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आनंद नगर में कुछ घंटे आनंद के

युवा पत्रकार-लेखक पुष्यमित्र ने हाल में ही कोलकाता की यात्रा की और उस यात्रा का एक रोचक वृत्तान्त लिखा। आपके लिए- जानकी पुल।
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सुबह पांच बजे जब मेरी बोगी में चा खाबे.. चा खाबे की आवाज गूंजने लगी तो मेरी नींद खुल गयी. मेरा मन उत्साह से भरा था. यह चा खाबे.. चा खाबे की आवाज मुङो बता रही थी की कोलकाता करीब आ गया था. एक ऐसा महानगर जो मेरे दिल के करीब है. बचपन से कई छोटी-बड़ी अनुभवों, किस्सों, फिल्मों और तसवीरों ने मुङो कोलकाता के करीब पहुंचाया है. मुङो हमेशा लगता रहा है कि इस शहर में वो आकर्षण है जो हमेशा मुझे अपनी तरफ खींचता है. कुछ तो बात जरूर है, अंदरूनी तार जुड़े हैं या कोई पारलौकिक रिश्ता. पता नहीं.. 
कोलकाता जाने में क्या नया है.. क्या खास है भारत के एक भीड़ भरे महानगर में घूमने के लिए जो कुल मिला कर औपनिवेशिक शासन की निशानी भर है और पिछले कुछ सालों में जहां एक तरफ इसे देश के दूसरे महानगरों जैसा बनाने की कोशिश की जा रही है, वहीं नये राजनीतिक बदलाव ने तय कर लिया है इस शहर में जो कुछ अच्छा था उसे बिगाड़ कर रहेंगे. पता नहीं क्या बात है.. मगर आठवीं या नौंवी कक्षा में जब स्कूल की तरफ से हमें टूर पर ले जाया जा रहा था तो भी हमनें तय किया था कि हम कोलकाता जायेंगे. हमारे प्रिंसिपल जो हिंदी और संस्कृत के विद्वान थे, ने हमें समझाया था क्या है कोलकाता में, बोलपुर चले जाओ. तब एक सहपाठी ने अभद्रता से कहा था कि बोलपुर जाकर क्या भजन करना है. मैं आज तक बोलपुर नहीं जा पाया. मगर उस दफा हमलोग जिद करके कोलकाता घूम आये थे. जितना विक्टोरिया मेमोरियल के मैदान में युगल जोड़ों को जमाने की निगाहों को अनदेखा करके प्रेम करते हुए देखने का आकर्षण था, उतना ही क्रिकेट के सबसे बड़े स्टेडियम इडन गार्डेन जाने का और भूमिगत मैट्रो रेल को देखने का तब दिल्ली मैट्रो की योजना भी नहीं बनी होगी. तीन दिन की यात्र में हमने अपनी तरफ से इन तीन चीजों की फरमाइश की थी शिक्षकों ने हमें अपनी तरफ से कुछ बड़े संग्रहालय दिखा दिये जिसकी यादें आज तक मन में ताजा है. मगर 23-24 साल पुरानी इस यात्र की न कोई खास यादें मन में बची हैं और न ही हम समझ पाने के काबिल थे कि इस शहर में विक्टोरिया मैमोरियल और इडन गार्डेन के अलावा भी कई चीजें हैं जो बिटविन द लाइन्स की तरह हैं. वे हैं शहर का मिजाज, लोगों की गति और उनके तौर तरीके. मगर इन चीजों को देखने के लिए पर्यटन भी नहीं किया जाता.
दूसरी बार 2011 में गया. जाना विशाखापत्तनम था और फ्लाइट दमदम एयरपोर्ट से थी. जाते वक्त को ज्यादा समय नहीं मिला, मगर लौटते वक्त मैं सुबह दस बजे तक पहुंच गया था और मेरी ट्रेन रात में थी. दिन का वक्त था. मैंने हावड़ा स्टेशन के क्लॉक रूम में सामान रखा और निकल पड़ा कोलकाता के मिजाज को समझने. स्टेशन से सटा बड़ा बाजार मेरे लिये आदर्श ठिकाना था. हावड़ा ब्रिज पैदल ही पार करके बड़ा बाजार पहुंच गया. तब बाजार की नींद खुल ही रही थी और धोती पहने पुरबिया मजदूर अंगड़ाई लेकर रात की थकान मिटा रहे थे. वैसे कुछ दुकान खुले हुए थे और ऑफिस गोअर्स झटकते हुए फूट (बड़ा बाजार फुटपाथ को फूट कहते हैं, ये फुटपाथ कनाट सर्कस की दुकानों से सटे फुटपाथों जैसे हैं) पर भागे जा रहे थे. बसें चीखती हुई चल रही थीं जैसे उन्हीं का दफ्तर छूट रहा हो मगर ट्राम घंटी बजाते हुए सड़कों पर मंद रफ्तार में टहल रही थीं.
बचपन में जब हम यहां आये थे तब हमें ट्राम में कोई खास बात नहीं लगी थी, सिर्फ इतनी कि झटक कर इस पर चढ़ा जा सकता है और चलती ट्राम से उतरा जा सकता है.. और इसका किराया बहुत कम है. उस समय शायद तीस पैसे में पूरा शहर घूम सकते थे. मगर 2011 में जब मैं गया तो ट्रामें बहुत कम नजर आ रही थीं और उन्हें मैं काफी मिस कर रहा था. किसी चक्कर में फंस कर उस बार मैं ट्राम पर चढ़ नहीं पाया और हाथ रिक्शे पर बैठने लायक निष्ठुरता जुटा नहीं पाया. मगर परिवहन के ये दो साधन जो सिर्फ कोलकाता में पाये जाते हैं, इस शहर के मिजाज के नमूने हैं. हाथी जैसी निश्चिंतता और जमींदारी अकड़. 
विमल मित्र के मशहूर नावेल साहब बीवी गुलाम में बंगाले के जमींदारों के पतन की कथा लिखी गयी है और शंकर ने चौरंगी में अंग्रेज साहबों के जाने का जिक्र किया है. मगर इन दोनों उपन्यासों ने बताया है कि कोलकाता के लोग बिजनेसमैन नहीं हो पाए. यहां रहने वाले इस्ट इंडिया कंपनी से सौदागरों पर भी जमींदारी ठाठ का नशा चढ़ गया और बाद में जो बंगाली साहब बिजनेस करने लगे वो भी मन से बिजनेसमैन नहीं हो पाये. बिजनेस का काम यहां राजस्थान से आकर बसे मारवाड़ियों ने ही किया. हालांकि वे पूरी तरह कोलकाता के जमींदारी राग-रंग से मुक्त थे यह कहा जाना भी मुश्किल ही है. बहरहाल.. 
सुबह छह बजते-बजते हमारी गाड़ी हावड़ा जंक्शन पर पहुंच चुकी थी और ट्रेन से उतरकर हमारे साथी ओवरब्रिज तलाश रहे थे. मैंने उन्हें बताया कि यह जरूर है कि हावड़ा जंक्शन में 23 प्लेटफार्म हैं मगर यहां ओवरब्रिज पर चढ़ने-उतरने का श्रम साध्य काम करने की जरूरत नहीं पड़ती. ट्रेन से उतरिये और सीधे बाहर निकल जाइये, कहीं ठीक से मुड़ने की भी जरूरत नहीं. सहयात्रियों को मैंने यह भी दिखाया कि किस तरह हावड़ा जंक्शन पर पटरियां खत्म हो जाती हैं. पिछली बार बाहर कुल्हड़ वाले से चाय पीने का मौका मिला था और शायद डंटा बिस्कुट भी खाया था. लंबे वाले बिस्कुट को हमारे यहां डंटा बिस्कुट कहा जाता है, जो डंडे जैसा होता है. 

मगर इस बार हमें फिर से हावड़ा जंक्शन की तरफ ही जाना था और लोकल ट्रेन पकड़ कर एक बंधु के घर पहुंचना था. मेरे जोर डालने पर वे हावड़ा ब्रिज देखने बाहर आये थे, मगर हमारे मेजबान फोन पर नाराज हो रहे थे कि लेट क्यों कर रहे हैं. हालांकि जहां हमें जाना था वहां की लोकल हर आधे घंटे पर खुलती थी, मगर मेजबान-मेजबान होता है और वह चाहता है कि अतिथि शहर में आने के बाद सीधे उसके घर पहुंचे और खुद को उसके हवाले कर दे. बहरहाल हमने जैसे-तैसे हावड़ा ब्रिज देख लिया. मेरा तो देखा हुआ था मगर उपमा और तिया को मैं खास तौर पर अंग्रेजों के उस करिश्मे को दिखाना चाहता था. बिना खंबे का पुल. मगर तिया ने किसी पेपर वाले के पास डोरेमोन का कोई कामिक्स देख लिया था और हम समझ नहीं पा रहे थे कि वह क्या चाह रही है. बाद में देर तक वह ठुनकती रही और बदले में मैंने उसे लेज का पैकेट घूस में देकर चुप कराया. दरअसल वह पेपर वाला हमें मिला नहीं और ट्रेन छूटने वाली थी. 
हम पहले हावड़ा से बाली पहुंचे और बाली से तकरीबन पौन किलोमीटर पैदल चलकर उस ओवरब्रिज पहुंचे जहां से बस पकड़कर हमें डनलप जाना था और वहां से फिर कोई सवारी करके हमें किसी दूसरे मुहल्ले में जाना था जहां हमारे मेजबान रहते थे. ओवरब्रिज तक पहुंचते-पहुंचते मुङो समझ में आ गया कि इस तरह चले तो मेजबान के घर पहुंचते-पहुंचते हमारा कचूमर निकल जायेगा. लिहाजा मैंने अपने सहयात्री राहुल जी जो हमारे सहकर्मी और मित्र भी हैं को सलाह दी कि हम डायरेक्ट ऑटो कर लेते हैं. बहरहाल हमने ऑटो तो कर लिया मगर मेजबान जो राहुल जी के ममेरे भाई थे से फोन पर बात करने में कुछ कंफ्यूजन हो गया और हम ऑटो रिजर्व करने के बाद भी उस जगह पहुंच गये जहां से हमें तकरीबन सवा किमी पैदल चलना था. हम चले भी और महिलाओं के लिए रिक्शा कर दिया गया. मगर पहुंचते-पहुंचते पौने नौ बज गये. मुङो याद आया कि हम तो कोलकाता सुबह छह बजे ही पहुंच गये थे. यह ठीक है कि हमने हावड़ा ब्रिज देखने के  चक्कर में आधा घंटा गंवा दिया था. मगर खास तौर पर मुङो यह बात अखर रही थी कि ले-देकर अपने पास 40 घंटे थे, जिसमें नौ घंटे सोने में खर्च होने थे और 16 घंटे सुंदरवन के खाते में थे. कोलकाता के नाम से बचे शेष पंद्रह घंटों में से तीन यूं ही बरबाद हो गये.
मगरवक्त मुङो इतनी जल्दी बख्शने के लिए तैयार नहीं था. हमारे मेजबान ने घर पहुंचकर घोषणा कर दी कि हम लोग खा-पीकर आराम से दो बजे निकलेंगे और दक्षिणोश्वर काली और बेलूर मठ घूम लेंगे. यानी बांकी बचे 12 घंटों में से 5 घंटों की चपत इस तरह लगने वाली थी. मैं लाचार था. हम जहां थे वह जगह शहर से इतनी दूर थी कि मैं यह भी नहीं कह सकता था कि थोड़ी देर में घूमकर आता हूं. उस अनजान से मुहल्ले में जो कुछ देखने लायक था वह मैं बॉलकनी से देख सकता था. मैंने बॉलकनी का सहारा लिया. सामने एक खुले से घर में एक परिवार धूप में बैठकर कुछ-कुछ काम कर रहा था. एक बूढ़ी औरत शायद चावल चुन रही थी और उसका पोता बगल में एक लकड़ी के टुकड़े पर बैठकर कुछ पढ़ रहा था. घर का मालिक बागान में लगे किसी पौधे को देख रहा था कि ठीक है या नहीं और मालकिन अंदर-बाहर करते हुए पता नहीं किस काम में व्यस्त थी. सड़क पर आम तौर पर शांति थी, कभी-कभी कोई साइकिल सवार गुजर जाता था तो कभी कोई फेरी वाला. फिर नास्ता-चाय के बाद छत पर चला गया. वहां से उस उपनगरीय इलाके का जायजा लेने लगा. मैंने देखा कि तकरीबन हर घर में एक नारियल का पेड़ और एक केले का पेड़ जरूर है. मुहल्ले में एक पोखरा भी था, जिसके चारो तरफ मकान खड़े हो गये थे और मकान के लोग खिड़कियों से अब उस पोखरे में कचरा फेंकते रहते थे. 
खाली वक्त का इस्तेमाल मैंने स्थानीय अखबारों को पढ़ने में किया और अखबारों के जरिये पता चला कि बंगाल के जमाई वरुण गांधी इन दिनों वहां काफी सक्रिय हैं और बंगाल भाजपा ने राज्य की सभी लोकसभा सीटों पर उम्मीदवार उतारने का मन बना लिया है. उनकी आकांक्षा है कि कम से कम पांच सीटों का उपहार मोदी जी को दिया जाये. रास्ते में हमने मोदी के कुछ कट-आउट भी देखे थे जिसमें आमि आस्ची जैसा कुछ लिखा था. 6 फरवरी को मोदी की रैली प्रस्तावित है. इससे पहले हमारे ऑटो चालक ने भी कहा था, मोदी आस्ची. ममता और वाम एक जैसा है.. दोनों को कोई फरक नहीं. पब्लिक को बदलाव चाहिये. बंगाल के इस बदलते राजनीतिक मिजाज ने भी हमें कम चकित नहीं किया. हमें यह मालूम था कि यहां कि लोग ममता से बहुत जल्द आजिज आ गये हैं मगर भाजपा यहां जड़ें जमा रही हैं यह हमने नहीं सोचा था.   
तकरीबन दो बजे हम नहा-धोकर सज धजकर निकले. थोड़े इंतजार के बाद बस मिली और फिर ऑटो करके हम दक्षिणोश्वर काली मंदिर पहुंचे. हमारे मेजबान का जोर था कि हम कोई वाहन रिजर्व न करें क्योंकि उससे कोई फायदा होने वाला नहीं है. वक्त उतना ही लगेगा और पैसे बेवजह खर्च हो जायेंगे. मगर इस चक्कर में महिला सहयात्री परेशान हो रही थीं. मैं खुद काफी थक गया था. बहरहाल दक्षिणोश्वर काली मंदिर पहुंचते-पहुंचते हम तकरीबन तीन-चार किमी पैदल चल चुके थे और जब पता चला कि मंदिर खुला नहीं है तीन बजे के बाद खुलेगा तो मैंने व्यक्तिगत रूप से कुछ राहत महसूस किया. और हम घाट की तरफ चले गये. 
दक्षिणोश्वरी काली हमारी कुलदेवी हैं. मेरे गांव धमदाहा में उनका मंदिर हमारे टोले में ही है और पंदरह-बीस साल पहले तक हमारे यहां काली पूजा एक सांस्कृतिक उत्सव की तरह हुआ करता था. गांव के युवा इस मौके पर नाटक किया करते थे, मगर बाद में आरकेस्ट्रा और छैला बिहारी व देवी टाइप गायक गायिकाओं की भेंट यह मंच चढ़ता चला गया और किशोर नाटय़ कला परिषद का परदा किसी पेटी में पड़ा सड़ने के लिए छोड़ दिया गया. मगर फिर भी काली पूजा को लेकर मन में एक आकर्षण रहता है. हर साल इच्छा होती है कि काली पूजा से लेकर छठ तक गांव में रहूं और मंदिर के पास लगने वाले मेले की मशहूर छेने की मिठाई खा सकूं. बच्चों को उस मेले से घिरनी और पिस्तौल खरीद कर दूं और गांव के यारों को शाम में जिलेबी की पार्टी दूं. मगर.. 
भारतीय राजनीति की तरह काली के उपासक भी दो धड़े में बंटे हैं एक वाम काली हैं और एक दक्षिण काली. पता नहीं दोनों में क्या फर्क है. हो सकता है कि वाम काली वाममार्गियों की पूजिता हों और दक्षिण काली आम गृहस्थों की. पता नहीं.. मैं उतना धार्मिक भी नहीं हूं कि इस राज का पता लगा सकूं. 
नदी के किनारे कुछ श्रद्धालु संभवत: किसी प्रयोजन से स्नान कर रहे थे और दो-तीन स्थायी लोग रस्सी में चुंबक बांधकर नदी में फेंक रहे थे ताकि जो सिक्के श्रद्धालुओं ने फेंके थे उन्हें निकाला जा सके. हमने नदी के किनारे फोटो सेशन किया और नदी के ठंडे पानी से पांव धोये. मंदिर खुल चुका था. पता चला अंदर कैमरे नहीं ले जा सकते हैं. हम अंदर गये और द्वार खुला तो काली मां के दर्शन करके बाहर आ गये. हमें पूजा नहीं करना था. मंदिर के पीछे काफी कबूतर थे उन्हें देखना अच्छा लगा. भले ही वे मंदिर की पिछली दीवार को अपनी बीट से गंदा कर रहे थे. मगर मंदिर में उनकी उपस्थिति दिल खुश करने वाली थी. 
हम बाहर आ गये और नौका तट के किनारे कतार में लग गये. वहां से हमें बेलूर मठ जाना था जो नदी के दूसरी तरफ था. यह रोचक था कि सिर्फ हम ही कतार में नहीं थे, नाव वाले भी कतार में थे और बीस-बीस पैसेंजर लेकर निकल रहे थे. मगर थोड़ी देर में पता चला कि नावें अभी चल नहीं पायेंगी क्योंकि नदी में पानी काफी कम हो गया है. नाविकों ने कहा कि थोड़ी देर में ज्वार आयेगा तो नदी में पानी का स्तर ठीक हो जायेगा. यह भी हमारे लिए एक अनूठा अनुभव था. हम बैठकर ज्वार का इंतजार करने लगे और फेरी वालों से खरीदकर चाय और झालमूढ़ी खाने लगे. मैंने देखा नदी में पानी का स्तर इस कदर कम हो गया है आसपास के बच्चे पैदल नदी में दूर तक चले जा रहे हैं, कई जगह तो पानी उनके घुटनों तक नहीं पहुंच पा रहा था. थोड़ी देर में पानी का लेवल ठीक हुआ और नावें खुलने लगी.
नावें विवेकानंद सेतु के नीचे से गुजरकर बेलूर मठ की तरफ बढ़ने लगी और हमनें फिर फोटो-सेशन शुरू कर दिया. उस पार पहुंचकर फिर हमें तकरीबन डेढ़-दो किमी पैदल चलना पड़ा मगर वहां पहुंचकर पता चला कि स्वामी विवेकानंद की डेढ़ सौंवी जयंती के मौके पर बेलूर मठ में एक बड़ा भारी अंतरराष्ट्रीय सेमीनार चल रहा है और हम आम लोग अंदर नहीं जा सकते. हमें बिना घूमें लौटना पड़ा.
फिर मैंने अपना एजेंडा पेश किया. बड़ा बाजार चलते हैं, थोड़ा घूमेंगे-फिरेंगे और किसी बढ़िया होटल में माछ-भात खाकर लौट जायेंगे. बस ने हमें हावड़ा ब्रिज के पास उतार दिया और हम टहलते हुए बड़ा बाजार पहुंचे और फूट पर टहलने लगे. मेजबान महोदय पर हमनें बढिया होटल ढूंढने का जिम्मा सौंप दिया. वे लोकल थे, लिहाजा यह काम तो उन्हें ही करना था. तभी हमें ट्राम दिख गया. हमने आव न देखा ताव, कूद कर दोनों परिवार ट्राम पर सवार हो गये और खाली सीटों पर पसर गये. राहुल जी ने कंडक्टर से पूछा तो पता चला कि ट्राम हावड़ा ब्रिज तक जायेगी और फिर वहां से इस राह से लौटकर धर्मतल्ला तक जायेगी. मेजबान किसी गली में घुसे थे. हमने तय किया कि कम से कम हावड़ा ब्रिज तक जाकर लौट सकते हैं, यहीं उतर जायेंगे. सड़क के बीच से ट्राम घंटी बजाती हुई चलने लगी. यह उस दिन का विनिंग मूमेंट था. मैंने महसूस किया कि मैं उतना ही खुश हूं जितना युवा फिल्म में पूरे दिन ट्राम पर करीना के साथ बैठे विवेक ओबेराय खुश नजर आ रहे थे. 
लगता है युवा फिल्म में ट्राम के इस सीन ने मेरा ट्राम के प्रति सम्मोहन बढ़ाया था. उस सीन में विवेक ओबेराय के चेहरे पर गजब की खुशी थी, उसे भूला नहीं जा सकता. सच पूछिये तो एक जागते रहो फिल्म का वह गाना.. जिंदगी खाब है.. जो शायद पार्क स्ट्रीट की सड़कों पर रात के तीसरे पहर में फिल्माया गया था कोलकाता की छवि को मेरे मन में गढ़ा और दूसरा युवा फिल्म के गाने.. ए खुदा हाफिज.. शुक्रिया-मेहरबानी वाले गाने ने. वैसे अमर प्रेम में भी कोलकाता है मगर वहां कोलकाता की कोई रोमेंटिक छवि नहीं बनती. मगर जिंदगी खाब है गाने में जिस तरह की मस्ती उस शराबी कलाकार के चेहरे पर है तकरीबन वही मस्ती युवा के गाने में करीना और विवेक के चेहरे पर नजर आती है. और पहले गाने में सोया हुआ पार्क स्ट्रीट है तो दूसरे गाने में चहकती ट्राम, ढेर सारे बच्चे हालांकि यह गाने सागर तट से शुरू होता है. मगर आकर्षण का चरम ट्राम की वे अनवरत यात्रएं ही हैं. 
ट्राम जब हावड़ा ब्रिज के पास रुकी तो मैंने उतरकर ट्राम के ड्राइवर की तसवीर ली. वह ट्राम के गेट पर कुछ इस तरह खड़ा था कि दीवार का मजदूर अमिताभ बच्चन नजर आ रहा था. वही ठसक.. संबंधित तसवीर को देखें. 
लौटकर पहुंचे तो तिया सोने के मूड में आ गयी थी. हमें डर था कि एक बार अगर यह सो गयी तो इसे गोद में उठाकर घूमना किसी यंत्रणा से कम नहीं होगा. हम उसे जगाने की कोशिश करने लगे. पहले उसे झंड़ा खरीद कर दिया कि कुछ देर तो उसमें उलझी रहे, मगर वह भी काम न आया. फिर उपमा ने कहा कि इसे कुछ न कुछ खिला देना जरूरी है नहीं तो भूखी सो जायेगी. मेजबान से माछ-भात वाले होटल के बारे में पूछा तो वे बड़ा बाजार की गलियों में उसे तलाशने लगे. इस चक्कर में हम कई गलियों में भटके. एक जगह अंगूर मिला तो खरीद कर तिया को खिलाने की कोशिश की. मगर तब तक तिया लगभग सो चुकी थी. कुछ दाने खाने के बाद वह मेरी गोद में निढाल हो गयी. अब ज्यादा भटकना भी मुमकिन नहीं था. माछ-भात का सपना लग नहीं रहा था कि पूरा होगा. इस बीच एक होटल मिला जिसका नाम ढाबा था. हम वहीं बेंच पर बैठ गये. होटल किसी दुकान जैसा था जिसके बाहर खाना पकता था और सड़क के दूसरी तरफ बेंच-डेस्क पर खुले आसमान के नीचे ग्राहकों को खिलाया जाता था. हमारे मेजबान ने हाथ खड़े कर दिये और हम लाचार होकर उस ढाबे में खाने के लिए तैयार हो गये. 
पनीर की सब्जी और रोटी हमें परोसा गया. जिसका स्वाद अनुपम था. बहुत कम होटलों में हमने ऐसा स्वादिष्ट खाना खाया था. खाकर मजा आ गया और हमने दो रोटियां अधिक खा लीं. बिल आया तो पता चला कि तीन लोगों के भरपेट खाने के बदले हमसे सिर्फ 72 रुपये चार्ज किये गये हैं. यह उस शाम की दूसरी उपलब्धि थी. हमने एक फुल प्लेट सब्जी और पैक करा लिया और वहां से निकले. 
बाद में पता चला कि बड़ा बाजार मुख्यत: कोलकाता के मारवाड़ी बिजनेसमैनों का अड्डा है. जहां एक विशाल थोक मंडी है. यहां हर सामान बिकता है, थोक के भाव. कपड़े-लत्ते, मसाले, मेवे, प्लास्टिक का सामान, मशीनरी और हर तरह की चीजें और आसपास के राज्यों से बिजनेसमैन यहां थोक खरीदारी करने पहुंचते हैं. इसी वजह से यहां माछ-भात का होटल नहीं मिलता. 
वैसे फेसबुक पर मेरे अपडेट देखकर कई दोस्तों ने माछ-भात का निमंत्रण दिया था. मगर वक्त का मारा मैं कहीं जा न सका. लोग अगले दिन बुला रहे थे और अगले दिन हमें सुंदरवन जाना था.
रात के नौ बजने वाले थे. तिया सो चुकी थी और बड़ा बाजार से हावड़ा जाना था. तय हुआ कि बांकी लोग तो पैदल चले जायेंगे. हम बस से हावड़ा पहुंचेंगे. बस में पांव रखने की जगह नहीं थी और गोद में तिया थी. उस वक्त हमने कोलकाता का एक और रूप देखा. बस लगातार हिचकोले खा रही थी और तिया मुझसे संभाले नहीं संभल रही थी. सामने एक युवती बैठी थी. कंडक्टर ने उस युवती से अनुरोध किया कि कुछ देर के लिए बच्चे को गोद में ले ले. मगर वह बार-बार उसके अनुरोध को अनसुना करती रही. फिर उपमा के लिए सीट बन गयी तो मैंने तिया को उसकी गोद में डाल दिया. वैसा ही अनुभव अगले दिन हुआ जब एक रिजर्व किये गये आटो ने हमें केनिंग स्टेशन से एक किमी पहले उतार दिया और सोयी हुई तिया को हमें गोद में लेकर एक किमी पैदल चलना पड़ा. ऑटो वाला किसी सूरत में तैयार नहीं हो रहा था, कह रहा था पुलिस पकड़ लेगी. बाद में पता चला कि केनिंग स्टेशन पर 20 रुपये का कूपन कटाना पड़ता है, इसी डर से उसने हमारे साथ यह व्यवहार किया. हमें पहले पता चलता तो उसे बीस के बदले पचास रुपये दे देते. कम से कम उस भीषण स्थिति से तो बच जाते जो एक पांच साल की बच्ची की गोद में उठाकर चलने की वजह से हमारे साथ हुई. लोग अचानक निष्ठुर हो जाते हैं, मतलबी हो जाते हैं. यह इस शहर की कौन सी अदा है, पता नहीं..
देर रात को हावड़ा से बाली और फिर वहां से ऑटो करके घर पहुंचे और थके हारे सो गये. अगले दिन तीन बजे उठकर सुंदरवन निकलना था. 

 
      

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9 comments

  1. itni sahazta se vritant likha gaya hai ki sath-sath hum bhi kolkata ghum liye…bahut achhe,,,

  2. अद्भुत वृत्तांत…सुंदर.

  3. बहुत सुंदर !

  4. Keyloggers são atualmente a forma mais popular de software de rastreamento, eles são usados para obter os caracteres inseridos no teclado. Incluindo termos de pesquisa inseridos em mecanismos de pesquisa, mensagens de e – Mail enviadas e conteúdo de bate – Papo, etc.

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