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शब्दकोश बनाना या छापना-छपवाना किसी विश्वविद्यालय का काम नहीं हो सकता

कल जनसत्ता संपादक ओम थानवी ने महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय द्वारा तैयार करवाए गए और भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित शब्दकोश पर एक सारगर्भित टिप्पणी की थी, जिसको हमने जानकी पुल पर भी साझा किया था।  वरिष्ठ कवि-आलोचक विष्णु खरे ने उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप यह लेख भेजा है। हालांकि इस लेख में विषय कम विषयांतर अधिक है। बहरहाल, आप भी पढ़िये- जानकी पुल। (विष्णु खरे के लेख को पढ़कर ओम थानवी ने एक छोटी सी टिप्पणी की है, लेख के अंत में उस टिप्पणी को भी शामिल किया गया है- मॉडरेटर)
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अंग्रेज़ी में केतली द्वारा भगोने को काला बताए जाने की कहावत है.हिंदी में भी ‘छन्नी कहे सूप से जिसमें खुद सत्तर छेद’ जैसी मिसाल है.’जनसत्ता’ के कार्यकारी सम्पादक जब ‘वर्धा हिंदी-हिंदी शब्दकोष’ की समीक्षा करते हैं तो इस तरह की लोकोक्तियों का बरबस स्मरण हो आता है.

सम्पादकजी से वर्षों से इस लेखक का राब्ता रहा है और उसने बीसियों बार मौखिक या लिखित रूप से उन्हें उनके अखबार की शब्दों और भाषा की गंभीर ग़लतियों से आगाह किया है.लेकिन सभी अयोग्य,जाँगरचोर और कायर सम्पादकों की तरह,जिनका हिंदी में पाशविक  बहुमत ( ब्रूट मेजोरिटी ) है, वे हर बार अपने अज्ञेय मातहतों की शान में‘चूभोमाब’ जैसा कुछ असंसदीय कहकर सुबुकदोष ( श्लेष सायास ) होते रहे हैं.

उनके दैनिक से रोज़ हिज्जे,अनुवाद,व्याकरण,वाक्य-विन्यास आदि की सैकड़ों त्रुटियाँ निकालना संभव है.आज ही ‘सेकण्ड लीड’ का शीर्षक देखें : ‘’रिक्शा व खोमचा वालों से…’’एक और ख़बर में लगातार अंग्रेज़ी के ‘रोड-शो’ का इस्तेमाल किया गया है.’गिनेस-बुक’ को तो हर जाहिल हिंदी पत्रकार ‘गिनीज’ लिखता ही है.सवाल यह है कि जब वह ‘प्रणव’ ही है तो आप राष्ट्रपति का नाम किस तर्क से ‘प्रणब’ छापते हैं ?

यूँ वर्धा कोश को लेकर सम्पादकजी की अधिकांश आपत्तियाँ सही हो सकती हैं लेकिन ‘दूर’ कबसे संस्कृत-हिंदी से ( देखें वा.शि.आप्टे,पृष्ठ 468 ) दूर कर दिया गया ? और ‘’…अंग्रेज़ी शब्दों की…अनावश्यक घुसपैठ…हतोत्साह की पात्र है’’ में स्वयं सम्पादकजी ‘’हतोत्साह’’ शब्द का ग़लत प्रयोग कर रहे हैं जो विशेषण है,भाववाचक संज्ञा नहीं.यहाँ ‘अनुत्साहन’ या ‘उत्साहभंग’ या ‘उत्साह्भंजन’ होना चाहिए था.लेकिन लगता है पिछली किसी शाम मुसाहिबी महफ़िल में रसरंजन कुछ ज़्यादा हो गया.

‘रसरंजन’ को ‘बॉलीवुड’ की तरह मैं एक ज़लील शब्द मानता हूँ.यह कई तरह से दिलचस्प है कि सम्पादकजी को यही शब्द वर्धा या कहीं और के शब्दकोश में समावेश के योग्य लगा.यानी ‘कॉकटेल्स’ को नव-श्रीनिवास शैली में ‘सैन्स्क्रिटाइज़’ कर दीजिए,वह एक सांस्कृतिक,संभ्रांत स्वीकार्यता प्राप्त कर लेगा,भले ही मूल संस्कृत में उसके लिए ‘आपानक’ शब्द उपलब्ध हो.यदि सक्सेना-राय एक ग्रंथि से पीड़ित हैं तो हुकम वाजपेयी और चारण थानवी दूसरी से.सच तो यह है कि विभूतिनारायण और ओम की अदला-बदली हो सकती थी और वर्धा तथा ‘जनसत्ता’ में उसके एक-जैसे ही परिणाम होते.खैर,अब तो सुनते हैं कि वर्धा में ऐसे उत्तम कुलपति की नियुक्ति होने जा रही है जो उसे रज़ा फ़ाउंडेशन,भोपाल का सब-ब्रांच ऑफिस बना कर ही अपना पुरुष होना सिद्ध करेगा.

आज हिंदी के अधिकांश शब्दकोश या तो घटिया हैं या बेहद ‘आउट ऑफ़ डेट’ हो चुके हैं.आर.एस.मैक्ग्रेगर का ऑक्सफ़ोर्ड भी असंतोषप्रद है.शब्दकोश बनाना या छापना-छपवाना किसी विश्वविद्यालय का काम नहीं हो सकता.सक्सेना ने पहले कितने कोश बनाए हैं यह एक रहस्य है.निर्मला जैन और गंगाप्रसाद विमल सरीखे नाम हर इस तरह की योजना में अजागलस्तनवत् रहते है.किसी भी शब्दकोश के लिए एक पूरा विशेषज्ञ-दल और एक दशक चाहिए. वर्धा में तो अंधी रेवड़ी-बाँट हुई है.’महात्मा गाँधी’ ने शब्दकोश बनवाया,’ज्ञानपीठ’ को बेचने को बेच दिया – लेकिन यह अनैतिक और भ्रष्टाचारी परम्परा तो पहले कुलपति ने ही शुरू की थी.उसकी पत्रिकाएँ अब तक कितने घटिया सम्पादक-सम्पादिकाओं द्वारा कैसी भाषा में निकाली गई हैं यह हिंदी का तमाम बृहन्नला-विश्व जानता है.

हिंदी भाषा की समस्याएँ विकराल हैं और वे हर उस जगह मौजूद हैं जहाँ हिंदी में किसी भी तरह का काम ( नहीं ) हो रहा है.हम कह ही चुके हैं कि ‘जनसत्ता’ के सम्पादकजी भी हिंदी को बर्बाद करने पर आमादा हैं.साहित्य और हर प्रकार के जन-संचार माध्यम में हिंदी के पूर्वांचल से आई एक हुडुकलुल्लू पीढ़ी लोक-भाषाओँ के नाम पर अच्छी,सही हिंदी को नष्ट-भ्रष्ट कर रही है.आज हिंदी के अधिकांश अध्यापक भी सही हिंदी नहीं लिख सकते.इस भाषा का पतन इतना हो चुका है कि ऐसे ढोंगी ,जिन्हें न हिंदी का विधिवत् ज्ञान है न भाषा-शास्त्र का,न संस्कृत का न किसी अन्य प्राचीन-अर्वाचीन भाषा का,हिंदी ज़ुबान पर कॉलम,ब्लॉग और ग्रन्थ लिख रहे हैं और मूर्ख तथा धूर्त लोग उन पर सर धुन रहे हैं.हिंदी के कतिपय माफिआ  प्रकाशक उन बलात्कारियों की मानिंद हैं जो बाद में अपनी पाशविकता के शिकार स्त्रियों  या बच्चों की हत्या कर डालते हैं.हिंदी की इस दुर्दशा में हिंदी का इस्तेमाल करने वाले लगभग सभी शामिल हैं.वर्धा को प्रारंभ से ही एक तीसरे दर्जे का विश्वविद्यालय बना दिया गया था.राय ने उसे घृणित कर डाला.अभी उसकी और दुर्दशा होगी.मामला गुजरात के महात्मा गाँधी का है.यदि नरेन्द्र मोदी और आगामी अवश्यम्भावी भाजपा सरकार का अपरिहार्य,दुर्निवार ध्यान उस पर गया तो अकल्पनीय चीज़ें होंगी.ओम थानवी ने उसकी स्थापना से लेकर अब तक कोई सुधार-पहल नहीं की.हिंदी के लिए कोई साहसिक,आक्रामक आन्दोलन नहीं किया.एक दरिद्र शब्दकोश के विरुद्ध लिखकर वे उँगली में आलपीन चुभो कर रणबांकुरे या बाद में शहीद दिखना चाहते हैं.वे दयनीय हैं.असली खूँरेज़ी तो अभी चार महीने बाद शुरू होगी.तब ‘जनसत्ता’ कार्यकारी-सम्पादक और उनके वास्तविक घणी-खम्माओं के चरित्रों को देख लिया जाएगा.

ओम थानवी की टिप्पणी: 

विष्णु खरे जी ने कृपा की जो मेरा लिखा खुर्दबीन लेकर पढ़ा। मुझे इससे भी ख़ुशी हुई कि वर्धा हिंदी शब्दकोश को उन्होंने “दरिद्र शब्दकोश” मान लिया है। हालाँकि मुझे सन्देह है कि वर्धा कोश उन्होंने देखा होगा। उनकी इस त्वरित प्रतिक्रिया से ऐसा ही जान पड़ता है। विद्वानों की वैसे भी यह निशानी होती है कि बगैर पढ़े निर्णय पर पहुँच सकते हैं।
अखबार में छपी त्रुटियों से वे भला क्या साबित करना चाहते हैंअखबार भाषाशास्त्र के गज़ेटियर नहीं होते। जल्दी में तैयार होते हैंजल्दी पढ़ डालने चाहिए। त्रुटियां सब अखबारों में होती हैंकुछ अखबार तो अगले रोज त्रुटियों की सूची तक छापते हैं! बहरहालदो आपत्तियां उन्होंने उठाई हैं। जहाँ तक दूर‘ शब्द की बात हैमैंने और शब्दों के साथ उसे हिंदी शब्दसागर से महज उद्धृत किया है। शब्दसागर संस्कृत के साथ उसका फ़ारसी संबंध भी प्रकट करता है: दूरबीन या दूरअंदेशी/दूरंदेशी शब्द यह कोश फ़ारसी से ही बताता है। बेशक आप्टे के संस्कृत कोश में दूर शब्द मौजूद हैसंस्कृत का ही होगालेकिन दूसरी तरफ यह भी सामने आता है कि मद्दाह के उर्दू-हिंदी कोश में उसे फ़ारसी शब्द बताया गया है। उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान से छपी फ़िराक़ गोरखपुरी की किताब उर्दू भाषा और साहित्य‘ में भी अरबी-फ़ारसी से हिंदी में आए शब्दों की सूची में दूर शब्द शामिल है। फिर भीठीक-ठीक सच्चाई मुझे नहीं मालूम। मैंने हरकारे का काम कियाखरेजी मुझ पर ही बन्दूक तान चले! हतोत्साह शब्द के प्रयोग पर उनकी आपत्ति को लेकर मैं जरूर योग्य भाषाविज्ञानी से मशविरा करूंगा। 
बाकी जो कुछ उन्होंने लिखा उसका जवाब देने की जरूरत नहीं है। समय काटने के लिए आजकल वे ऐसा करते रहते हैं। 

 
      

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11 comments

  1. "संस्कृत और पुरानी फारसी यानी अवेस्ता सगी बहनें थीं।"

  2. विष्णु खरे जी द्वारा ओम थानवी के "हतोत्साह" वाले प्रयोग को कठघरे में खड़े करना हालाँकि वाजिब है लेकिन आज की तेज रफ़्तार जिन्दगी में शब्दकोष के निर्माण के लिए एक दशक का समय बहुत अधिक होगा तथा "गिनेस बुक" को "गिनीज बुक" कहना इंग्लिश का हिन्दीकरण करना है जैसे, "ब्रिटिश" को "ब्रितानी" या "इंग्लिश मैन" को "अंग्रेज" कहा जाता है | विष्णु खरे के लेख में ओम थानवी के लिए और ओम थानवी के कमेन्ट में विष्णु खरे के लिए व्यक्तिगत लांछन घृणास्पद है |

  3. टिप्पणी और उसका जवाब निजी खुंदक ज्यादा दर्शाते हैं,बनिस्पत हिंदी की दुरावस्था के प्रति पीड़ा के .फिर भी ओम थानवी जी की जवाबी टिप्पणी में कम से कम आत्मालोचना के भाव का दर्शन हो रहा है,हाँ इतना जरुर है की हतोत्साह वाली खरे साहब की आपत्ति जरुर सार्थक है.परन्तु जहाँ तक आधुनिक हिंदी के पतन ,उसकी पूर्वांचली प्रभाव से हो रही दुर्गति की चिंता विष्णु खरे जी कर रहे हैं,वह बिलकुल निराधार है,और शायद उनकी असली पीड़ा यही है,की हिंदी उनके जैसे ढांचा-खाका वादी प्रयोगकर्ताओं के हाथ में नहीं रही,बल्कि निकल कर साधारण पर बहुआयामी प्रयोगधर्मियों के साथ बड़ी और खड़ी हो रही है.पर भाषा को तो यैसे ही बढ़ना होता है,बल्कि इससे भी अनिश्चित तरीकों से उसका ब्यवहार -निर्माण और विस्तार होता है .हिंदी को संस्कृत की तरह शास्त्रीय बनाकर मृत करने की किसी भी तरह और लोगों की कोशिश असफल होती जायेगी ,और इसकी पूरी क्रेडिट भाषा की अराजक गति के साथ देशज-आंचलिक ,और विदेशी शब्दों से उसका प्रेम संबंध या फ्लर्टिंग को जाएगी .जो भी इसकी उपेक्षा या विरोध करता पाया जाय आप उसे तुरंत हिंदी का पथभ्रष्टक समझ लीजिये ,फिर चाहे वह तारसप्तक का तुर्रम खां ही क्यों न हो !सादर .साभार .

  4. श्री खरेजी की टिपण्णी में 'सम्भ्रान्त'शब्द का उल्लेख हुआ है। जिस अर्थ और आशय में इस शब्द का प्रयोग होता है , उसपर भी विद्वानों में बहस होनी चाहिए। और "छन्नी कहे सूप से …" इधर "छन्नी कहे सुई से , तेरे पेट में छेद " के रूप में प्रचलित है , जो अधिक सार्थक लगती है।

  5. This comment has been removed by the author.

  6. अभी राजकिशोर जी ने बताया की कोश का नाम 'वर्धा हिन्दी शब्दकोश' है न कि 'वर्धा हिन्दी-हिन्दी कोश' जैसा कि खरे साहब ने अपने लेख में लिखा है।

  7. Obecnie technologia pozycjonowania jest szeroko stosowana. Wiele samochodów i telefonów komórkowych ma funkcje pozycjonowania, a także wiele aplikacji do pozycjonowania. Gdy zgubisz telefon, możesz użyć takich narzędzi do szybkiego zainicjowania żądań śledzenia lokalizacji. Zrozumieć, jak zlokalizować telefon, jak zlokalizować telefon po jego zgubieniu?

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