यह परिप्रेक्ष्य सामने रख पाते हैं, वही परमाणु करार पर वाम दलों के सख़्त रवैये का महत्व समझ सकते हैं।) मुझे डर है कि कहीं आपके द्वारा उठाया गया भ्रष्टाचार का सवाल भी उस सांप्रदायिक प्रश्न जैसी ही भूमिका तो नहीं निभाएगा, जहां नवउदारवाद की धारा अप्रतिहत आगे बढ़ती रहेगी और उस पर सवाल उठाते और असहमति जताते ही कहा जाएगा कि आप भ्रष्टाचारविरोधी मुहिम को कमज़ोर कर रहे हैं! मैं सचमुच दुखी हुआ जब पता चला कि आपकी पार्टी में बड़ी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियो के ईमानदारलोग जुड़ रहे हैं और अपने साक्षात्कार में इस बात को सिरे से ख़ारिज कर रहे हैं कि आपकी आर्थिक नीतियों का रुझान वामपंथी है।

फिर से कहूं कि मैं ग़लत हो सकता हूं। बल्कि चाहता हूं कि मेरी हर आशंका बेबुनियाद ठहरे। ऐसी कोई हसरत नहीं कि मेरी आशंकाएं सच साबित हों और मैं खुशी से चीत्कार कर उठूं कि येल्लो, येल्लो, हम न कहते थे!
 
      

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21 comments

  1. येल्लो, येल्लो, हम न कहते थे कि… सभी यही कहेंगे..कह रहे हैं.. सोच रहे हैं …आप भी और आप भी …आप सब …और यहाँ भी वही कहा गया है…कोइ नयी बात नहीं…

  2. comment is there ahead.

  3. व्यंग्य की रंगत से सज्जित सादा निष्पक्ष विवेचन

  4. आर्थिक मोर्चे पर एक बड़ी पालिसी की अनुपस्थिति और सम्प्रदायिकता पर गहरी चुप्पी वाली baat सचमुच विचारणीय है

  5. This comment has been removed by the author.

  6. vicharniya aalekh

  7. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (17.01.2014) को "सपनों को मत रोको" (चर्चा मंच-1495) पर लिंक की गयी है,कृपया पधारे.वहाँ आपका स्वागत है,धन्यबाद।

  8. संजीव भाई ने एक बेहद संजीदा बात रखने कि कोशिश की है …एक ख्याल जो हम सभी समाजवादी सोच रखने वाले लोगों के मन में है और एक ऐसे समय में जब वाम दलों ने भी आप पार्टी के साथ हाथ मिलाने का निश्चय क्र ही लिया है तब यह मसला और गंभीर हो जाता है कि अब रास्ता कौन दिखाए? ऐसे में इस तरह के लेख हमें बार बार सच का पर्दा उठानते गिराते जरूर दीखते हैं तो लगता है कि कहीं अब भी रोशनी बची हुई है…..

  9. येल्लो, येल्लो, हम न कहते थे कि… सभी यही कहेंगे..कह रहे हैं.. सोच रहे हैं …आप भी और आप भी …आप सब …और यहाँ भी वही कहा गया है…कोइ नयी बात नहीं…

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  12. आर्थिक मोर्चे पर एक बड़ी पालिसी की अनुपस्थिति और सम्प्रदायिकता पर गहरी चुप्पी वाली baat सचमुच विचारणीय है

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  15. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (17.01.2014) को "सपनों को मत रोको" (चर्चा मंच-1495) पर लिंक की गयी है,कृपया पधारे.वहाँ आपका स्वागत है,धन्यबाद।

  16. संजीव भाई ने एक बेहद संजीदा बात रखने कि कोशिश की है …एक ख्याल जो हम सभी समाजवादी सोच रखने वाले लोगों के मन में है और एक ऐसे समय में जब वाम दलों ने भी आप पार्टी के साथ हाथ मिलाने का निश्चय क्र ही लिया है तब यह मसला और गंभीर हो जाता है कि अब रास्ता कौन दिखाए? ऐसे में इस तरह के लेख हमें बार बार सच का पर्दा उठानते गिराते जरूर दीखते हैं तो लगता है कि कहीं अब भी रोशनी बची हुई है…..

  17. Para esclarecer completamente suas dúvidas, você pode descobrir se seu marido está traindo você na vida real de várias maneiras e avaliar quais evidências específicas você tem antes de suspeitar que a outra pessoa está traindo.

  18. Desde que haja uma rede, a gravação remota em tempo real pode ser realizada sem instalação de hardware especial.

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