Home / ब्लॉग / ‘अपने अपने अज्ञेय’ निस्‍संदेह विरल और औपन्‍यासिक है

‘अपने अपने अज्ञेय’ निस्‍संदेह विरल और औपन्‍यासिक है

अज्ञेय के जन्मशताब्दी वर्ष में उनके मूल्यांकन-पुनर्मूल्यांकन के अनेक प्रयास हुए। अनेक पुस्तकें उस साल आई। लेकिन सबसे यादगार पुस्तक रही ‘अपने अपने अज्ञेय’। जिसका सम्पादन किया ओम थानवी ने। देर से ही सही दो खंडों के इस संस्मरण संग्रह पर एक अच्छा लेख लिखा है ओम निश्चल ने- जानकी पुल। 
=================================================================
पनी काया में पृथुलकाय दिखने वाली किताबें दूर से ही धैर्य का इम्‍तहान लेती दिखती हैं। पर इधर एक ऐसी ही किताब सामने आई तो पढ़ने की ललक जाग उठी। दो खंडों की यह किताब एक ऐसे शख्‍स पर केंद्रित है जो अपने जीते जी अज्ञेय रहा आया है और आज भी अज्ञेय ही है। जिस शख्‍स की व्‍यक्‍तिवादिताखामोशीआभिजात्‍यनफासत सब संशय और जिरह के दायरे में आते रहे होंउसके बारे में लोगों ने क्‍या लिखा हैयह जानने की सहज ही जिज्ञासा होती है। किसी कवि का जीवन भी कहानी और उपन्‍यास की तरह सुगठित हो सकता हैयह अपने अपने अज्ञेय  पढ़ कर ही जाना जा सकता है जिसे ओम थानवी  ने मनोयोग और बेहद सलीके से संपादित किया है।
2011 में भले ही हिंदी के कई कवियों की जन्‍मशती एक साथ मनाई गई हो पर आयोजनोंप्रकाशनों की दृष्‍टि से अज्ञेय का पलड़ा भारी रहा है। इसके पीछे अशोक वाजपेयी की बहुत पहले से प्रस्‍तावित अज्ञेय जन्‍मशती समारोहों की विशद रूपरेखा और पहल ने बड़ा काम किया। जीवन भर विवादों के केंद्र में रहे अज्ञेय पर साल भर वाद-प्रतिवाद चलता रहा। बहस की मुहिम एक ओर प्रगतिशील खेमे से चलाई गयी तो दूसरी ओर ओम थानवी और अशोक वाजपेयी उत्‍तर-प्रत्‍युत्‍त्‍ार और वाद-प्रतिवाद के लिए डटे रहे। अज्ञेय पर हुए तमाम प्रकाशनों के साथ जिस एक बहु आयामी संस्‍मरणों की दो खंडों में प्रकाशित पुस्‍तक की धूम रहीउसे ओम थानवी ने लगभग दो साल की अथक तैयारियों के बाद अंतिम रूप दिया। अपने अपने अज्ञेय शीर्षक संस्‍मरणों के इस संचयन से अज्ञेय के प्रति जाकी रही भावना जैसी-कवि मूरत देखी तिन तैसी –का उद्घाटन तो हुआ ही हैअज्ञेय की शख्‍सियत को बहुत गहराई में जाकर खँगालने की कोशिश भी लेखकों ने की है। दो खंडों में सौ से ज्‍यादा संस्‍मरणों की यह पुस्‍तक अज्ञेय की शख्‍सियत और कृतित्‍व के अनुरूप ही नयनाभिराम और बहसतलब है।
अज्ञेय का जीवन शुरु से ही अन्‍य लेखकों कवियों से कुछ अलग रहा है। मौन को सबसे कारगर अभिव्‍यक्‍ति मानने वाले अज्ञेय लोगों से ज्‍यादा खुलते न थे किन्‍तु अपनी रचनाओं से उन्‍होंने साहित्‍य का एक नया प्रभामंडल रचा। अलग थलग और चाकचिक्‍य के साथ रहने की जीवन शैली के चलते उन्‍हें व्‍यक्‍तिवादी ठहराने की मुहिम-सी चली और एक हद तक उनके प्रति नकार का सिलसिला चलता रहा। किन्‍तु लेखकों पाठकों का एक वर्ग उनके अवदान को हिंदी में महत्‍वपूर्ण मानता आया है। अचरज है कि इन संस्‍मरणों में भी अज्ञेय का वह उदात्‍त और सहयोगी रूप उजागर हुआ है जो अक्‍सर उनके प्रचारित स्‍वभाव के विपरीत नज़र आता है। अपनी विशद भूमिका और संस्‍मरण में संपादक ओम थानवी ने अज्ञेय को लेकर हुई समस्‍त चर्चाओं की नोटिस लेते हुए यथास्‍थान उनका समर्थन अथवा प्रतिवाद किया है। दोनों खंडों में यद्यपि तमाम बड़े लेखकों जैनेंद्र कुमार,विष्‍णु प्रभाकररेणुधर्मवीर भारतीअंचलजानकीवल्‍लभ शास्‍त्रीरघुवीर सहाय,मनोहरश्‍याम जोशीनिर्मल वर्माकमलेश्‍वरप्रभाकर माचवेविद्यानिवास मिश्रकुँवर नारायणकृष्‍णा सोबतीनामवर सिंहलोठार लुत्‍सेप्रभाष जोशीठाकुर प्रसाद सिंहविष्‍णुकांत शास्‍त्रीविंदा करंदीकरविश्‍वनाथ त्रिपाठीकेदारनाथ सिंहकैलाश वाजपेयीरमेशचंद्र शाहअशोक वाजपेयीनंद किशोर आचार्यदेवतालेतोशियो तनाकामानस मुकुल दासप्रयाग शुक्‍लअजित कुमार,विश्‍वनाथ प्रसाद तिवारीमुकुन्‍द लाठ, ओम थानवीशंकर दयाल सिंहराय आनंद कृष्‍णप्रभाकर श्रोत्रिय और कन्‍हैयालाल नंदन आदि के संस्‍मरण शामिल हैं तो अज्ञेय को तमाम सवालों के कटघरे में खड़ा करने वाले कमलेश्‍वर और पंकज विष्‍ट के संस्‍मरण भी। पंकज विष्‍ट के संस्‍मरण डेढ़ शब्‍द और जलेबी को पढ़ कर उनके भीतर के अज्ञेय-विरोध के रसायन की सहज ही शिनाख्‍त की जा सकती है।
हने की सुविधा के लिए तो ये संस्‍मरण हैं ही पर इनके आयाम में शब्‍दचित्ररेखाचित्रआत्‍मकथा तथा जीवनी सब का सत्‍व समाया हुआ है। कुछ ने अज्ञेय के बहाने अपने बीते हुए दिनों को याद किया है तो कुछ ने अपने बहाने अज्ञेय की जीवनचर्या को दर्ज किया है। किस्‍सागोई के तत्‍वों से भरे लगभग सभी संस्‍मरण यह जताते हैं कि अज्ञेय के कितने प्रशंसक हैं। खुद ओम थानवी सहित अशोक वाजपेयी,विश्‍वनाथ प्रसाद तिवारी, रमेशचंद्र शाह , विद्यानिवास मिश्र, कृष्‍णा सोबती, कैलाश वाजपेयी, केदारनाथ सिंह और मानस मुकुल दास के संस्‍मरण लाजवाब हैं।  एक साथ 100 संस्‍मरण लिखवा लेना अज्ञेय की स्‍नेहसिक्‍त छाया में पले पुसे ओम थानवी  जैसे लेखक के बूते का ही काम है और यह जिस आकल्‍पन और बहुआयामिता के साथ संभव किया गया है उसके पीछे उनका जुनून बोलता है। वे उनके निकट अपने युवा जीवन में ही आ गए थे और उत्‍तरोत्‍तर उनके निकटतर होते गए जबकि उन दिनों अज्ञेय का चतुर्दिक विरोध हो रहा था। लेकिन इन सभी संस्‍मरणों में मानस मुकुल दास का संस्‍मरण बहुत ही नेह-छोह के साथ रचा गया है। गहरी आत्‍मीयता के साथ अज्ञेय के सहकार को बड़े धीरज के साथ उकेरा है उन्‍होंने। जिस तल्‍लीनता के साथ मानस जी ने अज्ञेय से जुड़ी यादों, घटनाओं को यहॉं सहेजा है उन्‍हें पढ़ कर अज्ञेय के प्रति अनायास प्रणति घनीभूत होती है। बच्‍चों के प्रति अज्ञेय का प्रेम कितना उत्‍कट था, मानस के इस संस्‍मरण में उसके अनेक उल्‍लेख हैं। लगभग पचास पृष्‍ठों में फैला होने के बावजूद यह संस्‍मरण एक गल्‍प की तरह बॉंधे रखता है। मानस मुकुल दास ने अज्ञेय के जीवन और स्‍वभाव को बड़े करीने से सँजोया है। आसक्‍ति-अनासक्‍ति पर हो रही बातचीत के दौरान मित्र विवेकदत्‍त द्वारा मंहगी चीजों वाले बैग को अचानक वेगवती नदी में फेंक कर अज्ञेय की अनासक्‍ति को कसौटी पर कसने का उदाहरण वाकई नायाब है। कथनी और करनी में न्‍यूनतम अंतर अज्ञेय के अनासक्‍त चित्‍त की विशेषता थी। इसी तरह एक अन्‍य उदाहरण शिवमंगल सुमन के डीलिट्-शोध प्रबंध की तैयारियों का है जब वे अपने ठीहे पर रह कर शोध कार्य पूरा न होते देख इलाहाबाद अज्ञेय के पास आए थे और कैसे अज्ञेय ने उन्‍हें 18 दिनों तक मानस मुकुल दास की मॉं की देखदेख में रखा और वे कार्य पूरा कर सके। यही नहीं, हौसला अफजाई के लिए मानस के पिता तो थे ही, अज्ञेय ने लिखे हुए की समानांतर टाइपिंग के लिए अपने टाइपिस्‍टों को उनकी सेवा में लगा दिया था। सुमन का काम लिखना था, अज्ञेय लिखे हुए को जांचते, टंकित करवाते। अठारहवें दिन यह मिशन पूरा हुआ जब अज्ञेय खुद शोध प्रबंध की जिल्‍द बँधवाकर, सुमन को कार पर बिठा कर स्‍वयं जमा भी करा आए। यह हैं अज्ञेय। क्‍या ऐसी अहेतुक मैत्री आज देखने को मिलती है? अज्ञेय के सान्‍निध्‍य में रही इला डालमिया  का संस्‍मरण मौन का शिल्‍प अलग ढंग से अज्ञेय की बारीकियों को उरेहता है।
 ओम थानवी के चार शब्‍द और उनके संस्‍मरण छायारूप के गवाक्ष को खोल कर देखें तो संस्‍मरणों को जुटाने की प्रयोजनीयता समझ में आती है। अज्ञेय जन्‍मशती पर ऐसा अनूठा आयोजन वही कर सकते थे। लिहाजा बहुत से लेखकों के प्रकाशित और पत्र-पत्रिकाओं के असंकलित संस्‍मरणों के साथ लिखवाए गए तमाम नए संस्‍मरणों को उन्‍होंने यहॉं सहेजा है। चार शब्‍दों में उन्‍होंने अज्ञेय को लेकर फैले पूर्वग्रहों की धुंध छॉंटी है, लोगों के दुराग्रहों का उत्‍तर दिया है, गलतबयानियों को संगत निष्‍कर्षों के साथ काटा है, उन्‍हें हिंदुत्‍ववादी, दकियानूसी, व्‍यक्‍तिवादी, सीआईए का एजेंट, अंग्रेजों का जासूस, वामपंथ विरोधी आदि आदि के रूप में देखे जाने का प्रत्‍याख्‍यान किया है और उनके उत्‍तर जीवन की सांस्‍कृतिक यात्राओं को संप्रदाय विशेष में सांस्‍कृतिक खोज की संज्ञा दिए जाने की संकीर्ण अवधारणाओं को उनके समकालीनों का दुराग्रह बताया है। ओम थानवी ने यहॉं समाविष्‍ट संस्‍मरणों के हवाले से यह सिद्ध करने का यत्‍न भी किया है कि इनमें कहीं भी अज्ञेय के धर्मभीरू या कर्मकांडी होने की बात सामने नहीं आती बल्‍कि इनके भीतर से वे अज्ञेय उभरते हैं जो वाकई साहित्‍य में नई राहों के अन्‍वेषी थे, परंपरा का सम्‍मान करते थे किन्‍तु आधुनिक वैज्ञानिक दृष्‍टियों के आविष्‍कर्ता भी थे। उन पर यह हिंदुत्‍ववादी छाया मढ़ने की कोशिश भी उनके नि

 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

तन्हाई का अंधा शिगाफ़ : भाग-10 अंतिम

आप पढ़ रहे हैं तन्हाई का अंधा शिगाफ़। मीना कुमारी की ज़िंदगी, काम और हादसात …

11 comments

  1. ये दोनों खंड एक व्‍यक्‍ति पर संस्‍मरण-समालोचन-वृत्‍तांत शैली में लिखे होने के बावजूद एक गल्‍प की तरह पठनीय हैं। ओम थानवी की सुरुचि इसमें साफ झलकती है। अज्ञेय शती के दौरान बर्कले सहित देश विदेश तमाम जगहों पर हुए सैकड़ों आयोजनों अनुष्‍ठानों में इस काम को सर्वोपरि मानता हूँ।

    वाणी प्रकाशन के प्रकाशक अरुण महेश्‍वरी जी ने इसे बेहद सुरुचि से प्रकाशित भी किया है। संपादक -प्रकाशक दोनों को पुन: पुन: साधुवाद।

    अनिल प्रसाद जी। अज्ञेय से कुछ मुलाकातों की याद है। एक बड़े लेखक से मिलने का संकोच शब्‍दों में नहीं टॉंका जा सकता है और जिनकी अज्ञेय से संवादमयता का रिश्‍ता रहा हो,उनके क्‍या कहने। अज्ञेय के न रहने पर लगता है, शब्‍दों को उसकी गरिमा के साथ बरतने वाला एक नेक इंसान हमारे बीच नहीं है। उसके वे टांके हुए शब्‍द हैं—उसकी एक अदृश्‍य आभा गढ़ते रचते हुए।

  2. बहुत विस्तृत एवम् सुंदर लेख : ‘ऑंख को फ़ख्र है इस पर कि तुम्‍हें देखा है/ होंठ शर्मिंदा हैं इस पर कि कोई बात न की।‘

  3. hey there and thanks for your info ? I?ve definitely picked up something new from proper here. I did alternatively experience a few technical issues using this website, as I skilled to reload the website a lot of occasions prior to I may just get it to load correctly. I had been considering in case your web host is OK? Now not that I’m complaining, but slow loading circumstances times will sometimes affect your placement in google and can harm your high quality ranking if ads and ***********|advertising|advertising|advertising and *********** with Adwords. Anyway I?m including this RSS to my e-mail and could look out for much more of your respective intriguing content. Make sure you replace this once more very soon..

  4. Quando suspeitamos que nossa esposa ou marido traiu o casamento, mas não há evidências diretas, ou queremos nos preocupar com a segurança de nossos filhos, monitorar seus telefones celulares também é uma boa solução, geralmente permitindo que você obtenha informações mais importantes.

  5. Ao tentar espionar o telefone de alguém, você precisa garantir que o software não seja encontrado por eles depois de instalado.

  1. Pingback: gun store

  2. Pingback: 드라마 다시보기

  3. Pingback: 뉴토끼

  4. Pingback: go here

  5. Pingback: buy ayahuasca tea online london,

  6. Pingback: pink astro

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *