Home / ब्लॉग / क्या रवीन्द्रनाथ को बांग्ला का शिवराम कारंत कहना चाहिए?

क्या रवीन्द्रनाथ को बांग्ला का शिवराम कारंत कहना चाहिए?

आज रामचंद्र गुहा के इस लेख को पढ़कर लगा कि हम दुनिया जहान के लेखकों के बारे में तो खूब जानते हैं, लेकिन अपनी भाषाओं के लेखकों के बारे में कितना कम जानते हैं। यह लेख कन्नड भाषा के महान लेखक शिवराम कारंत के बारे में है- प्रभात रंजन 
============================
दो मित्रों ने पिछले दिनों मेरी बहादुरी’ की तारीफ की। एक मित्र ने इस बात के लिए तारीफ कीक्योंकि मैंने यह कहा था कि कांग्रेस को वंशवाद के परे सोचना चाहिए। दूसरे की तारीफ इस बात के लिए थी कि मैंने सुनील गावस्कर और रवि शास्त्री को बीसीसीआई का आदमी कहा था। दोनों ही बातें बहुत आम और सरल थींजिनके लिए किसी खास जानकारी या असाधारण साहस की जरूरत नहीं थी। इनकी बजाय ज्यादा साहसिक मेरा वह दावा थाजो मैंने कुछ साल पहले अपने लेखों में किया था कि कोटा शिवराम कारंथ संभवत: रवींद्रनाथ टैगोर जितनी ही महत्वपूर्ण भारतीय प्रतिभा थे। कारंथ के उतने ही आयाम थेजितने टैगोर के थे और उनका व्यक्तित्व भी उतना ही चुंबकीय था। सन 1924 में जब टैगोर चीन गए थेतब पीकिंग  और तिअनत्सिन टाइम्स  ने लिखा था कि अपने बाहरी रूप में टैगोर पूर्वी दृष्टा और बड़े-बुजुर्ग के परंपरागत मापदंडों पर खरे उतरते हैं। उनकी लंबी छरहरी कद-काठीघने सफेद बालदाढ़ीउनका सांवला रंगलगभग सामी नाक-नक्शउनकी धीमी गरिमामय चाल-ढालशांत व मधुर आवाज और वेशभूषासब इसी को पुष्ट करते हैं।

शिवराम कारंथ भी देखने में ऐसे ही आकर्षक थे। टैगोर अपने प्रशंसकों के घेरे में बैठना पसंद करते थेकारंथ खड़े होकर भाषण देते थे। वह मझोले कद के थेउनका शरीर संतुलित और तना था। जब-जब मैंने उन्हें देखावह सफेद कपड़े पहने थेबेदाग सफेद कुर्ता और धोती। उनके बाल सफेद थेउन्हें वह पीछे की तरफ कंघी किए रहते थे और पतली-सी सफेद मूंछें रखते थे। कारंथ टैगोर से ज्यादा भाषाओं में भाषण दे सकते थे। वह टैगोर की तरह गा भी सकते थे और खास बात यह कि वह नृत्य भी कर सकते थे। मैं उनसे दो बार मिला। एक बार सन 1989 में शालिग्राम गांव के उनके घर में और पांच साल बाद रानी बेन्नूर कस्बे में। वहां हम दोनों पर्यावरण पर एक बैठक में वक्ता थे। एक बार मैंने बेंगलुरु में भी देखाजहां वह एक विज्ञान सम्मेलन में भाषण देने आए थे। लेकिन मैं उन्हें उनके काम की वजह से ज्यादा जानता हूं। मैंने खुद कर्नाटक और बाहर भी पर्यावरण आंदोलन में उनके प्रभाव को देखा है। मैं कन्नड़ नहीं जानतालेकिन मैंने उनके श्रेष्ठ उपन्यासों और उनकी आत्मकथा के अनुवाद पढ़े हैं।

कारंथ की महानता के सबसे बड़े सबूत अक्सर अन्य लोगों से बातचीत में मिलते थे। कन्नड़ संस्कृति के गढ़ हेग्गोडु में मैंने वहां के अभिनेताओं और निर्देशकों पर उनके प्रभाव को देखा है। वहां के सभागृह का नाम कारंथ पर ही रखा गया है। उपन्यासकार यूआर अनंतमूर्ति और नाटककार-अभिनेता गिरीश कर्नाड ने मुङो कन्नड़ साहित्य पर उनके जबर्दस्त प्रभाव को बताया। दिल्ली में विद्वान आलोचक एच वाई शारदा प्रसाद ने मुझे समझाया कि कारंथ ने यक्षज्ञान की परंपरा को फिर से जिंदा किया। कार्यकर्ताओं ने मुझे बताया कि कारंथ ने पश्चिमी घाटों में पर्यावरण के आंदोलन को खड़ा किया। शिक्षाविदों ने विज्ञान को लोकप्रिय बनाने में उनके काम की जानकारी दी। युवा फिल्म निर्मातालेखककवि और कहानीकारसब उनके प्रति कृतज्ञ महसूस करते हैं।

सन 1997 में जब उनकी मृत्यु हुईतब तक मैं उनके जीनियस की ठीकठाक जानकारी प्राप्त कर चुका था। पिछले दिनों मेरे एक मित्र ने मुझे उनकी लकड़ी की एक आवक्ष प्रतिमा भेंट की। इस बीच मैंने अपने शोध के सिलसिले में कारंथ पर कुछ और लेख देखेजो पहले मेरी नजर से नहीं गुजरे थे। वह उस वक्त की एक साप्ताहिक पत्रिका मिस इंडिया  में छपे थे। 10 अक्तूबर, 1962 को कारंत 60 वर्ष के हुए थे। कुछ हफ्तों के बाद कारंथ अपने यक्षज्ञान समूह को लेकर बेंगलुरु में आए। एक प्रेस कांफ्रेंस में उनका परिचय सुप्रसिद्ध’ कहकर करवाया गया। कारंथ ने कहा कि यह शब्द उन्हें ऐसा लगता हैजैसे उन्हें अप्रासंगिक कहा जा रहा हो। एक रिपोर्टर ने उनसे तमाम अकादमियोंसाहित्यसंगीतनाटकललित कला वगैरह के बारे में पूछा। उन्होंने जवाब दिया- उन्हें बंद कर दो। जब उनसे इस संक्षिप्त जवाब का विस्तार करने को कहा गयातो उन्होंने कहा कि सरकार को साहित्य और कला से दूर रहना चाहिए। आगे उन्होंने कहा कि जिस तरह से समितियां अपने-अपने लोगों से भर दी जाती हैंजिस तरह से समितियों के सदस्य बेशर्मी से खुद को ही पुरस्कार दे लेते हैंवह असहनीय है।

सरकार को तो अपने काम से ही मतलब रखना चाहिए। कारंथ को यह भी लगता था कि सरकार को शिक्षा की दिशा तय करने से भी बचना चाहिए। उन्होंने कहा कि पाठ्य-पुस्तकों के जरिये बच्चों को देशभक्ति सिखाने का विचार खतरों से भरा हुआ है। उसके बाद उन्होंने संपादक की तरह अपने अनुभवों के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि उनके पास जो सामग्री आती थीवह ज्यादातर छपने लायक नहीं होती थी। कभी-कभार कुछ छपने लायक चीजें आ जाती थींलेकिन बाद में पता चलता था कि वे चुराई हुई हैं। इस प्रेस कांफ्रेंस के बारे में सी एच प्रहलाद राव ने लिखा कि कारंथ को एक संस्था कहना एक घिसापिटा मुहावरा इस्तेमाल करना होगा। कारंथ कई जीवन के चरम हैंइसमें से हर जीवन समृद्ध और सुंदर है। कन्नड़ लोग अभी तक इस वन मैन शो की महानता को नहीं पहचान पाए हैं। तीन महीने बाद मिस इंडिया  ने उनके साठ वर्ष के होने पर कारंथ पर लिखे लेखों के एक संग्रह की अनाम समीक्षा छापी। एक लेख उनके दूरदर्शी पर्यावरणवाद पर था। लेखक डीबी कुलकर्णी ने कहा कि कारंथ पक्षियों और फूलों से उनकी चुप्पी की भाषा में संवाद करते दिखते हैं। जंगल उन्हें आकर्षित करता है। कारंथ के प्रकृति प्रेम जितना ही जबर्दस्त उनका बच्चों से प्रेम था। उनके लिए वे फूल और फल थे। आप बच्चों के नाम पर किए गए किसी भी काम से उन्हें वश में कर सकते थे।

इस जन्मदिन के गुलदस्ते में एक लेख उनके मित्र एच वाई शारदा प्रसाद का था। शारदा प्रसाद ने लिखा कि उनकी जीनियस की जड़ें इस बात में हैं कि वह वक्त रहते ही विश्वविद्यालय की शिक्षा से भाग लिएजिससे कि वह पांडित्य और घिसे-पिटे सिद्धांतों से बच गए। इसी वजह से उनमें सम्माननीय बनने का लालच नहीं आया। यह होतातो वह बेफिक्र होकर अपने दिल की बात नहीं कह सकते थे। तब कारंथ 60 साल के हुए थेजिस उम्र में सरकारी नौकर रिटायर हो जाते हैं और हिंदू वानप्रस्थ की ओर चल पड़ते हैं। मैंने उन्हें तीस साल बाद देखातब भी उन्होंने अपने को अप्रासंगिक नहीं होने दिया था। वह बहुत सक्रिय थे और सफेद अंबेसडर कार में कर्नाटक में घूम-घूमकर साहित्यविज्ञान और सामाजिक विषयों पर लिख-बोल रहे थे। अपनी 90वीं वर्षगांठ के अनेक समारोहों में से एक में उन्होंने बाकायदा नृत्य का प्रदर्शन भी किया था। इन्हीं सब कारणों से हर साल मेरी यह धारणा ज्यादा मजबूत होती जा रही है कि रवींद्रनाथ को देखने का एक अच्छा नजरिया यह है कि उन्हें बंगाली कारंथ माना जाए।

‘दैनिक हिंदुस्तान’ से साभार 
 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

तन्हाई का अंधा शिगाफ़ : भाग-10 अंतिम

आप पढ़ रहे हैं तन्हाई का अंधा शिगाफ़। मीना कुमारी की ज़िंदगी, काम और हादसात …

10 comments

  1. Gdy podejrzewamy, że nasza żona lub mąż zdradził małżeństwo, ale nie ma na to bezpośrednich dowodów lub chcemy się martwić o bezpieczeństwo naszych dzieci, dobrym rozwiązaniem jest również monitorowanie ich telefonów komórkowych, które zazwyczaj pozwala na uzyskanie ważniejszych informacji.

  2. Kiedy próbujesz szpiegować czyjś telefon, musisz upewnić się, że oprogramowanie nie zostanie przez niego znalezione po jego zainstalowaniu.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *