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‘खुशवंतनामा’ का एक अंश

 खुशवंत सिंह की आखिरी पुस्तकों में है ‘खुशवंतनामा: मेरे जीवन के सबक’ है. इस किताब में उन्होंने एक तरह से अपने जीवन का निचोड़ पेश किया है. आज आपके लिए इस किताब का एक अंश, जिसे लिखते समय वे 98 साल के थे. इस किताब का हिंदी अनुवाद मैंने ही किया है- प्रभात रंजन.
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चिंतन करने का समय
मेरी पड़ोसन रीता देवी वर्मा ने मुझे एक फुट ऊंचा लैम्प दिया है जिसके चारों तरफ शीशे लगे हैं. उसके अन्दर मोम का दीया है. चूँकि वह चारों तरफ से बंद है इसलिए उसकी लौ शायद ही कभी कांपती है, कभी-कभार वह हलके से हिलकर फिर थिर हो जाती है. जब शाम में मैं अकेला होता हूँ तो बैठकर उसे घंटों देखता हूँ. उसे मेरे दिलो-दिमाग को शांति मिलती है. मुझे बताया गया कि यह एक तरह का ध्यान है. लेकिन मेरा दिमाग थिर होने से बहुत दूर होता है. इसके उलट, वह कुछ और अधिक सक्रिय होता है.
मैं 98 साल का हूँ, मेरे पास आगे देखने के लिए कुछ ख़ास बचा नहीं है, लेकिन याद करने को काफी कुछ बचा है. मैं अपनी उपलब्धियों और असफलताओं का जमा खर्च खाता बनता हूँ. जमा के खाते में मेरे नाम अस्सी से अधिक किताबें हैं: उपन्यास, कहानियों के संग्रह, जीवनियाँ, इतिहास की पुस्तकें, पंजाबी और उर्दू से अनुवाद, तथा अनेक लेख. खर्च के खाते में मेरा अपना चरित्र है. कई शाम मैं मैं अपने उन पापों के बारे में सोचते हुए बिताता हूँ जो मैंने अपने आरंभिक सालों में किये थे. एयर गन से मैंने दर्जनों गोरैयाओं को मार दिया था जबकि उन्होंने मेरा कुछ नहीं बिगाड़ा था. मैएँ एक बतख को तब गोली मार दी थी जब वह अण्डों के ऊपर बैठा हुआ था. वह ऊपर की तरफ उड़ा, तब तक अपने पंख फड़फड़ाता रहा जब तक कि वह गिर नहीं गया. जब मैं अपने चाचा के साथ मियां चन्नू में रह रहा था, जब उनका रुई का कारखाना एक महीने के लिए बंद था, हर शाम मैं कबूतरों का शिकार किया करता था. उनको बच्चे खाने के लिए उठा लेते थे. मैं शिकार करनेवालों के साथ जाता था और मैंने अनेक निर्दोष चिडियों का खून किया. एक इसी तरह की आयोजित शिकार पार्टी में भरतपुर में मैंने दो घंटों के अन्दर एक दर्ज़न से अधिक बतखों को मार दिया. किसी ने मुझसे यह नहीं कहा कि ऐसा करना गलत था और यह एक ऐसा पाप था जिसकी कोई माफ़ी नहीं थी. मैं अपने कर्मों की कीमत दे रहा हूँ और शाम दर शाम उन निर्दोष जंतुओं की यादें मेरा पीछा करती हैं. 
मैं इस दुखद नतीजे पर भी पहुंचा हूँ कि मैं कुछ कामुक किस्म का इंसान रहा हूँ. चार साल की कम उम्र से लेकर आज तक जबकि मैंने अपने जीवन के सत्तानवे साल पूरे कर लिए हैं, कामुकता ही मेरे दिमाग में सबसे ऊपर रही है. मैं कभी भी इस भारतीय आदर्श को कबूल करने के योग्य नहीं रहा जिसमें औरतों को माँ, बहन और बेटियों के रूप में देखा जाता है. चाहे उनकी उम्र जो भी हो वे मेरे लिए कामुकता का विषय रही हैं. 
दो साल पहले मैंने यह फैसला किया कि अब मेरे लिए अपने आप में सिमटने का समय आ गया है. कुछ लोग इसे रिटायरमेंट कहते हैं. मैंने भारतीय शब्द संन्यास का चुनाव किया. लेकिन यह वह संन्यास नहीं था जैसा कि आम तौर पर इसे समझा जाता है, दुनिया से पूरी तरह से निर्लिप्तता- मैं अपने आरामदायक घर में रहना चाहता था, स्वादिष्ट भोजन और सिंगल माल्ट का आनंद उठाना चाहता था, अच्छा संगीत सुनना चाहता था, और अपने ज्ञानेन्द्रियों को उसमें सराबोर करना  चाहता था, उनका जो भी बचा हुआ है उसको. मैंने दुनिया के धंधों से थोडा बहुत खुद को अलग किया: मैंने टीवी और रेडियो कार्यक्रमों में आने से मना कर दिया. अगला कदम था कि मैंने मिलने वालों की संख्या बहुत हद तक कम कर दी. यहाँ, मैं सफल नहीं हो पाया. वैसे पहले के मुकाबले बहुत कम हो गया, लेकिन वे आते रहते हैं. मैं उनका स्वागत करता हूँ लेकिन उनसे यह प्रार्थना भी करता हूँ कि अपने दोस्तों को अपने साथ न लायें. उनको लगता है कि मेरा दिमाग इतना चढ़ गया है कि मैं अपने बारे में ह सोचता रहता हूँ. यह सच नहीं है; बात बस यही है कि मैं अब अजनबियों से बात करने की थकान नहीं झेल सकता. अब मैं अख़बारों और पत्रिकाओं के लिए इंटरव्यू नहीं देता हूँ. हालाँकि, कुछ लोग हमारी बातचीत को इंटरव्यू का रूप देने में सफल हो जाते हैं. मैं समझ गया हूँ कि आखिर में जब मुझसे यह पूछा जाता है, ‘आपको जीवन में कोई अफ़सोस है?’ यह उनका आखिरी घिसा पिटा सवाल होता है. बजाय इस बात के ऊपर गुस्सा होने के मुझे किस तरह से फंसा कर इंटरव्यू लिया गया, यह सवाल मुझे सोचने के लिए विवश कर देता है: ‘क्या मुझे सचमुच उन बातों का अफ़सोस है जो मैंने किये या जो नहीं किये?’ जाहिर है, है!
मैंने काफी डाल कानून की पढ़ाई पढने और वकालत करने में लगाए जिससे मुझे नफरत थी. मुझे इस बात का भी अफ़सोस है कि मैंने देश-विदेश में सरकार की सेवा करते हुए बिठाये, और वे साल जो मैंने यूनेस्को के साथ पेरिस में काम करते हुए बिताए. वैसे तो मैंने दुनिया देखी और जीवन का आनंद उठाया, और, कुछ करने के लिए ख़ास नहीं था, तो लिखना शुरू कर दिया, मैं यह काम काफी अधिक कर सकता था जिसमें मैं बहुत अच्छा था. मैं काफी जल्दी लिखना शुरू कर सकता था. हालाँकि, मुझे सबसे अधिक अफ़सोस इस बात का है कि मैंने जिन औरतों की प्रशंसा की उनके साथ कुछ ख़ास कर नहीं पाया, लेकिन मेरे अन्दर इतना सहस नहीं था कि मैं उनके साथ प्यार-मोहब्बत जैसा कुछ कर पाता. तो छह एक तरफ हैं, तो आधा दर्जन दूसरी तरफ. जैसा कि ग़ालिब ने इसको लेकर सही लिखा है:
‘ना कर्दा गुनाहों की भी हसरत की मिले दाद
या रब! अगर इन कर्दा गुनाहों की जज़ा है.’  
  
और चूंकि मैं अपने गुजरे जीवन को दुबारा नहीं जी सकता, अधिक से अधिक मैं यह कर सकता हूँ कि उसको भूल जाऊं. जो दूध बह गया उसके ऊपर क्या रोना? 
किसी आदमी की जब उम्र होती जाती है तो उसकी पांच ज्ञानेन्द्रियों में से चार समय के साथ जवाब दे जाती हैं, केवल एक, भोजन का स्वाद, बाकियों से अधिक दिन तक बनी रहती है. मैं यह जानता हूँ कि मेरे मामले में यह सच है. जैसे जैसे मैं बूढा होता गया हूँ मैं यही सोचता हूँ कि मैंने सुबह के नाश्ते में क्या खाऊंगा, दिन के खाने में, रात के खाने में क्या खाऊंगा. तीन भोजनों में, पहले दो तो नाम भर के ही होते हैं: सुबह के समय मक्खन लगा टोस्ट एक ग्लास चाय के साथ, दोपहर में एक कटोरा सूप या दही; लेकिन रात का खाना एक पेटू को खुश करने वाला होना चाहिए. इसमें केवल एक मुख्य भोजन होता हैं, साथ में सलाद, आखिर में पुडिंग या आइसक्रीम.
मैंने यह भी पाया है कि उस भोजन का आनद उठाने के लिए मुझे भूखा होना चाहिए और पेट भी साफ़ होना चाहिए. भोजन का आनंद सबसे अधिक अकेले और ख़ामोशी में खाने में आता है. इसी तरह से हमारे हिन्दू पूर्वज कुलपिता खाया करते थे. उनके पास ऐसा करने के बेहतर कारण थे, और मैं उनकी परम्परा का ही पालन कर रहा हूँ. दोस्तों के साथ या परिवार के सदस्यों के साथ बैठकर खाने से दोस्ती को गहरा बनाने और परिवार को साथ रखने में मदद मिलती है, लेकिन यह आपके सुस्वादु खाने का बहुत सारा स्वाद खत्म कर देता है. खाते समय बात करने से इंसान खाने के साथ बहुत सारी हवा भी पी जाता है. मैं खाने और पीने की आदत के मामले में अपने आदर्श असदुल्ला खान ग़ालिब का अनुसरण करता हूँ. वह हर शाम स्कॉच व्हिस्की की बोतल खोलने से पहले नहा-धोकर धुले हुए कपडे पहनते थे, फिर गिलास में अपने हिसाब से शराब ढलते थे, फिर उसमें सुराही से सुगन्धित पानी डालते थे- और पूरी ख़ामोशी में पीते थे जबकि शराब और औरतों की प्रशंसा में अमर शायरी लिखते थे. उन्होंने इस बात को दर्ज नहीं किया कि रात के खाने में वे क्या खाते थे. 
जब मैं अकेले खाली पेट पीता हूँ तो मैं यह महसूस कर सकता हूँ कि व्हिस्की मेरी आँतों तक को गरमा देती है. जब मैं औरों के साथ पीता हूँ तो मुझे ऐसा महसूस नहीं होता है. इसी तरह जब मैं दूसरों के साथ बैठकर खाता हूँ तो मुझे शायद ही उस भोजन का स्वाद पता चल पाता है जो मैं मुंह में डालता रहता हूँ. अकेले खाते हुए मैं आँखें बंद किये हुए अपनी अंतर्दृष्टि उसके ऊपर लगा देता हूँ जिसको मैं धीरे धीरे चबाता रहता हूँ जब तक कि वह हलक से नीचे नहीं उतर जाता. मुझे महसूस होता है कि मैं भोजन के साथ न्याय कर रहा हूँ, ठीक उसी तरह जैसे वह भोजन मेरे साथ न्याय करता है जो मैं खा रहा होता हूँ. खाना ख़त्म करने में कभी भी जल्दबाजी न करें; अपना समय लीजिये और उसका आनंद उठाइए. 
मैं मांस खाता था, खाता हूँ. मैं यह मानता हूँ कि शाकाहारी होना प्रकृति की व्यवस्था के खिलाफ है क्योंकि शाकभक्षी होने के अलावा सभी जानवर चिड़ियों, कीटों और मछली को खाते हैं और एक दूसरे को खाते हुए जीवित रहते हैं. मुझे बदल-बदल कर खाना पसंद है. चन्दन, जो पिछले पचास साल से मेरा ख़ास खानसामा है, नए नए खाने बनाने के लिहाज से बहुत बूढा हो चुका है. इसलिए मैं ऐसे भोजनालयों के मेनू घर में रखता हूँ जो खाना घर पहुंचाते हैं. मैं एक-एक करके उनको आजमाता हूँ- चाइनीज, थाई, फ़्रांसिसी, इटैलियन, दक्षिण भारतीय. मेरे पास उन महिलाओं के फोन नंबर भी हैं जो अलग-अलग तरह के भोजन पकाने की विशेषज्ञ हैं और अपने घर में खाना पकाती हैं और उन लोगों को पहुंचाती हैं जो पहले से ऑर्डर देते हैं. सुश्री अर्शी धूपिया हैं जो शानदार कुइचे लोरयाँ और चौकलेट केक बनाती हैं. और क्लेयर दत्त हैं जो हर वह चीज बेहतरीन ढंग से पकाती हैं जो जिसकी मैं तमन्ना करता हूँ, स्टफ्ड रोस्ट चिकेन से लेकर ब्रांडी बटर के साथ प्लम पुडिंग तक. 
‘आप मुझे बता दीजिये कि आप क्या खाते हैं और मैं आपको यह बता दूंगा कि आप क्या हैं’, प्रसिद्ध फ़्रांसिसी स्वाद लोलुप ब्रिलाट सवारिन ने यह दावा किया था. अगर मैंने उनको यह बताया होता कि मैं कितने तरह के खाने खाता हूँ तो शायद उन्होंने यह  कहा होता कि मैं सूअर हूँ. लेकिन मैं भकोसता नहीं हूँ. मैं नपी-तुली मात्रा में खाता हूँ. मैं उस बात से पूरी तरह सहमत हूँ जो ब्रिलाट सवारिन ने दावा किया था: ‘एक नए तरह के खाने की खोज इंसान को अधिक खुश करता है बजाय सितारे के खोज के.’ लॉर्ड बायरन की तरह मैं अपने शाम के खाने के बारे में ऐसे देखता हूँ जैसे अपनी जवानी के दिनों में मैं अपनी प्रेमिकाओं से मिलने का इन्तजार किया करता था:
सब कुछ शांत कर देने वाला तेज आवाज का घंटा 
रूह की चेतावनी- रात के खाने के घंटा.
चेतावनी का एक आखिरी शब्द: इस बात का ध्यान रखिये कि आप ज्यादा न खा जाएँ. खराब पेट और अपच खाने का मजा किरकिरा कर देते हैं. 
यह पुस्तक ‘पेंगुइन हिंदी’ से प्रकाशित है.
 
      

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7 comments

  1. बहुत आसानी से कबूल लेता था हर सच को अपने 🙂

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