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कुछ चिनार के पत्ते, झेलम का पानी और मिट्टी…

हाल के वर्षों में जयश्री रॉय ने अपनी कहानियों के माध्यम से हिन्दी जगत में अपनी बेहतर पहचान बनाई है। अभी हाल में ही उनका उपन्यास आया है ‘इकबाल‘, जो कश्मीर की पृष्ठभूमि पर आधारित एक प्रेम-कहानी है। आधार प्रकाशन से प्रकाशित इस उपन्यास का एक अंश आपके लिए- जानकी पुल 
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सोमेन से मेरी फोन पर अक़्सर बातें होती थी. पांच साल पहले ही वह गोवा से अपनी पढाई पूरी करके दिल्ली काम लेकर गया था. कश्मीर से विस्थापित होकर उसका भी पूरा परिवार सालों से यहां वहां भटक रहा था. उसकी छोटी बहन की शादी एक गोवन लडके से उनकी आपत्ति के बावजूद हो गई थी. कश्मीर की बातें करते हुये वह बहुत भावुक हो उठता था. जब मैने उससे कहा था कि मै कश्मीर जा रही हूं, सुनकर वह एकदम से चुप हो गया था. फिर कहा था, वहां पहुंच के मुझे फोन करना. मेरे पूछने पर कि वहां से क्या लाऊं, उसने कहा था, कुछ चिनार के पत्ते, झेलम का पानी और मिट्टी…
सोमेन के पुराने मुहल्ले मे खड़ी होकर मैंने सोमेन को फोन लगाया था. घंटी बजते ही उसने उठाया था – “हलो”
कितने पास है सोमेन अपनी ज़मीन से, एक फोन की दूरी पर. मगर कितनी दूर भी… सालों गुज़र गये, हज़ार सफर तय किया, मगर अपने घर, अपनी दहलीज तक नहीं पहुंच पाया… मेरे पैरों के नीचे की ज़मीन उसकी है, मगर उसके पास नहीं! कैसी विडंबना है! परदेस की मिट्टी में जड़ें जमाने की ज़द्दोजहद में दिन रात एक हो गये, मगर अजनबीपन नहीं गया! आज भी उन्हीं आंखों का सामना जो बिन कहे पराया कर देती है और उसी वतन की तलाश जो अपना है मगर पराया है.
सोमेन, तुम्हारे शहर में, तुम्हारे मोहल्ले में, तुम्हारे घर के सामने खड़ी हूं…” कहते हुये मेरे अंदर अजब-सी थरथराहट थी, एक गहरा अपराधबोध, जैसे कुछ बहुत ग़लत, बहुत बुरा कर रही हूं.
सुनकर दूसरी तरफ एक लंबा मौन खिंच गया था. एक भांय-भांय करता हुआ स्तब्ध सुरंग – स्याह. अंतहीन… मैं चुप रही थी, एक यातना भरी प्रतीक्षा में. जानती थी मेरे शब्दों ने एक ही पल में सोमेन को उसी अंधकार भरे गहरे सुरंग में फिर से धकेल दिया होगा जहां से उसने अपनी यात्रा वर्षों पहले शुरु की थी – जन्नत से दोज़ख की ओर – मगर आज भी कहीं पहुंच नहीं पाया था. एक बहुत बड़े शून्य में बुझे हुये सितारे की तरह भारहीन हो कर भटकता फिर रहा है – और लक्ष्य का कोई पता नहीं!
उसकी इस यातना भरी यात्रा का साझा दुख मेरे अंदर भी कहीं न कहीं छिपा हुआ है, धमनियों में बहता है नि:शब्द… एक समूह मन जो नींद की अतल, नीली गहराई में कहीं चुपचाप जागता है और रह-रह कर रोता है – अपनी मिट्टी, अपनी ज़मीन, अपने वतन के लिये. सोमेन की आवाज़ में मेरी मां की भींगी हुई आंखों की स्मृति है, पिता के अमूर्त यातना में डूबे चेहरे की परछाई है. उसे सुनते हुये मैं अपने हिस्से की यातना में हो आती हूं और फिर अंजाने ही वह महीन-सी रेखा पार कर जाती हूं जिसके इस तरफ कश्मीर के विस्थापितों का दर्द है और दूसरी तरफ सालों पहले बेघर हुये पूर्वी बंगाल के बाशिंदों का. बीच में लम्बे समय का व्यवधान है, मगर दर्द का रंग, दुख का स्वाद वही है – उतना ही कड़वा, उतना ही जानलेवा!
बाबूजी का समय-असमय अपनी ज़मींदारी की कहानी सुनाना- ऐशों-आराम, शानो-शौकत, घोड़ा-पालकी, खलिहान भरकर धान के गोले, बड़े-बड़े तालाबों में मछलियां- रोहू, कतला, गंगा का हिलशा… घर में दुर्गा मंडप, जगधात्रि पूजा… बाबूजी अभिमान से भरकर बतातें- “हमारा धानकोरा ज़मींदार बाड़ी ढाका में बहुत मशहूर था. आज भी पूर्व बंगाल में किसी से पूछो, झट से पहचान जायेगा. हम तो असल में चटर्जी हैं, हमारा रॉय- रॉय चौधरी तो अंग्रेज़ सरकार का दिया हुआ टाईटल है! एक बहुत बड़े मुकद्दमे में, जो उस ज़माने में इंगलैंड के प्रिवी काउंसल तक गया था, हम उपनी ज़मींदारी गंवा बैठे. उसके बाद देश का बंटवारा… सब चला गया… अपना सबकुछ खोकर परदेश में विस्थापितों का ये जीवन बिताना…” बाबूजी के दीर्घ श्वास की स्मृति में खोई मै भी एकपल के लिये यहां, इस सुदूर प्रांत में बिल्कुल चुप खड़ी रह गई थी. दूसरी तरफ फोन पर एक लंबी सांस टूटे पंख की तरह छटपटाती है और फिर वही आवाज़ – सोमेन की आवाज़ – तैरती आती है – “ओह! जिया.. तुम वहां हो! कहो कैसा लग रहा है मेरा घर…  मोहल्ला?” कैसी ख्वाहिश है उसकी आवाज़ में जैसे आंख बन कर देख लेने को मचल पड़ी हो.
मगर सोमेन! यहां तुम्हारा घर कहीं नहीं है…” कहते हुये मुझे तकलीफ होती है जैसे किसी को उसके प्रियजन की मृत्यु की सूचना दे रही हूं – उतना ही अप्रिय काम.
जानता हूं जिया!” अचानक सोमेन की आवाज़ में तटस्थता घुल आई है – “जानता हूं! बहुत पहले जला दिया गया था, तीन मंज़िला मकान…”
तीन मंजिला!”
हां, आज के हिसाब से करोड़ों की संपत्ति…”
मगर सरकार ने मुआवज़ा भी दिया था.”
हां! दिया था न – पचास हजार रुपये! ख़ैर जाने दो… कहो, क्या देख रही हो?”
एक ऊंची इमारत, पिस्ता हरा, मीनारोंवाली.”
पिस्ता हरा… हमारा घर गुलाबी था – तीन मंज़िला, जैसा कि मैंने बताया… आओ जिया! मैं तुम्हें वह दिखाऊं जो तुम खुली आंखों से देख नहीं सकती, मगर जो सच है – उतना ही जितना हम और तुम…”
हूं…” मैं स्वप्नवत बोलती हूं, बीच सड़क पर खड़ी-खड़ी.
दूर सड़क के किनारे जीनत कार के अंदर बैठी फोन पर किसी से बात कर रही है. सामने विंडो स्क्रीन पर प्रेस का स्टीकर चमक रहा है. आज जीनत मेरे साथ है, मंज़र ने भेजा है उसे. मंज़र- इक़बाल का ही नहीं, अब मेरा भी बहुत अच्छ मित्र! उसकी मेहमाननबाज़ी, हंसमुख स्वभाव ने मेरा मन जीत लिया था, एक तरह से मोह ही लिया था- उसकी अख़्बार यहां काफी मशहूर है. मै उसके अख़्बार के दफ़्तर भी गई थी. उसके और इक़बाल के ख़ास निमंत्रण पर मैं यहां आई हूं, उनकी मेहमान बनकर. कश्मीर के बुद्धिजीवी, कलाकार आदि जो शांति चाहते हैं और कश्मीर समस्या का कोई मुनासिब हल जो सबको मंज़ूर हो, ने ही मुझे यहां आने की दावत दी थी. उनकी तरफ से इक़बाल ने कहा था – आपलोग ग़लतफहमियों के शिकार हैं – जो सुनते हैं, उसी पर यक़ीन कर लेते हैं. ज़मीनी हक़ीकत जानना हो तो यहां आइये, अपनी आंखों से सबकुछ देखिये और फिर अपनी राय कायम कीजिये. आपलोग अगर अपना मुंह फेरकर रहेंगे, हम पर यक़ीन नहीं करेंगे तो सच्चाई कैसे सामने आयेगी? इसीलिये कहता हूं मैम, कश्मीर आइये, यहां के लोगों से मिलिये, उनके ख़्यालात जानिये और फिर बिना किसी तरफदारी, झुकाव या ग़लतफहमी-ख़ुशफहमी के हम पर एक क़िताब लिखिये. दुनिया तक हमारी आवाज़ पहुंचाइये – हम आम कश्मीरियों की. हम ताउम्र आपके शुक्रगुज़ार रहेंगे! इक़बाल की आवाज़ में न जाने क्या था – एक गुज़ारिश – बेहद संजीदा और ईमानदार. यकायक उस दिन मैंने मन बना लिया था, मुझे कश्मीर आना है. हक़ीकत जाननी है…
और आज जब यहां, इस ज़मीन पर खड़ी हूं, मेरी न जाने कितनी धारणायें एक साथ उलट-पुलट गई हैं, ध्वस्त हो गई हैं.
मज़हबी, सियासी, विदेशी – न जाने कितनी साजिशों के नीचे सच्चाई दब गई है. उसका चेहरा बिगड़ गया है, बदल गया है… ऐसे कि पहचान में नहीं आता! ओह! यथार्थ के साथ ऐसा खिलवाड़, ऐसी छेड़छाड़!… गुनाह की हद तक, गद्दारी की हद तक – अपने वतन के साथ, अपने लोगों के साथ! माफी के काबिल नहीं, बख़्शने के काबिल नहीं यह सब. मगर कौन है असली गुनाहगार! किसे सज़ा मिलनी चाहिये!
इतने सारे चेहरे, इतने सारे हाथ… कौन किसका है? कितने हैं ये? सवाल मकड़ी के जाले-से फैले हैं – उलझाव भरे, बेतरह उलझे हुये… दूर-दूर तक वहम और बहकावे शतरंज की विसात की तरह बिछे हुये… ओह! एक हद के बाद सारे रास्ते आपस में गड्डमड्ड हो जाते हैं, एक दूसरे को पाटकर, लांघकर आगे बढ़ते हैं – न जाने कहां जाने के लिये. कहां पहुंचाने के लिये!
एक सिरा हाथ लगते ही दूसरा सिरा खो जाता है, भूलभुलैया के किसी गहरे जंगल में.
सोमेन की आवाज़ फोन पर सुनाई पड़ रही है – ” हलो जिया, सुन रही हो… दांई तरफ जो जीना है, उससे होकर तीसरी मंज़िल तक पहुंच सकती हो तुम – चलो, मैं साथ चलता हूं…”
हां.” मैं किसी तरह कहती हूं, अपनी आवाज़ को सम पर लाते हुये. सामने कोई जीना नहीं है, एक दीवार है. कैसे कहती उससे! चल पड़ती हूं उसके साथ, मगर सामने कोई रास्ता नहीं. सोचती हूं, सोमेन जैसे लोग ऐसे ही रास्ते पर चल रहे हैं जिनके आगे बस दीवारें ही दीवारें खड़ी हैं… फिर भी वह चलते तो हैं!… शायद इसलिये कि इसके सिवा कोई दूसरा विकल्प नहीं है उनके पास.
सोमेन आगे-आगे चल रहा है – “यह देखो जिया, हमारी रसोई. धुंये में डूबी मेरी मां, मिर्च-मसाले से महकी हुई – थाली में खाना से ज़्यादा प्यार परोसती है…” वह एक पल ठिठकता है – “मां के हाथों के बने इसी खाने की स्मृति में वर्षों से भूखा पड़ा हूं. खाता हूं मगर कभी पेट नहीं भरता!”
मैं उससे आगे बढ़ जाती हूं, अपने छलकते हुये मन को पलकों पर सहेजे. जिस दुख की छींट दुनिया भर की हरियाली को जड़ों से सुखा दे, वह अपने आप में कितना भयंकर, कितना कष्टप्रद होगा, शब्दों से परे – कल्पनातीत!
देखो, हमारा डब!”
डब!”
हां डब यानी बाल्कनी. यहां से भी कई बार हम पतंगे उड़ाया करते थे…” सोमेन अब हंस रहा है. उसके चेहरे पर धूप है, मैं जानती हूं, वह अपने बचपन में पहुंच गया है. वहां उसकी जन्नत सुरक्षित है, ख़्वाब और उम्मीदें भी! यहां से दूर, बहुत दूर है वह सुरंग – जवाहर टनल – जिसके अंधकार में डूबकर उन्हें एक दिन अपनी अस्मिता, परिचय और भविष्य खो देना है… वह ज़मीन खो देनी है जिस पर उनकी संस्कृति के पांच हज़ार वर्ष का इतिहास दर्ज़ है, संरक्षित है!
जानती हो जिया, मैं बड़ा शैतान हुआ करत था बचपन में – रफीक को बहुत सताता था – रफीक – मेरा दोस्त!” मेरे चेहरे पर सवाल देखकर उसने बात साफ की थी – “हम बड़े पक्के दोस्त हुआ करते थे, मगर लड़ते भी खूब थे, ख़ासकर पतंगों पर…”
फिर..” सोमेन को इतना खुश देखकर मेरे अंदर भी कुछ उजला-उजला-सा होने लगा था, मटमैली परछाइयों को परे हटाकर. मैं चाहती थी उस खुशी में सोमेन कुछ पल जी ले जो उसके जीवन में कहीं नहीं है.
फिर…” सोमेन की आंखों में एक सूरज सरे दोपहर डूब गया हो जैसे, एक पल रुक कर वह मेरा प्रश्न दुहराता है और फिर धीरे-धीरे कहता है – “फिर हमारा वह झगड़ा बढ़ते-बढ़ते इतना बढ़ गया, इतना बढ़ गया कि पतंगों से बात ज़मीन पर आ गई, वतन पर आ गई…” सोमेन की आवाज़ बहुत दूर से आ रही थी, समय के उस पार से, जहां उसका बचपन, जवानी और प्यार, दोस्ती का भरम अभी तक बचा हुआ था, महफूज़ था, टूटा नहीं था इस तरह से – रेज़ा-रेज़ा होकर!…
जानती हो जिया… उस रात जब हम अपने जलते हुये चूल्हों पर पानी डालकर भाग खड़े हुये थे, रफीक सबसे छिपकर मेरे पीछे-पीछे दूर तक आया था. दूसरे पड़ोसी तब हमसे आंख चुराते थे. बस मुसलमान मजदूर तथा गाड़ियों के ड़्राइवर ही हमारे साथ आकर हमें वहां से भागने में मदद कर रहे थे. आख़िरी वक़्त रोते हुये रफीक ने कहा था, चला जा यार! इसी में भलाई है… तुझे हमेशा के लिये खोने से अच्छा है तेरी जुदाई में जीना… जी लूंगा!… मै गहरे आतंक में था जिया! और दुख में भी. उस रात एक बहुत कड़वी बात कह गया था रफीक से, बिना सोचे समझे ही… सोचता हूं तो आज भी पसलियां दुखने लगती हैं. कैसे कह सका मैं वह बात, वह भी रफीक से – अपने दोस्त से – कि मैंने तो तेरी कुछ पतंगे ही लूटी थी रफीक, पर तुमलोगों ने तो हमारी मां, हमारी ज़मीन ही लूट ली!”
सोमेन मेरी तरफ पीठ फेर कर खड़ा है, फिर भी मैं उसके चेहरे को देख सकती हूं जिसके ऊपर न जाने कितने जख़्म उभर आये हैं – बहुत पुराने, मगर ताज़े, दगदगाते हुये. कुछ जख़्मों का भरना नामुमकिन होता है, नासूर बन जाना उनका अकेला मुक़द्दर होता है.
जानती हो जिया, मेरी वह बात सुनकर रफीक ठहर गया था मगर मैंने मुड़कर नहीं देखा था – हिम्मत नहीं हुई थी. पीछे मेरी दुनिया थी, आगे बस अंधेरा. मगर उसी अंधेरे में हमें आश्रय लेना था. वही हमारे हिस्से आया था. बंटवारे में यही होता है, किसी के हिस्से घर आता है, किसी के हिस्से दीवारें – सपाट, निर्विकार, बेचेहरा दीवारें… हम अपनी दीवारों से टकराते हुये भाग रहे थे – दीवारों के पार, दीवारों से परे…”
मैं सुन रही थी, सोमेन की यातना का हिस्सा बनी हुयी. यही शायद इस समय उसके साथ होना था.
जानती हो जिया, यह विस्थापन हमारा इतिहास में सातवां विस्थापन था – हम भाग रहे हैं, लगातार भाग रहे हैं… न जाने किस गुनाह में! सच, यहां कभी किसी निर्दोष पर रहम नहीं किया जाता, उन्हें बख़्शा नहीं जाता. मगर ये ज़मीन हमारे अंदर बनी हुई है, हममें है! जिसमें हमारी नाल गड़ी है, उसीमें हमारी जान भी बसी है. जान से अलग हो जाना… मरने के बाद भी संभव है क्या?
सोमेन की दौड़ मेरी नसों में समा गई है – लहू की वही पागल नदी बनकर. मैं थक आई हूं. मेरे अन्दर की ऊर्जा मद्धम पड़ रही है, बुझ रही है, थक्के पड़ने लगे हैं उसमें… इस दौड़ का अंत कहां है? है भी? इंसान दौड़ रहा है, इंसानियत भाग रही है – इतिहास के पहले दर्ज़ हर्फ से, पहले सफे से… उससे पहले की कहानी अंधकार में डूबी है, मगर वहां से भी क़दमों की बेसब्र चाप और चीखें सुनाई पड़ती हैं. इंसान भाग रहा था, इंसान भाग रहा है – अपने ही अंदर की हैवानियत से. जब तक इंसान है, हैवान भी है क्योंकि यही शायद उसका दूसरा नाम है. दोनों के बीच की इस जंग में कोई भी जीते हारते आखिर में दोनों ही हैं!
सोमेन की सारी चेतना सिमट कर उसकी आंखों में आ गई लगती थी. वह अपने कमरे की खिड़की पर खड़ा है –  नीले आकाश के फ्रेम में किसी तस्वीर की तरह जड़ा हुआ – एकदम मंत्रमुग्ध! बाहर एक सुनहरी शाम अलस झर रही है, हवा में अबरख-से उड़ रहे हैं, चांद के गोरे माथे पर बादल का रेशमी जूड़ा बिखरा है – लम्बी नीली लटों में – आवारा, भटका, बेतरह उलझा हुआ.. “यह देखो जिया, मेरी इस खिड़की से जन्नत का नज़ारा. दूर शंकराचार्य मंदिर का कलश दिख रहा है, मधुर घंटियों की आवाज़ सुनो… सुप्त ज्वालामुखी पर खड़ा हज़ार वर्ष पुराना मंदिर- इस धरती की सारी आग़ को अपने में समेटे यहां की हवाओं में शांति घोलते हुये हमारे आराध्य, हमारे भगवान… दो पल्लों के पीछे एक पूरा आकाश, ज़मीन का सबसे खूबसूरत हिस्सा… हमारी जन्नत, हमारा कश्मीर!”
सोमेन की आवाज़ में शहद है, आंसू हैं, आग़ है.. वह रो रहा है, हंस रहा है, पागल हो रहा है.. ऐसा ही होता है, शायद ऐसा ही होता है – जब किसी की जन्नत लुट जाती है, स्वर्ग खो जाता है… मैं आगे बढ़ कर उसे तसल्ली देना चहती हूं, मगर मेरे पास शब्द नहीं हैं. सब भींग गये हैं, अपने ही अंजाने, आंसू की उसी नमकीन नदी में जिसमें सोमेन इस वक़्त डूब रहा है, पूरी तरह से. यहां, इस अथाह जल में मर जाना ही उसका जीना है – कम से कम उसके लिये!
फोन पर सोमेन की आवाज़ रह-रह कर आ रही है – कांपती हुई – “जिया! तुमने देखा मेरा घर? मेरी खिड़की, मेरा आकाश…” मैं कुछ कह नहीं पा रही हूं. गले में समंदर उमड़ा पड़ा है – एक बवंडर के साथ. कैसे कह दूं उसे कि मैं उसका घर देख नहीं पाई, उसतक पहुंच नहीं पाई, इतनी दूर आ कर भी… बीच की सारी सीढ़ियां टूटी पड़ी हैं, जाने का कोई रास्ता नहीं बचा है. कभी खुशरंग रही ज़िंदगी की परछाइयां चाह कर भी मुट्ठी में समेट नहीं पाती, थोड़ी-सी धूल उठाकर आख़िर वापस आ जाती हूं – अब सितारों का बसेरा इसी में होना है मेरे दोस्त! आसमान तो कब का बुझ चुका, ज़मीन की अस्मत भी नहीं रही… जन्नत

 
      

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6 comments

  1. मैं भी पढ़ रहा हूँ इसे . जे० & के० का होने के नाते एक अलग दृष्टि से पढ़ा जाएगा मुझसे … जयश्री जी को हार्दिक बधाई ! आभार प्रभात रंजन जी !

  2. मैं भी पढ़ रहा हूँ इसे . जे० & के० का होने के नाते एक अलग दृष्टि से पढ़ा जाएगा मुझसे … जयश्री जी को हार्दिक बधाई ! आभार प्रभात रंजन जी !

  3. Ahora, la tecnología de posicionamiento se ha utilizado ampliamente. Muchos automóviles y teléfonos móviles tienen funciones de posicionamiento, y también hay muchas aplicaciones de posicionamiento. Cuando se pierde su teléfono, puede utilizar estas herramientas para iniciar rápidamente solicitudes de seguimiento de ubicación. ¿Entiende cómo ubicar la ubicación del teléfono, cómo ubicar el teléfono después de que se pierde?

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