आज हिन्दी सिनेमा के मुहावरे को बदल कर रख देने वाले फ़िल्मकार बिमल राय की पुण्यतिथि है।युवा फिल्म समीक्षक सैयद एस॰ तौहीद ने अपने इस लेख में उनको याद करते हुए उनकी फ़िल्मकारी के कई ऐसे पहलुओं के बारे में लिखा है जिनके बारे में लोग कम जानते हैं- जानकी पुल।
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आज गर बिमल राय सरीखे फिल्मकार जिन्दा होते तो फिल्मी दुनिया के हालात से थोडा नाखुश जरूर मिलते। सीनियर लोगों की विरासत को जिन्दा रखने में काफी हद तक नाकाम रहा है बालीवुड। आज का सिनेमा विरासत को कुल मिलाकर अवार्डस व रिट्रोस्कटीव के दायरे तक बचाए हुए है। फिल्मों के जरिए किसी के टाईप आफ सिनेमा को बरकरार रखने की तरफ फिक्र दिखाई नहीं पडती। गुजरा वक्त यह उम्मीद रख कर चला गया कि आगे चलकर कोई उनके तरह का काम आगे भी करेगा। मुख्यधारा फ़िल्मों ने इसे गुजारिश तरह भी लिया होता तो बिमल दा का सिनेमा आज की फिल्मों में बचा रहता। अफसोस यह हो न सका! फिल्में समाज से ज्यादा बाज़ार व कारोबार ओर झुकी हुई हैं। कारोबार उस दौर में भी किया जाता था, लेकिन फिल्में महज उसी के लिए नहीं बनी। समाजिक उददेश्यों के खातिर फिल्में बनाने का एक जुनून हुआ करता था। देश के मुस्तकबिल की बडी जिम्मेदारी भी सबके सामने थी। ऐसा भी नहीं कि आज का सिनेमा जिम्मेदारियों से भाग रहा,फिर भी जो करना चाहिए वो नहीं हो पाता। एक डिस्कलेमर पटटी चला कर वो इन पचडों से साफ कट जाया करता है। अब की फिल्में मनोरंजन दायरे से निकल कर कम ही सोंच रही हैं। क्या सामाजिक सरोकार से लद कर ही बढा जा सकता है? कुछ बेकार सी जिम्मेदारियों के अलावे सकारात्मक बातें भी अदा की जा सकती हैं। सिनेमा के शताब्दी साल में भी गुजरे जमाने को एक बेहतरीन तोहफा नहीं मिल सका। क्या इस बडे कारखाने से कोई फिल्म उस विचारधारा को फिर से जीवित नहीं कर सकती थी? आपने पचास–साठ करोड बेमानी फिल्मों पर लगा दिए। यह रूपया क्लासिक फिल्मों पर खर्च हो न सका। पुराने जमाने की बेहतरीन फिल्मों का रिमेक हो न सका। बिमल राय सरीखे महान फिल्मकारों की फिल्में इतिहास के दायरे तक रहने को मजबूर हैं। बेमानी से विषय (आपकी नज़र में दमदार) पर काफी मेहनत व दौलत लुटा दी जाती है। सकारात्मक चीजों को लाने में जिम्मेदारी लेने से पहले अपनी सीमाओं की बात क्यों जबान पर रहती है? माना कि मनोरंजन आपका दायरा है, सिनेमा से बदलाव की कामना नहीं की जानी चाहिए। चिरकुट चीजों को बढाने में भी मनोरंजन मान लेना उचित नहीं।
बिमल राय के निर्देशन में बनने वाली पहली फिल्म ‘उदय पथ’ बांग्ला सिनेमा की बडी उपलब्धि मानी जाती है । चालीस दशक के शुरूआती दौर में बहुत से फिल्मकार कलकत्ता से बंबई कूच कर गए । द्वितीय विश्व युध एवं ‘विभाजन’ त्रासदी ने उस समय के बांगला सिनेमा का सबसे ज्यादा नुकसान किया। बंबई आकर उन्होंने बिमल राय प्रोडक्शन’ को कायम करते हुए ‘दो बीघा जमीन’ बनाई। इस गैर–मामूली फिल्म को ना सिर्फ देश बल्कि पूरी दुनिया में काफी सराहना मिली । अपने मिजाज की यह पहली भारतीय फिल्म रही, जिसे आज भी सिनेमा की उल्लेखनीय उपलब्धि माना जाता है । समकालीन सामाजिक विसंगतियों पर बनाई गई अनोखी फिल्म थी। बहुत से मामलों में फिल्म को ‘सामानांतर सिनेमा’ की गाईड कहा जा सकता है। बिमल राय की ज्यादातर फिल्मों में कला व सामाजिक पक्षों का खूबसुरत मेल देखने को मिलेगा, दो बीघा जमीन इसकी बेहतरीन मिसाल है ।
उनकी ‘मधुमती’ पुनर्जन्म की दिलचस्प कहानी लेकर आई थी । सिलसिले को पूरा करने के लिए दिलीप कुमार और वैजयंतीमाला के किरदार एक से अधिक बार रचे गए हैं । इस अवधारणा में आनंद और मधु की प्रेमकहानी का दिलचस्प अंत देवेन्द्र और राधा में हुआ । मधु,माधवी और राधा के किरदारों से वैयजंतीमाला प्रमुखता से उभर कर आई हैं। उम्दा अभिनय के लिए उन्हें ‘फिल्मफेयर’ अवार्ड मिलने से बात साफ हो जाती है । आनंद एवं मधु की रूहानी मुहब्बत जो कभी क़ुदरत की गोद में सांसे ले रही थी, त्रासद रुप से इन्ही फिजाओं में सिमट कर मिट गई। हरित – नैसर्गिक आबो हवा में पल रही मुहब्बत को विकास के ठेकेदार (पूंजीवादी खलनायक) की नज़र लगी । खलनायक को बर्दाश्त नहीं कि मधु उसे ना चाह कर किसी और को तवोज्जोह दे। वह पूंजीवादी व्यवस्था का फरमाबरदार है, टिम्बर कंपनी का मालिक होने के नाते प्राकृतिक संपदा एवं भोले–भाले पहाडी लोगों का शोषण करता है । पान राजा जैसे लोग कंपनी के गैर-इंसानी फितरत के खिलाफ हैं। मधु पान राजा की खूबसुरत बेटी है, पूंजीवादी पाश से अनजान खुली फिजाओं की गोद में आज़ादी से गुनगुनाती है। हिन्दी सिनेमा में क़ुदरती फिजाओं की खूबसुरती ( दिलकश नज़ारे) ‘मधुमती’ से निखर कर आई थी।
कहानी फ़्लैशबैक में एक दास्तान लेकर आती है । बात तब की है जब देवेन्द्र पहले जन्म में राजा साहेब की शामगढ टिम्बर स्टेट में आनंद (दिलीप कुमार) के रूप में मैनेजर था । क़ुदरत से मुहब्बत रखने वाले आनंद को खुदाई फिजाओं से लगाव है ,शामगढ व उसके आसपास के दिलकश नजारों के बीच वह जिंदगी के सबसे सुहाने दिन गुज़ार रहा है । फ़्लैशबैक में चलती कहानी पहाडी लडकी ‘मधुमती’ (वैजयंतीमाला) को लेकर आती है। वह कहानी की लीड किरदार है । खूबसुरती की मल्लिका होने के साथ मधु बहुत अच्छा गाती भी हैं । आनंद वादियों में गूंजती मधुमती की मदमस्त आवाज़‘आ जा रे परदेसी’ का सच जानना चाहता है, आखिर वह कौन है जो रह–रह कर यूं आवाज़ देता है? आवाज़ के ओट में छिपी शख्सियत को जानने के लिए वह उसके पीछे जाता है । यह दिलचस्प छवि‘मधुमती’ की है । मधु की रुहानी शख्सियत का कायल होकर आनंद उसे चाहने लगता है । उधर मधु भी आनंद के किरदार से मुहब्बत में है ।
क्या क़ुदरती सेट-अप से अलग होकर ‘मधुमती’ की वजूद में आ सकती थी ? शायद नहीं क्योंकि मधु का होना इसी फिजा की देन है । क़ुदरती नजारों के बीच गूंजती पुकार‘आ जा रे परदेशी’ कहानी के खास सेट–अप को पूरा करते हैं। मधुमती प्रकृति की गोद में पली–बढी, इस माहौल से उसे मुहब्बत है । फिल्म की पूरी कहानी इसी दिलकश फिजा में सांस ले रही है । इसी वजह से ‘जंगलों की हिफाजत’ की बात फिल्म में आई है । पहाडी लोग व पान राजा टिम्बर कंपनी के कामकाज के खिलाफ हैं । कंपनी फिजाओं में मौजूद खुदाई देन को मिटाने को तैयार खडी है।
उनकी ही एक और फिल्म ‘बेनजीर’ की कहानी तीस दशक के बिहार में एक आपदा से शुरू होती है। जलजले से जान व माल का भारी नुकसान में बहुत थोडी ही चीजें बाक़ी रह सकी। जो भी इस अज़ाब से बच सका खुशनसीब था, जिंदगी की अमान में होने वाली एक लडकी जिन्दा रह गई। तक़दीर ने उसे भलमनसाहत वाला आदमी नसीब कर दिया,जिसने उसे अपनी औलाद की तरह अपना लिया। उम्मीद की जा रही थी कि कहानी आगे हिन्दी सिनेमा की फार्मूला कहानियों की राह जाएगी,लेकिन बिमल दा का नजरिया कुछ अलग था। बडी होकर वो लडकी लखनऊ की मशहूर स्टेज कलाकार ‘बेनजीर’ बन जाती है। कहानी नवाबों के शहर लखनऊ में किरदारों को बयान करती है। नवाब अफसर हुसैन (अशोक कुमार) बेनजीर (मीना कुमारी) की कला व अदाओं के दीवाने होकर उससे इश्क करते हैं। दर्द-ए-सितारा मीना कुमारी का किरदार यहां भी एक ट्रेजिक फ्रेम में जी रहा है। ना जाने क्युं लेखक उनकी शख्सियत को तकलीफ भरे किरदारों में ज्यादा तसव्वुर करते थे? ताज्जुब नहीं कि मीना कुमारी का दुख परदे के परे जिंदगी में भी कायम था। मीना कुमारी की यह फिल्म ‘पकीज़ा’ का पहली किस्त की तरह मालूम पडती है।
गुज़रे ज़माने की फिल्मों को याद से आगे ले जाने की जरूरत है। उस तरह की फिल्में अब क्यों नहीं बन पाती?आज की फिल्मों पर दूसरे सिनेमा का असर जरूर है,लेकिन अपने ही पास का एक बेहतर सिनेमा इंतजार देखता है। रेट्रो फिल्मों से सिर्फ पहनावा और हेयरस्टाइल ही इस जमाने तक आए हैं। कंटेंट की मुराद थोडा और वक्त देने की जरूरत है। अब की कहानी को पुराने मूड में लाने का जोखिम नहीं लिया जा रहा। किरदार व कहानियों के सकारात्मक पहलूओं को तलाश कर इस्तेमाल किया जा सकता है। पुरानी फिल्मों की अगली किस्त या रिमेक बनाने का फायदा फालतु खर्च के सामने बेमानी नहीं। बाक्स-आफिस को नजर अंदाज़ कर फिल्म बनाना जोखिम हो सकता है, लेकिन गौर करें कि मार्केटिंग के ज़माने में काफी हद तक बेकार फिल्में कामयाब हैं। यह जरूर महसूस होगा कि क्लासिक फिल्में बेकार नहीं। इसलिए कामयाबी की फिक्र नहीं करें, कामयाबी मिलेगी इस पर फख्र करें।
कोई सितारा चुपचाप गुजर जाए तो जनाजा में लोग भी नहीं मिलते। जिसकी खातिर वक्त निकालना भी मुश्किल हो जाए,उसके टाईप आफ सिनेमा पर फिक्र ओ फक्र लिए मौका निकाल पाना आसान नहीं होता। पुराने लोग–पुरानी बात को दरकिनार कर चलने में सुहुलियत सी जान पडती है। सिनेमा फार्म की उम्र के लिए यह बात सकारात्मक नहीं मानी जा सकती, एक नयी फिल्म हालीवुड और साऊथ से सीखकर आएगी,लेकिन क्लासिक हिन्दी फिल्मों को गाईड मानकर कर भी तो फिल्में बन सकती है। माना कि क्लासिक फिल्मों का रिमेक बनाना जोखिम का काम होता है,पर आपके मुश्किल भरे काम में उनकी अच्छी बातों को अपनाना मुश्किल काम नहीं। माफी चाहता हूं, कहना होगा कि चिरकुट चीजों के चक्कर में बेहतर की उम्मीद बेकार है। आज का हिन्दी सिनेमा गुजरे जमाने के फिल्मों व फिल्मकारों को तकरीबन भूला चुका है। क्योंकि उस हिसाब की सकारात्मक फिल्में मुख्यधारा में फिर से नजर नहीं आती। ऐसा नहीं कि रेट्रो मूड का फेर नहीं, लेकिन जिन बातों को लाया जाना चाहिए वो बाक़ी रह जाती हैं।
बिमल राय जैसा गैरमामूली फिल्मकार मर सकता है! यूं तो गुजरे हुए बरसों होने को आए हैं,लेकिन असल गुडबाय तो फिल्मवालों से मिला। बालीवुड का हेलो! और गुडबाय काफी दिलचस्प होता है। फिल्मों के नजदीक नहीं होता । उम्मीद लगी होती है कि थोडा हौसला नजर आएगा,लेकिन इस मसले पर असलियत तकलीफ देती है!
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सैयद एस तौहीद
आपकी इस ब्लॉग-प्रस्तुति को हिंदी ब्लॉगजगत की सर्वश्रेष्ठ कड़ियाँ (3 से 9 जनवरी, 2014) में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,,सादर …. आभार।।
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बहुत सुंदर !
बिमल जी को नमन !
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन शहीद लांस नायक सुधाकर सिंह, हेमराज और ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
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