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जे. स्वामीनाथन की कविताओं पर समकालीन चित्रकार अखिलेश का लेख


कल हमने महान चित्रकार जे. स्वामीनाथन की कवितायेँ पढ़ी थी. यह वादा किया था कि उनकी कविताओं पर समकालीन चित्रकला के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर अखिलेश का लेख हम आपके पढने के लिए प्रस्तुत करेंगे. यह बड़ा दुर्लभ संयोग है कि एक बड़े ‘रंगबाज’ की कविताओं पर एक समकालीन ‘रंगबाज'(चित्रकार के लिए इस शब्द का प्रयोग अखिलेश जी ने अपने एक लेख में किया था) लिखे. आम तौर पर पेंटर्स हिंदी में लिखने से गुरेज करते आये हैं. लेकिन अखिलेश ने हिंदी में लगातार लिखा है और उनकी एक अलग भाषा-शैली है. बहरहाल, आप आज इस दुर्लभ संयोग के साक्षी बनिए- प्रभात रंजन 
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ससुरों का रंग कैसा चोखा है!
स्वामी की अभी बमुश्किल तमाम आठ कविताएँ उपलब्ध हैं।  यह आठवीं कविता पूर्वग्रह के किसी अंक में छपी है, जिसे अब प्राप्त करना और पड़ताल करना इस लेख को कई बार लिखने की सात-साला मेहनत की तरह हो सकता है, अतः इस आठवीं को यहीं उद्धृत कर इससे छुट्टी पा लेता हूँ, शेष सात पर बात आगे। इसके अलावा, उनकी कुछ और कवितायेँ भी हैं जिनका आस्वाद आपको बाद में कराया जायेगा। फिलहाल बात सात कविताओं पर- 

अधर में खिलता चला गया
क्षितिज का मौन
रात अपनी चादर में तारों को समेट
बन गई
एक धवल बादल की फुई
तिर आया आँखों में
पूजा का सजल थाल:
आनन्दाच्या जेहीं आनन्द तरंग
आनन्दचि अंग आनन्दा चे।
ये सात कविताएँ सत्तर के दशक में स्वामी की प्रदर्शनी के वक्त जारी किये गये और मंजीत बाबा द्वारा सिल्क स्क्रीन में छापी गई पुस्तिका के विशेष संस्करण में हैं। इन कविताओं में शिमला बसा है। शिमला के बहाने हिमाचल। इन सात कविताओं में ऐसा क्या है, जो स्वामी को एक कवि के रूप में स्थापित करता है, इसकी जाँच करने पर कई बातों की तरफ आपका ध्यान जाता है। पहला तो यही कि ये आत्म-दया, आत्मग्लानि से भरी हुई नहीं हैं। आजकल की अधिकांश हिन्दी कविता में मुखर मौजूदगी एक ऐसे पीडि़त की है जो लगभग मरा हुआ भिखारीनुमा कोई व्यक्ति है जिसे दूसरों के रहमो-करम पर ही जीना है। वह आत्मभिमानी नहीं है, उसकी अपनी संस्कृति, सभ्यता एक अज्ञात द्वारा नष्ट कर दी जा चुकी है ऐसा उसका गहरा विश्वास है। ये रामदास दयावती के कुनबे का वंशज है, जिसका पौरुष नष्ट हो चुका है। इस के कई नाम हैं, किन्तु हर नाम में वह हमेशा कुचला हुआ ही है। स्वामी की कविता में यह भिखारीनुमा नदारद है।

वहाँ एक कवि हृदय है, वहाँ एक सहृदय है जिसका साक्षात्कार प्रकृति से हो रहा है।

यह एक मनुष्य का रसास्वादन है। स्वामी प्रकृति के होने मात्र में विभोर हैं। चकित हैं। स्वामी का अपना काव्य-प्रेम भी इसी अनुराग के कारण इसी हतप्रभता के कारण या कहें कि विस्मयाबोधक है। स्वामी इस विस्मय, इस अतार्किकता के हिमायती रहे। वे अक्सर जिगर मुरादाबादी का यह शेर पढ़ दिया करते थे, जिसके कारण वे जिगर को बहुत मानते भी रहे। जिगर के बारे में एक साक्षात्कार में कहते हैं- ‘शिमला के एक मुशायरे की याद है। मैं ब्वाय स्काउट था। टिकिट चेक करने का काम था। जि़गर को सुना। काले तवे-सा चेहरा, मंगोल आँखें, ओंठ चाकू से चीर दिया गया हो, जैसे दाढ़ी में पान की पीक टपकती हुई। शराब में धुत्त।
इन्हीं जिगर का यह शेर स्वामी को विस्मित करता है। शेर इस तरह है:
आज न जाने बात ये क्या है
हिज्र की रात और इतनी रोशन!

साभ्यतिक व्यवस्था में प्राकृतिक उपस्थिति ही जिसमें मनुष्य, जो इस शाश्वत आत्मग्लानि में जी रहा है कि वह एक जानवर है जिसे सभ्य होना है, जो सभ्य होने के लिए तरह-तरह की व्यवस्था बनाता रहता है जो लगातार बिगड़ती जाती है। जिससे यह अहसास और गहरा होता जाता है कि व्यवस्थित कुछ नहीं हो सकता जिस कारण वो अधिक जोर और जिद के साथ एक नई व्यवस्था जुटाने, बनाने लग जाता और इस तरह लगातार वह उस प्रकृति के रहस्य को नज़रअन्दाज़ करता जाता है – जिसकी वह सन्तान है, जिसका वह एक अनिवार्य-अविभाज्य अंग है। मनुष्य की साभ्यतिक सफलताओं ने उसे और अज्ञानी और असभ्य और उपेक्षा से भरा है। इस पूरी तथाकथित विकास-यात्रा में वह चमत्कृत होने के कारण खोजने में प्रकृति की उपेक्षा करना ही सीखा है, जिसमें वह इस बात को लगातार भूला है कि-
ये इश्क नहीं आसाँ बस इतना समझ लीजे
इक आग दरिया है और डूब के जाना है।
                                (स्वामी की पसन्द का शेर)

उसे लगा कि ये क्या बेवकूफी की बात है कि इक आग दरिया है और डूब के जाना है। वह तो किनारे खड़ा होकर ही इश्क फरमाने की व्यवस्था बना रहा है। इसमें सच की जगह नहीं है। इश्क का फितूर नहीं है। इसमें जान का जोखिम नहीं है। रहस्य का विस्मय नहीं है। मनुष्य अब इश्क को सौदे में मुब्तिला करना चाहता है। कविता क्या इस दौरान अपने समय के सच के बखान में कविता के सच से, जो विस्मय से भरा है, दूर भागी है? यह पड़ताल का विषय है।

स्वामी की कविता अपने समय की रिपोर्ट नहीं करती है।
इन कविताओं में जिस विनय की ओर यहाँ इशारा है, वह सिर्फ़ कविता भर का नहीं है। इसका अहसास पाठक को गहरा होता है। कविताएँ सिर्फ़ सच नहीं है, बल्कि उस सच्चाई के अनेक प्रकटन में से एक हैं। स्वामी की कविताओं में स्वामी दावा करते नज़र नहीं आते। वे बस वहाँ हैं और एक मनुष्य की तरह हैं, जो अपने समय की अबूझता से हतप्रभ है, असहाय नहीं। वह चौकन्ना है जाँचने-परखने में। वह यह भी जानता है कि उसका होना ही इसका होना है, तभी वह रात भर बरसते पानी से बहे बूढ़े रायल पेड़ को वापस लगाता है और अचम्भित भी होता है कि ससुरा इस साल फिर फल से लदा है। यह वही हिज्र की रात की रोशनी है। यही हैरानी है। इस पूरी कविता में जिसका शीर्षक ही मनचला पेड़ है। एक पेड़, जिसके मनचले होने का जि़क्र सिर्फ़ इसलिए है कि वह मरकर फिर फलों से लद गया है। ससुरा।

कविता में कई तरह के आश्चर्य हैं, जिसमें बीज हवा के साथ जहाँ गिर जाते हैं, जम जाते हैं ढीठ। दरख़्त बन जाते हैं, ऊपर से बने रहते हैं कमबख़्त। इस कमबख़्त याने हतभाग्य या शामत के मारे की शामत आती है बारिश के रूप में। जिससे पहाड़ के मानुस भी सहम जाते हैं। और ढाक गिरि है। यह ढाक (बिजली) इसकी शामत ले आई और धार की ऊँचाई से धान की क्यारी पर ला पटकती है।

कविता में यहाँ उस मानुस का जि़क्र है, जो इसे कोस रहा है कि वहाँ तुझे तकलीफ थी या कोरड़ खा गये थे बेवकूफ, क्योंकि अच्छी फसल होने पर दस पेटी सेव मिलते थे। यह हो सकने वाले नुकसान से उपजी तात्कालिक प्रतिक्रिया है, जिसमें पेड़ बेवकूफ इसलिए हैं कि ढाक के कारण उखड़-उछल आया है। फिर से लगाया गया और फिर फलों से लद गया। उसमें आने वाले रूपक ढीठ बीज। कमबख़्त बिरक्स। जोगी या बगुले बिरक्स। बेवकूफ बिरक्स और मनचला पेड़। रायल का पेड़ मेरे ख्याल से रायल किसी ख़ास प्रकार के सेव का ब्राण्ड नाम होगा। इन प्राकृतिक आपदाओं को झेलकर बचे रहना और फिर फलों से लद जाना विस्मय है। इस कविता में असहायता है। सामूहिकता है और जीवन है। जीवन के आगे का जीवन है, जहाँ फिर फल हैं और ढीठ बीज भी। यहाँ प्राकृतिक नैरन्तर्य की तरफ इशारा है। 

भाषा के स्तर पर स्वामी हिन्दी में अप्रचलित पहाड़ी बोली का उपयोग करते हैं। इन कविताओं में आये अनेक शब्द हिन्दी भाषी के लिए नितान्त अपरिचित हैं, किन्तु वे अवरोधक नहीं बनते हैं। जैसे कितने ही हिन्दी भाषियों के लिए
 
      

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10 comments

  1. अधर में खिलता चला गया
    क्षितिज का मौन
    रात अपनी चादर में तारों को समेट
    बन गई
    एक धवल बादल की फुई

  2. कविता में कई तरह के आश्चर्य हैं, जिसमें बीज हवा के साथ जहाँ गिर जाते हैं, जम जाते हैं ‘ढीठ’। दरख़्त बन जाते हैं, ऊपर से बने रहते हैं ‘कमबख़्त’।
    इस विडंबना के बावजूद स्वप्नशील होना ज़रूरी है। शायद यही सृजन से जुड़ी सच्चाई है।
    बहुत सार्थक लेख। शाहनाज़ इमरानी

  3. स्वामीजी की कविताओं को पढ़ना सदैव सुखद होता है . . . अखिलेश भाई को साधुवाद .

  4. achchi sameeksha. anmol kavitaen sajha karne aur Akhilesh ji ke is arth vistar ke liye jankipul ka abhaar. achchi post.

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