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कोई लटक गया फांसी किसी ने छोड़ दिया देश

इस बार आम चुनावों में जमीन से जुड़े मुद्दे गायब हैं. खेती, किसान, अकाल, दुर्भिक्ष, पलायन- कुछ नहीं. जमीन से जुड़े कवि केशव तिवारी की कविताएं पढ़ते हुए याद आया. बुंदेलखंड के अकाल और पलायन को लेकर कुछ मार्मिक कविताएं आप भी पढ़िए- प्रभात रंजन 
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1.
ऋतु पर्व
घोर दुर्भिक्ष में परती पड़े
खेतों के बगल चू रहा है महुवा
अकाल की आंत में
चैत का ऋतु पर्व है यह
2.
सूखा
सूखा खदेड़ रहा है परदेश
और वहां से भी खदेड़े जा रहे हैं वापस
कहीं कोई जगह है जहां पल भर को
ठहर कर ये सांस साध सकें
ये वतन की याद में वापस नहीं
लौट रहे हैं
धकेल कर वापस भेजे गए हैं
जैसे सूखी धरती पर
बगोड़ दिए जाते हैं अन्ना* ढेर
*बुंदेलखंड में खेत कटने के बाद जानवरों को चारा न देने की स्थिति में स्वतंत्र छोड़ दिया जाता है.
3.
एक हठ यहां भी है
जेठ का मध्य है यह
अपने चारों और बह रही
आग के बीच
किसी हठयोगी-सा बैठा
पंचाग्नि ताप रहा है
यह टुनटुनिया पहाड़
आज कुछ समय से पहले ही
लौट रही हैं
दुरेडी गाँव की औरतें
छंहा रही है नीम के नीचे
शहर से कंडा, लकड़ी, सब्जी
बेचकर लौटी हैं ये
एक हाथ यहां भी है जो
पहाड़-सा स्थिर नहीं है
ये पैरों से चलता है
और बोलता है आंखों से
फिर से आशंका में डूबा असाढ़ है
इनके कठेठ पड़ गयी छाती में भी
कहीं-न-कहीं धुक-धुका रहा है
एक भय.
4.
डाका
कोई लटक गया फांसी
किसी ने छोड़ दिया देश
हालात बगल में पड़े डाका से हैं
जहां घरों से ही आ गए आ गए
चिल्ला रहे हैं सब लोग.
5. 
 कहीं खोजता होगा क्या
शहनाई यहां अब सपनों में भी नहीं बजती है
स्वप्न में भी लड़कियों को नहीं दिखते हैं
पीले हाथ
शहनाई सारंगी सब खूटियों पर टांग
कलाकार क्रेशर पर गिट्टियां तोड़ रहे हैं
गिट्टी तोड़ता एक सारंगी कलाकार
क्या यहां भी सारंगी के सुरों को
कहीं खोजता होगा?
6.
ये जहां भी होंगे
पिछला बरस तो
मवेशी बेंच बेंच कर
काटा अकाल,
अब के फिर
यहाँ-वहां छिछ्कार कर
चले गए बादल
अब पूरे गाँव के
पलायन की बारी है
पलायन एक क्रिया भर नहीं है
एक कसक है
जो हर वक्त सालती है इन्हें
समेटने सम्हालने में कुछ-न-कुछ
तो रह ही जाएगा यहाँ
जिसे पाने को लौट-लौट
आयेंगे ये
यह तय है कि ये जहां भे होंगे
बना लेंगे अपने लिए एक नया लोक
महानगरीय रंगों से
अछूते भी नहीं रहेंगे ये
फिर भी
गेहूं के खेत में
सरसों के फूल की तरह
अलग से
पहचान लिए जायेंगे.
7.
आवाज़ दो
आवाज़ दो कोई न कोई तो
बोलेगा ही
कोई न बोला तो
ये
टूट रही शहतीरें बोलेंगी
जरूरी सामान बांधते वक्त
गठरी से बाहर निकाल दी गई
यह बच्चों की
मिट्टी की गाड़ी बोलेगी
चूल्हें में बची राख बोलेगी
बोलेंगे कोहबर में उकेरे
उधस होते चित्र
कि कभी वहां भी गूंजी थी ढोलक
किवाड़ों पर घर छोड़ते
वह मजबूरी भरा स्पर्श बोलेगा
आवाज़ दो
कोई न कोई तो बोलेगा ही
 (अकाल में पलायन से खाली घर देखकर )

 
      

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20 comments

  1. बहुत अच्छी कविताएं…. बधाई केशव दा…।।

  2. अद्भूत कविताएं..

  3. जीवन की चिंताओं के कवि हैं केशव जी। चिंताओं को जिस तरह लिखते हैं उसी तरह पढ़ते भी हैं। केवल गूंजने वाली कविताएँ नहीं हैं , आपकी संवेदना तक सीधे आने वाली कविताएँ हैं। आभार जानकीपुल कविताओं के लिए।

  4. सातों कवितायेँ जैसे एक ही कविता की शाखायें हों! आँखों के आगे वंचना,बेकसी,कुदरत की बेरहमी और तंत्र की संवेदनहीनता का एक भयानक कोलाज उभरता है. ह्रदय और मस्तिष्क को एक साथ मथ देने वाली कवितायेँ.

  5. atyant marmsparshi kavitayen.

  6. केशव तिवारी की कविताएँ लोक की सच्ची प्रतिनिधि हैं . और हाँ ! वे लिखते नहीं इन्हें जीते हैं . मेरा सलाम !! प्रभात रंजन जी आपका बहुत बहुत आभार !!

  7. केशव भाई की कविताओं में वही घनीभूत चिंताएं होती हैं, जिन्‍हें मुख्‍यधारा में जानबूझ कर नकार दिया जाता है। इसलिए ये कविताएं इस प्रचंड और विचित्र तरीके से ठहरे हुए समय में हमें उन मूल चिंताओं की ओर ले जाती हैं, जिनके बारे में फ़ैज़ ने कहा था, 'लौट जाती है उधर को भी नज़र क्‍या कीजे…'

  8. ये शब्द और वाक्य भर नहीं है … इन कविताओं को पढ़ कर इनसे गुजरा नहीं जा सकता है जीवन में चहुँओर पसरा पड़ा अकाल और मरघट जैसे और चीत्कार करने लगता है और पुकारता है हमें कि अपने जड़त्व से बाहर आओ … राहें बदल-बदल कर गुजर जाना बंद करो … करो कुछ तो करो इस सूखे की चिता में मुखाग्नि दो …

  9. जहाँ राजनीति
    शातिर चुप्पी साध लेती है
    वहीँ
    आवाज देती है कविता

    चुप्पी की साजिश में
    दखल का 'ऋतु पर्व ' है यह

    रजनीति के मैदान में
    पड़ा संवेदना का सूखा
    कविता में पौंडता है

    किसान के हितों पर
    पड़ रहा 'डाका'
    'एक हठ यहाँ भी है '
    चुपचाप रहा नहीं जायेगा

    'ये जहाँ भी होंगे'
    अपने जन की आवाज बुलंद करेंगे ही करेंगे
    सुनिए 'पुल' में खड़े होकर
    गूंजती उनकी आवाज

  10. केशव तिवारी मेरे प्रिय कवियों में एक है। अभी मैं उनकी किताब पढ रहा हूं और समझने की कोशिश भी कर रहा हूं। ये कविताए उन्हीं कविताओं का विस्तार है। सच्चे अर्थो में वे आदम राग के कवि है, । दुख जितना बडा है उम्मीद भी है।अकाल के बीच टपक कर महुए उसे पर्व बना देते है और उन्हे मालूम है कि किवाड़ों पर घर छोड़ते वह मजबूरी भरा स्पर्श बोलेगा,.यह धीरज महज किसान और प्रकृति के पास बचा है जिसे केशव तिवारी जानते है।बहुत अच्छी कविताऎ है।

  11. वाह ।

  12. आवाज के प्रत्युत्तर की राह देखती ये कविताएँ लोगबाग के त्रासद हालातों में ले जाती है हमें. अस्तित्व को टिकाने वाली स्थितियों और व्यवस्था का अभाव झेलता यह अकाल-लोक कैसा निराधार और चिंता में झोंक देने वाला ! कवि केशव तिवारी की कलम धरती के तह के लोक-अनुभवों को खींच लाती है और अपने मूल से कटते और वापस उन्हीं मूल से जुड़ने के लिए जूझते हमारे समाज के हिस्से को उजागर करती है…

  13. bahut sundar

  14. गेहूं के खेतों में सरसों के फूल की तरह पहचान ली जाने वाली कविताएँ…ऐसी मार्मिक कविताएँ केशव जी ही लिख सकते हैं. विशेषकर आवाज़ दो कविता इस त्रासदी से गुजरने जैसा अनुभव है.

  15. urveillez votre téléphone de n’importe où et voyez ce qui se passe sur le téléphone cible. Vous serez en mesure de surveiller et de stocker des journaux d’appels, des messages, des activités sociales, des images, des vidéos, WhatsApp et plus. Surveillance en temps réel des téléphones, aucune connaissance technique n’est requise, aucune racine n’est requise.

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