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वाम के समक्ष साख का संकट है या फिर नेतृत्व का?

लेखक-पत्रकार अनंत विजय का यह पत्र कल ‘जनसत्ता’ में छपा था. सीपीएम के महासचिव प्रकाश करात के नाम. वाम राजनीति के सिमटते जाने, उसके अंतर्विरोधों को लेकर लेखक ने कई गंभीर सवाल उठाये हैं. जिन्होंने न पढ़ा हो उनके लिए- जानकी पुल.
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आदरणीय प्रकाश करात जी, 
लोकसभा की आधी से ज्यादा सीटों पर चुनाव संपन्न हो चुके हैं। लोकतंत्र का यह महापर्व अब अपने अंतिम पड़ाव की ओर बढ़ चला है। यह चुनाव इस मायने में ऐतिहासिक लग रहा है कि इस बार विचारधारा पर व्यक्ति हावी हो गया है। धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करनेवाले फासीवाद के आगमन की आशंका जता रहे हैं। इस चुनावी कोलाहल के बीच वामपंथी दलों का हाशिए पर चला जाना हमारे लोकतंत्र का एक ऐतिहासिक मोड़ है। उन्नीस सौ सड़सठ में आलोचना पत्रिका के एक अंक में हिंदी के मूर्धन्य आलोचक रामविलास शर्मा का एक साक्षात्कार छपा था। अपने उस साक्षात्कार में रामविलास शर्मा ने कहा था कि अगर देश में कभी फासीवाद आया तो उसकी जिम्मेदारी वामपंथी दलों की होगी। मुझे नहीं मालूम कि आपने हिंदी के इस महान लेखक का नाम आपने सुना है या उनके लेखन से आप परिचित हैं या नहीं लेकिन आपको याद दिला दें कि कमोबेश देश में इस वक्त भी कमोबेश वैसे ही हालात हैं। तब भी विपक्षी दल बिखरे हुए थे और इस वक्त भी। अगर देश में फासीवाद आया, जिसकी आशंका आपकी जमात के लोग जता रहे हैं, तो सही में इसकी जिम्मेदारी वामपंथी दलों की ही होगी। हाल के वर्षों में जिस तरह से वामपंथी दल शिथिल पड़ गए वो हमारे लोकतंत्र के लिए चिंताजनक है। लोकसभा चुनाव की गहमागहमी और नेताओं की जुबानी जंग और मीडिया में कयासों के शोरगुल में वामपंथी दलों की भूमिका पर चर्चा ही नहीं हो पा रही है। वामपंथी दल भी चुनाव के दौरान अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने में नाकाम हो रहे हैं। पूरे देश में राजनीति पंडित इस चुनाव में राजनीतिक दलों की आसन्न जीत और हार का कयास लगा रहे हैं। कुछ भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में लहर बता रहे हैं तो कईयों का मानना है कि दक्षिण और पूर्वोत्तर राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की कमजोरी मोदी के कथित विजय रथ को रोक सकती है। सबके अपने अपने तर्क और कारण हैं। जीत हार के इन तर्कों, कारणों और दावों प्रतिदावों के बीच एक बात जो खामोश मजबूती के साथ दिखाई दे रही है वो है इन चुनावों में वामपंथी दलों का अप्रसांगिक होना। कुछ राजनीति विश्लेषकों का तो यहां तक कहना है कि कांग्रेस और भाजपा भले ही जीत के दावों में उलझी हो लेकिन इस लोकसभा चुनाव में वामदलों की हार में किसी को संदेह नहीं है। इस लोकसभा चुनाव में वामपंथी समूह की सबसे बड़ी पार्टी सीपीएम, जिसके आप महासचिव हैं, निष्क्रिय दिखाई दे रही है। क्यों नहीं वामपंथी समूह गैर कांग्रसी और गैर भाजपा दलों के बीच की धुरी बन पा रहे हैं। ज्यादा पुरानी बात नहीं है, नब्बे के दशक में कामरेड हरकिशन सिंह सुरजीत ने अपने राजनैतिक कौशल से कई बार गैर बीजेपी और गैर कांग्रेस दलों को एकजुट किया था और सरकार बनवाने में अहम भूमिका निभाई थी। उसके बाद भी दो हजार चार में कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार के गठन में वामदलों की बेहद अहम भूमिका थी। अब सिर्फ इतने दिनों में क्या हो गया कि तमिलनाडू में एआईएडीएमके के साथ गठबंधन के एलान के चंद दिनों बाद जयललिता उससे बाहर निकल आती हैं। गुजरात में प्रोग्रेसिव फ्रंट आकार भी नहीं ले पाता है। सांप्रदायिकता के नाम पर दिल्ली में गैर कांग्रसी और गैर भाजपा दलों को एकजुट करने का उनका प्रयास परवान नहीं चढ पाता है। क्या साख का संकट है या फिर नेतृत्व का। आपको इस बात पर मंथन करना चाहिए कि उन्नसी सौ बावन में जब देश के पहले आमचुनाव का नतीजा आया था तो प्रमुख विपक्षी दल के तौर पर उभरने वाली पार्टी महज साठ साल में अप्रासंगिक होती क्यों दिख रही है। क्या वजह है कि पश्चिम बंगाल और केरल जैसे मजबूत गढ़ के अलावा बिहार और महाराष्ट्र के कुछ इलाकों में मजबूत प्रदर्शन करनेवाली पार्टी अब वहां काफी कमजोर दिखाई देती है। बिहार के बेगूसराय को पूरब का लेनिनग्राद कहा जाता था लेकिन वहां भी पार्टी को नीतीश कुमार के सहारे की जरूरत है।
मान्यवर क्या आपको नहीं लगता कि वामदलों का समूह अपनी दुर्दशा के लिए खुद जिम्मेदार हैं। उन्नीस सौ सैंतालीस में जब देश आजाद हुआ था तो सीपीआई ने इसको आजादी मानने से इंकार करते हुए उसको बुर्जुआ के बीच का सत्ता हस्तांतरण करा दिया था। भारतीय जनमानस को नहीं समझने की शुरुआत यहीं से होती है। जब पूरा देश आजादी के जश्न में डूबा था और नवजात गणतंत्र अपने पांव पर खड़े होने के लिए संघर्ष कर रहा था तो आपकी विचारधारा ने गणतंत्र के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह की शुरुआत कर देश की जनता को एक गलत संदेश दिया था। उस वक्त रूसी तानाशाह स्टालिन ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए इस विद्रोह को खत्म करने में भारत की मदद की थी। महात्मा गांधी को भी 1947 में कहना पड़ा था – कम्यूनिस्ट समझते हैं उनका सबसे बड़ा कर्तव्य, सबसे बड़ी सेवा (देश में ) मनमुटाव पैदा करना, असंतोष को जन्म देना है। वे यह नहीं सोचते कि यह असंतोष, ये हड़तालें अंत में किसे हानि पहुंचाएंगी। अधूरा ज्ञान सबसे बड़ी बुराइयों में से एक है ….कुछ लोग ये ज्ञान और निर्देश रूस से प्राप्त करते हैं। हमारे कम्युनिस्ट इसी हालत में जान पड़ते हैं ….ये लोग अब एकता को खंडित करनेवाली उस आग को हवा दे रहे हैं, जिसे अंग्रेज लगा गए थे। गांधी के इस कथन को वामदलों के समूह ने कई कई बार साबित किया। आप इस तथ्य से इंकार नहीं कर सकते कि सीपीआई के विभाजन के बाद वो रूस के इशारों पर चलती रही और अलग होकर बनी पार्टी सीपीएम की आस्था चेयरमैन माओ में थी। राजनीतिक विश्लेषक और इतिहासकार एंथोनी पैरेल ने ठीक ही कहा था- भारतीय मार्क्सवादी भारत को मार्क्स के सिद्धांतों के आधार पर बदलने की कोशिश करते हैं और वो हमेशा मार्क्सवाद को भारत की जरूरतों के अनुरूप ढालने की कोशिशों का विरोध करते रहे हैं। नतीजा यह हुआ कि मार्क्सवाद को भारतीय परिप्रेक्ष्य में विकसित और व्याख्यायित करने की कोशिश ही नहीं की गई। नुकसान यह हुआ कि मार्क्सवाद को भारतीय दृष्टि देने का काम नहीं हो पाया। 
वामदलों के भारतीय जनमानस को नहीं समझने का एक और उदाहरण है इमरजेंसी का समर्थन। इंदिरा गांधी ने जब देश में नागरिक अधिकारों को मुअत्तल कर आपातकाल लगाने का फैसला हुआ था तो चेयरमैन एस ए डांगे ने इंदिरा गांधी के इस तानाशाही फैसले का समर्थन किया था। उसका ही अनुसरण करते हुए दिल्ली की एक सभा में प्रगतिशील लेखक संघ ने भी भीष्म साहनी की अगुवाई में इमरजेंसी के पक्ष में प्रस्ताव पारित किया था। ऐसे फैसले तभी होते हैं जब आप जनता का मूड नहीं भांप पाते हैं या फिर अपने निर्णयों के लिए रूस या चीन की ओर ताकते हैं। पार्टी कैडर की नाराजगी को भी डांगे ने रूस के इशारे पर नजरअंदाज किया और आंख मूंदकर इंदिरा गांधी के सभी फैसलों का समर्थन करने लगे। इससे पार्टी और चेयरमैन डांगे दोनों का नुकसान हुआ था। इमरजेंसी के फैसले के समर्थन के बाद लाख कोशिशों के बावजूद एस ए डांगे मुख्यधारा में नहीं लौट पाए और सीपीआई भी मजबूती से खड़ी नहीं हो पाई। यूपीए वन के दौर में जिस तरह से आपने न्यूक्लियर डील पर सरकार से समर्थन वापस लिया और लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के खिलाफ कार्रवाई की वो भी गलत आकलन के आधार पर फैसले का सर्वोत्तम उदाहरण है। उस वक्त भी आपके नेतृत्व पर सवाल खड़े हुए थे। अपनी किताब कीपिंग द फेथ-मेमॉयर ऑफ अ पार्लियामेंटिरियन में सोमनाथ चटर्जी ने विस्तार से इस पूरे प्रसंग पर लिखकर आपको कठघरे में खड़ा किया है। उन्होंने आपके तानाशाही मिजाज पर भी तंज कसते हुए लिखा है कि उनको पार्टी से निकालने का फैसला पोलित ब्यूरो के पांच सदस्यों ने ही ले लिया जबकि सत्रह लोग इसके सदस्य थे। उन्होंने आप पर पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की राय की अनदेखी का आरोप भी लगाया है। करात साहब जिस तरह से आपने केरल के आपकी पार्टी के मजबूत नेता पिनयारी विजयन का समर्थन किया, विजयन की छवि पूरे देश में जगजाहिर है, उससे भी पार्टी की नैतिक आभा कम हुई है।  करात साहब मुझे लगता है कि वामदलों के समूह में आपकी पार्टी सबसे बड़ी है इस नाते आपकी जिम्मेदारी है कि आप देश की राजनीति को व्यक्ति केंद्रित होने से रोकें। 
करात साहब आप इस तथ्य की ओर भी गंभीरता से विचार करें कि दिल्ली में गैर सरकारी संगठन के माध्यम से काम करनेवाला एक शख्स किस तरह से पूरे देश की राजनीति को हिला रहा है। अरविंद केजरीवाल नाम के इस शख्स की राजनीति से हो सकता है आपका मतभेद हो लेकिन उसने एक साथ कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों को चुनौती दी। आज हालत यह है कि वामपंथी दलों से जुड़े लोग आम आदमी पार्टी में अपना ठौर ढूंढ रहे हैं। अरविंद केजरीवाल ने अपनी नैतिक आभा और जनता के मुद्दों से जुड़कर खुद को भारतीय राजनीति में प्रासंगिक बना लिया। करात साहब आपकी पार्टी और आपके लाल समूह का तो आधार ही लोक है लेकिन अगर आप गंभीरता से विचार करेंगे तो पाएंगे कि आपलोग जन और लोक से दूर होते चले गए। जनता के बीच जाकर उनकी समस्याओं को उठाना और उन समस्याओं पर जनांदोलन करना आपलोगों ने छोड़ दिया। बाजारवाद और नवउदारवाद के इस दौर का सबसे ज्यादा असर देश के श्रमिकों पर पड़ा है। पूंजी के आगमन और पूंजीवाद के जोर ने श्रमिकों के हितों के रखवाले संगठनों को कमजोर कर दिया। ये आपके दलों के अनुषांगिक संगठन थे। बाजार के खुलने के बाद जिस तरह से भारत में अथाह पूंजी का आगमन हुआ उसने देश के कई हिस्सों के इंडस्ट्रियल एरिया को तबाह कर दिया। लेकिन आपलोग कोई आंदोलन खड़ा नहीं कर पाए। एसईजेड जैसे क्षेत्रों का चलन शुरू हुआ जहां श्रमिकों के अधिकारों की बातें बेमानी होने लगी। लेकिन आपलोग खामोश रहे या विरोध की रस्म अदायगी की। करात साहब किसी भी संगठन या पार्टी को प्रासंगिक बनाए रखने की जिम्मेदारी उसके नेता पर होती है उसका एहसास आपको होगा। जरूरत इस बात की है कि आप गंभीरता से मंथन करें और वामदलों को एक बार फिर से देश की राजनीति की परिधि से उठाकर केंद्र में स्थापित करें।

अनंत विजय
 
      

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