वरिष्ठ लेखकों-कवियों का धर्म केवल व्यास सम्मान, ज्ञानपीठ पुरस्कार हासिल करना भर नहीं होता है. उनका बड़ा काम समकालीन लेखकों को प्रेरणा देना भी होता है. आसन्न फासीवाद के खतरे की चुनौतियों का सामना अशोक वाजपेयी जिस तरह से अपनी कविताओं, अपने स्तम्भ, अपने वक्तव्यों के माध्यम से कर रहे हैं वह कम से कम मेरे लिए प्रेरक है. आज उनकी एक बेहतरीन कविता ‘जनसत्ता’ में आई है. आप लोगों से साझा कर रहा हूँ- प्रभात रंजन
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छोटे मुंह बड़ी बात: एक संभावित प्रश्नोत्तर
‘तुम क्या करते हो?’
‘कविता लिखता हूँ, कवि हूँ.
‘तुम्हें कौन कवि मानता है?’
‘बहुत सारे नहीं जानते-मानते, कुछ मानते हैं.
‘तुम कविता छोड़कर राजनीति में क्यों घुसपैठ कर रहे हो?’
कविता छोड़कर नहीं, उसी से जो कुछ बन पड़ता है, करता हूँ. जब राजनीति जीवन और कविता में इस कदर घुसपैठ कर रही है तो कविता और कवि उसमें थोड़ी घुसपैठ क्यों न करें?
‘तुम जानते हो कि तुम्हारा क्या हश्र होगा?’
जानता हूँ और यह भी आताताइयों का क्या हश्र होता है.
‘तुम अपने को कैसे बचाओगे?’
अपने को नहीं, कविता और अंतःकरण और बचाने की कोशिश है.
‘तुम शहीद होने की सोच रहे हो?’
जी नहीं, हर हालत में आदमी बने रहने की.
‘तुम टैक्स देते हो?’
जी हाँ, हर वर्ष जितनी कमाई होती है, उस हिसाब से.
‘तुम्हारा बीमा है?’
था, अब नहीं है. इस उमर में बीमा क्या और क्यों होगा?
‘तुम कार चलाते हो?’
चलाना आता तो है पर अब नहीं चलाता.
‘तुम्हारे बच्चे हैं? क्या करते हैं?’
एक बेटा और एक बेटी. बेटा स्वतंत्र वास्तुकार है, बेटी स्वतंत्र सामाजिक कार्यकर्ता.
‘जब लहर चल रही थी तो उसमें बहने के बजाय उसके विरुद्ध होकर क्या हासिल हुआ?’
लहर का पता नहीं. अगर थी तो सब उसमें नहीं बहे, कुछ तो विरुद्ध दिशा में चले ही. मैं उन्हीं में से एक था. हासिल कुछ न करना था, न हुआ.
‘अपनी कारगुजारियों के लिए तुम अब भी फंस सकते हो?’
इसका मुझे अहसास है पर मैंने कुछ गलत नहीं किया है.
‘सही-गलत का फैसला हम करते हैं, तुम नहीं?’
जिस तर्क से आप करते हैं उसी तर्क से मैं भी करने का हकदार हूँ.
‘क्या तुम्हें छोटी मुंह बड़ी बात करने की आदत है?’
यह कविता का स्वभाव है: कविता छोटे मुंह बड़ी बात करके ही कविता होती है.
‘जितने दिन बचे हैं उनमें क्या करने का इरादा है?’
गरिमा के साथ जीने और यह कोशिश करने का कि अंत तक सिर और कविता किसी के आगे झुके नहीं.
कवि-संपर्क- ashok_vajpeyi@yahoo.com
कविता अशोक वाजपेयी जी का अहसास कराने में अक्षम लगी, कविता चुक रही है या वे?
kavita ka svabhaav to theek hai magar …..(Om Globalaaya namah ….!)