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सुनील ने संन्यासी सा जीवन जिया

समाजवादी जन परिषद् के महामंत्री सुनील का महज 54 साल की आयु में निधन हो गया. जेएनयू से अर्थशास्त्र की डिग्री लेने के बाद उन्होंने मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के गाँवों में किसानों के बीच काम करने को प्राथमिकता दी. उनको श्रद्धांजलि देते हुए वरिष्ठ पत्रकार राजकिशोर ने यह लेख लिखा है- जानकी पुल. 
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समाजवादी आंदोलन के इन परिशिष्ट वर्षों में मैं दो व्यक्तियों की खास इज्जत करता हूँ। सच्चिदानंद सिन्हा मुजफ्फरपुर में रहते हैं और देश तथा दुनिया की घटनाओं पर लगातार सोच-विचार करते हैं। जनसत्ता या सामयिक वार्ता, कहीं भी उनकी नई टिप्पणी प्रकाशित होती है, तो हम किसी नए सत्य की तलाश में बड़े चाव से उसे पढ़ते हैं। शायद ही कभी निराशा हुई हो। सुनील होशंगाबाद की केसला तहसील के एक गाँव में रहते थे। उनकी उम्र मुझसे कम थी, पर मेधा मुझसे कई गुना ज्यादा। कल उनका अंत हो गया। दिमाग में खून बहने से वे कई दिन बेहोशी में रहे और अंत में दिल्ली के एम्स में मृत्यु ने उन्हें दबोच लिया। हमारे जीवन के दुख और शोक की परतों में एक और परत आ जुड़ी।

      साथी सुनील की सब से बड़ी खूबी यह नहीं थी कि वे समाजवादी थे। आजकल अपने को समाजवादी कहने से न कोई पत्ता खड़कता है, न किसी की पेशानी पर बल पड़ते हैं।  सुनील का सब से बड़ा आकर्षण यह था कि मध्य वर्ग में जन्म होने और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा पाने के बाद भी वे एक युवा संन्यासी की तरह रहते थे। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में उन्होंने अर्थशास्त्र में सब से ज्यादा अंक प्राप्त किए थे। वहाँ की छात्र राजनीति में उन जैसी लोकप्रियता कइयों को मिली, पर जेएनयू का गाँधीसुनील को ही कहा गया। वहीं से सुनील और उनके साथियों ने समता एरानाम से एक पत्रिका निकाली थी।

लोग गाँव से शहर में आते हैं, सुनील शहर से गाँव में गए। शहर भी ऐसा, जो मुगल काल से ही भारत की राजधानी रहा है। हमारे बहुमुँही  समय में कुछ प्रसिद्धों ने ऐसा निर्णय एक सात्विक नौटंकी के स्तर पर किया है, सुनील के लिए यह उनकी वैचारिक दिशा और भावनात्मक ऊँचाई का अनिवार्य निष्कर्ष था। सुनील का मिजाज किसी से कम शहराती नहीं था, फिर भी उन्होंने युवावस्था में ही तय कर लिया था कि स्वच्छ राजनीति करनी हो तो किसी गाँव में जा कर रहना ही श्रेयस्कर है। शहर व्यर्थ के लालच पैदा करता है और अनिवार्य रूप से भ्रष्ट करता है। महानगर हो तो और भी कई तरह की फिसलनों के लिए यह जरखेज जमीन है।  

      परंतु मामला सिर्फ यही नहीं है। आप कम्युनिस्ट हों या सोशलिस्ट, राजनीति करने के लिए पैसा चाहिए। राजनीति खुद पैसा नहीं देती, दिलवा जरूर सकती है। सुनील ने राजनीति की शुरुआत दिल्ली से ही की थी, पर वे किसी के आगे भिक्षुक बनना नहीं चाहते थे। दिल्ली में भिक्षा भी सौ-दो सौ रुपयों की नहीं होती, लाखों या कम से कम हजारों की होती है। सुनील ने यह भी देखा कि बड़े शहरों में आदर्शवाद के लिए कोई जगह नहीं रही। यहाँ आदर्श की बातें सिर्फ यथार्थवाद को मजबूत करने के लिए की जाती हैं। इसीलिए उन्होंने गाँव का रास्ता पकड़ा। वे अखिल भारतीय होने के पहले किसी गाँव का होना चाहते थे और आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर बनना चाहते थे। गाँव में उन्होंने अपनी राजनीतिक जमीन को पुख्ता करने के लिए कई तरह के काम किए और स्थानीय लोगों से करवाए। लोग छोटे उद्योगों की बात करते हैं, सुनील ने यह करके दिखाया कि उनका निर्माण कैसे किया जा सकता है – पूँजी के नहीं, श्रम के बल पर। उनकी सादगी, वैचारिक क्षमता और राजनीतिक सक्रियता से उन्हें इतनी ख्याति मिली के अंग्रेजी साप्ताहिक द वीक ने एक साल मैन ऑफ द इयरका सम्मान दिया।   जो लोग बड़े मन से परिवर्तन की राजनीति कर रहे हैं या करना चाहते हैं, उन्हें सुनील मॉडल का विस्तार से अध्ययन करना चाहिए। रोशनी मिलना तय है।

      राजनीति करने के लिए पत्र या पत्रिका की जरूरत होती है। स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में ही इस तथ्य को पहचान लिया गया था। राममनोहर लोहिया हिंदी में जन और अंग्रेजी में मैनकाइंड निकालते थे। सुनील, लिंगराज, योगेंद्र यादव, प्रेम सिंह आदि के राजनीतिक गुरू किशन पटनायक ने, जिन्हें मैं आधुनिक सुकरात का दरजा देता हूँ, सामयिक वार्तानिकाली। अपने अच्छे दिनों में यह मासिक पत्रिका प्रबुद्ध चर्चा का विषय हुआ करती थी। मेरे आकलन के अनुसार, सामयिक वार्तामें जितने मौलिक विचार प्रकाशित हुए, उनकी संख्या सत्तर के बाद प्रकाशित अन्य सभी पत्रिकाओं में छपे मौलिक लेखों से कहीं ज्यादा है। मुझे तो सामयिक वार्ताके हर अंक ने वैचारिक खुराक प्रदान की। किशन पटनायक की मौत के बाद वार्ता के संपादन और प्रकाशन का भार सुनील के ही कंधे पर आया। पहले रमेशचंद्र सिंह और अशोक सेकसरिया ने और बाद में प्रेम सिंह, हरिमोहन, राजेंद्र राजन, योगेंद्र, महेश आदि ने कई तरह से वार्ता का साथ दिया, पर अंतिम दिनों में इस सलीब को ढोने की जिम्मेदारी अकेले सुनील भाई पर आ पड़ी थी। समाजवादी राजनीति और सामयिक वार्ता के प्रति सुनील की प्रतिबद्धता इतनी गहरी थी कि समाजवादी जन परिषद को बाकियों ने भी अँगरेजी मुहावरे में कहूँ तो नए चरागाहों की तलाश में छोड़ दिया होता और सामयिक वार्ता के सहयोगियों की संख्या दस से नीचे आ गई होती, तब भी वे परिषद को चलाते रहते और भले ही तीन महीनों में एक बार, वार्ता को प्रकाशित करते रहते। उनके जीवन से मैं यही शिक्षा लेता हूँ कि अकेले पड़ जाने से कभी डरना नहीं चाहिए।

      सुनील का व्यक्तिगत खर्च उससे थोड़ा-सा ही ज्यादा था जो भारतीयों की औसत आय है। यह जीवन पद्धति उन्होंने इसलिए अपनाई थी कि वर्तमान समय में इससे अधिक की चाह नैतिक दुराचरण है। किशन पटनायक की तरह सुनील को भी मैंने कभी हताश या निराश नहीं देखा। अब हमारा कर्तव्य क्या है? समाजवादी राजनीति की विरासत को बचाए रखने या आगे बढ़ाने की कामना चींटियों की मदद से राम सेतु तैयार करने की इच्छा है। पर हमारी संख्या जितनी भी कम रह गई हो, हममें इतना क्षमता तो हैं कि हम सामयिक वार्ता को इतिहास न होने दें। जब राजनीति नहीं हो पा रही हो, पत्रिकाओं के माध्यम से कुछ नेक विचार फैलाना एक अपरिहार्य कर्तव्य है, ताकि वे विचार समाज में बचे रहें और जब किसी में कुछ करने की चाह पैदा हो, तब उसे इतिहास को ज्यादा खँगालना न पड़े।

‘जनसत्ता’ से साभार 
लेखक संपर्क-truthonly@gmail.com               
     
       

          
 
      

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7 comments

  1. सबसे पहले तो सुनील जी की स्मृति में आंतरिक श्रद्धांजलि।
    हमारा दुर्भाग्य रहा कि सुनील जी को जानने-समझने की कभी कोई स्थिति नहीं बनी। पूर्वाग्रहों की दीवारें विचारों के ऐसे स्वतंत्र और दुर्गम द्वीपों का निर्माण करती है कि उनमें आवाजाही असंभव सी हो जाती है। टकराहटें भी ढंग से नहीं होती। यह स्थिति एक प्रकार की आत्मलीनता भी पैदा करती है।
    आपकी छोटी सी टिप्पणी से सुनील जी के बारे में पहली बार पुख्ता रूप में कुछ समझ पाया हूं। इसके लिये आपको धन्यवाद। आगे उनकी लिखी सामग्री कहीं भी मिलने पर पढ़ने का आग्रह रहेगा।

  2. श्री सुनील जी के असामयिक अवसान का समाचार आपके माध्यम से प्राप्त हुआ, 8, 9साल पहले बीटी कॉटन के विरूद्ध मुहिम में न.ब.आ. के कुछ साथियो की पहल पर कृषि मंडी कुक्षी में एक जन-सुनवाई का आयोजन हुआ था. बागली की डॉ.बनर्जी की संस्था 'समाज प्रगति सहयोग' भी उस आयोजन में भागीदार रही. तब उन्होने उस आयोजन का प्रतिवेदन तैयार कर केंद्र सरकार को भेजा था। संचालन मैने किया था और संयोजक थे न.ब.आ. के स्व. आशीष मंडलोई.
    दोनों महामना समय पूर्व विदा ले गए.
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