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लेखक का काम राजसत्ता को प्रश्नांकित करना है!

श्री उदयन वाजपेयी का लेख ‘जनसत्ता’ में 25 मई को प्रकाशित हुआ था- ‘शायद कुछ नया होने वाला है.’ उसके ऊपर संजीव कुमार और प्रियदर्शन की प्रतिक्रियाएं आई थी. उदयन जी ने उन प्रतिक्रियाओं का जवाब देने के बहाने साभ्यतिक स्तर पर कुछ प्रश्नों को उठाया है. इसका एक हिस्सा ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित हुआ था. सम्पूर्ण लेख आपके लिए यहाँ दिया जा रहा है- मॉडरेटर.
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जनसत्ता के पच्चीस मई के रविवारीय अंक में प्रकाशित मेरे लेख “शायद कुछ नया होने वाला है” पर कुछ लेखकों और बौद्धिकों ने अपनी प्रतिक्रियाएँ जनसत्ता के अगले रविवारीय अंक में प्रकाशित की हैं। मैं उन सभी लेखकों का आभारी हूँ जिन्होंने मेरे लेख से प्रतिकृत होने का समय निकाला और उस पर अपनी प्रतिक्रियाएँ लिखीं भले ही वे किचिंत तीखी थीं। मुझे और भी सन्तोष हुआ होता अगर इन माननीय लेखकों ने कुछ ऐसे विचार रखे होते जो नये मालूम देते और समकालीन स्थिति की कोई नयी विवेचना प्रस्तुत करते। पर यह जरूरी नहीं कि हर लेखक हर समय कोई नयी बात ही लिखे। पर उसे सम्भवतः यह अधिकार भी नहीं है कि वह किसी दूसरे लेखक के कोई नयी अवधारणा गढ़ने को अनुचित बताये। यह कहना बिलकुल सही है कि सोवियत संघ का विघटन हुए अब पच्चीस से अधिक वर्ष हो गये हैं (वैसे तो गांधी की हत्या हुए भी काफी समय बीत चुका) पर क्या जिस विमर्श की नींव जोसिफ स्तालीन के नेतृत्व में सोवियत सत्ता के पिछलग्गू लेखकों और बौद्धिकों ने सोवियत समय में डाली और अपने प्रभाव में जी रहे लेखकों, बौद्धिकों और उनकी तमाम संस्थाओं के सहारे भारत समेत अन्यान्य देशों के विमर्श ने संक्रमित की थी, वह भी समाप्त हो गयी है? क्या यह सच नहीं है कि हमारे बौद्धिक अधिकांशतः जिन प्रत्ययों का साहित्य और राजनीति के विश्लेषण में उपयोग करते हैं उनका किसी न किसी तरह से सम्बन्ध उन्हीं प्रत्ययों से आज भी बना हुआ है जो शीत युद्ध के काल में सोवियत संघ का पक्ष लेने के दौरान हमने विकसित किये थे? देश भूभागों पर भले ही विघटित हो जायें पर वे विमर्शों, प्रत्ययों, विश्लेषण के औजारों में देर तक जीवित रह आते हैं। 

पिछले करीब चार सौ वर्षों में यूरोप और बाद में अमरीका ने एक नयी विश्व व्यवस्था स्थापित करने की कोशिश की। बल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि वे अपने इस कार्य में बहुत हद तक सफल हो गये। इस विश्व व्यवस्था की विशेषता यह है कि यहाँ हर दो देशों के बीच के सम्बन्धों की कमोबेश मध्यस्थता या तो कोई यूरोपीय देश करता है या फिर अमरीका। इस दृष्टि से यह अपनी तरह की नयी विश्व व्यवस्था है क्योंकि इसमें मध्यस्थता कर रहे यूरोपीय देशों और अमरीका की हमेशा ही प्रधानता रहती है और इसीलिये इसे यूरो-अमरीकी केन्द्रित विश्व व्यवस्था कहा जाता है। इस शताब्दी के आरम्भ में रूस में सत्ता परिवर्तन हुआ और साथ ही सोवियत संघ का गठन हुआ। सोवियत संघ ने भी यूरोप और अमरीका के समानान्तर एक और विश्व व्यवस्था को रूप देने की कोशिश की। वे भी अपने इस कार्य में किसी हद तक सफल हुए क्योंकि कम-से-कम पूर्वी यूरोप, लातीन अमरीका, एशिया और अफ्रीका के कुछ देश इस नयी विश्व व्यवस्था में सोवियत संघ के सहयोगी हुए। एक समय में पृथ्वी पर इन दो विश्व व्यवस्थाओं में प्रतिस्पर्धा हुआ करती थी, उसे ही शीत युद्ध नाम से जाना जाता था। विश्व व्यवस्था स्थापित होने के साथ ही, (फिर उसमें जितने भी देश शामिल रहे हों) व्यवस्था में शामिल तमाम देशों के बीच वाणिज्य आदि का सहज आदान-प्रदान हुआ करता है। इन अन्तर्देशीय विनिमयों में 30 वर्ष पहले तक सबसे अधिक लाभ यूरोप और अमरीका और सोवियत संघ को हुआ करता था। सम्भवतः इसीलिए ये विश्व व्यवस्थाएँ इन्हीं नामों से जानी जाती हैं। मैंने अपने लेख में सिर्फ इतना किया कि सोवियत विश्व व्यवस्था को सोवियत भूमण्डलीयकरण कहा। इसमें किस तरह की अवधारणात्मक चूक है, मैं समझ नहीं पाया। ये दोनों ही विश्व व्यवस्थाएँ मूलतः अपने-अपने केन्द्रों को लाभ पहुँचाने गढ़ी गयी थीं। इन दोनों ही विश्व व्यवस्थाओं ने समूचे विश्व पर अपने लाभ के लिए इकहरापन आरोपित किया और विश्व की तमाम संस्कृतियों की अपनी अद्वितीयताओं की लगभग हिंसक अवहेलना की। पर यह बात इन दोनों विश्व व्यवस्थाओं के पहले की विश्व व्यवस्थाओं पर लागू नहीं होती। यूरोप के केन्द्रीय होने से पहले भी संसार में कई तरह की विश्व व्यवस्थाएँ रही हैं। इनमें भी भारत की भागीदारी रही है। यह हमारी बौद्धिक विपन्नता है कि हमने बौद्धिक श्रम करके इन अन्यान्य विश्व व्यवस्थाओं का अध्ययन करने की कोई गम्भीर कोशिश नहीं की। पर जितना अलग-अलग स्रोतों से जानकारी मिलती है उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि यूरो-अमरीकी केन्द्रित भूमण्डलीयकरण के पहले की विश्व व्यवस्थाएँ विभिन्न संस्कृतियों की अद्वितीयताओं को पहचानती और उनका सम्मान करते हुए गढ़ी गयी थीं। इन विश्व व्यवस्थाओं में भारत ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी की है। 

जहाँ तक मुझे ज्ञात है सन् 1773 या उसी के आस-पास तक सारे संसार के कुल व्यापार का आधे से अधिक भारत और चीन किया करते थे। कुछ वर्ष पहले ब्रितानी सबमेरीन के सेवानिवृत्त प्रमुख गैविन मेन्जीज ने एक अत्यन्त महत्वपूर्ण किताब प्रकाशित की हैः ‘1421 द इयर वेन चायना डिस्कवर्ड अमरीका’। इस किताब में गैविन ने विस्तारपूर्वक और प्रमाण सहित यह बताया है कि पन्द्रहवी शताब्दी के तीसरे दशक की शुरूआत तक चीन के जहाजों ने भारत, अफ्रीका, यूरोप होते हुए अमरीका तक का समुद्री मार्ग खोज लिया था। (जब कोलम्बस अमरीका गये उनके पास चीनियों द्वारा खोजे गए समुद्री मार्ग का मानचित्र था।) उन्होंने यह भी लिखा है कि भारत के अनेक राज्यों में चीन समेत कई देशों के राजदूत हुआ करते थे। ऐसी जानकारियाँ अनेक ग्रन्थों में सहज उपलब्ध हैं। जिस जहाजी बेड़े ने पहली बार भारत होते हुए चीन से अमरीका तक का समुद्री मार्ग तय किया गया था, उसका नेतृत्व चीन के एडमिरल ज़ियाँग ही कर रहे थे और इस बेड़े के लगभग अट्ठाईस हजार सदस्य चार महीनों तक कालिकट में रूके थे। इस जहाजी बेड़े के साथ, तमाम जहाजी बेड़ों की तरह ही इतिवृत्तकार भी रहा करते थे और वे विभिन्न देशों की विशेषताओं और उनके अन्यान्य देशों से सम्बन्धों के स्वरूप को दर्ज किया करते थे। वे इतिवृत्त आज भी चीनी भाषा में उपलब्ध हैं। इस तरह के अनेक शोधों से अब यह तथ्य धीरे-धीरे खुलना शुरू हुए हैं कि संसार में यूरो-अमरीकी और सोवियत विश्व व्यवस्था के पहले भी विश्व व्यवस्थाएँ थीं और उनका स्वरूप अलग था। भारत को चाहिए कि वह वर्तमान विश्व व्यवस्था को प्रश्नांकित कर तमाम देशों की संस्कृतियों की अद्वितीयताओं के स्वीकार पर आधारित विश्व व्यवस्था की पुनर्स्थापना की दिशा में कार्य करे। 

अगर यह देश शक्तिसम्पन्न हो पाता है, पूरे संसार को, विशेषकर अफ्रीका, लातीन अमरीका और एशिया के अनेक देशों को इससे लाभ होगा और वे अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं को बचाने या उनका पुनर्वास करने में भी सफल होंगे। पर यह कार्य पश्चिमीकृत बौद्धिकों (जिन्हें मैंने अपने लेख में अंग्रेज़ीदाँ कहा था, वह इसलिए क्योंकि यह शब्द हिन्दुस्तानी में बहुत लम्बे समय से पश्चिमीकृत मानस के लिए उपयोग में आ रहा है, इसका यह आशय कतई नहीं था जो लोग अंग्रेजी में लिखते हैं वे सभी अंग्रेजीदां हैं। मैं ऐसे अनेक विचारकों को जानता हूँ जिन्होंने भारतीय पारम्परिक अंतर्दृष्टियों पर अत्यन्त गहनता से लिखा है।) के नेतृत्व में नहीं हो सकता। और न ही उन बौद्धिकों के नेतृत्व में जो आज भी देश को यूरोप में उत्पन्न इस या उस आदर्श में ढालने का स्वप्न देखा करते हैं। यह बात सच है कि भारत की लोकतान्त्रिक सत्ता आदिवासियों और वंचितों आदि तक पहुँची है। पर यह भी सच है कि वहाँ पहुँचकर इस लोकतान्त्रिक सत्ता ने पर्याप्त विनाश किया है जो सम्भवतः अंग्रेजी शासन के हाथों हुए विनाश से किसी भी तरह कम नहीं है। मेरा यह सौभाग्य है कि मैंने गौंड-परधान आदिवासी चित्रकला पर शोध किया है और एक किताब लिखी है। लोहा बनाने वाले अगड़ियों के समुदाय और पहाड़ी कोरबाओं पर फिल्में लिखीं है और इसलिए इन तमाम इलाकों में कुछ समय बिताने का जो अवसर मिला है उसके सहारे मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि हमारी लोकतान्त्रिक सत्ता ने इन तमाम समुदायों के विषय में योजनाएँ बनाते समय इनकी अपनी जीवन दृष्टि और सत्य की कोई चिन्ता नहीं की।

हम जब भी भारत के बहुसंख्यक हिन्दुओं के अपेक्षाकृत निकट आने से भय महसूस करें, जैसा कि संजीव कुमार कर रहे हैं, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत दुनिया का एक मात्र ऐसा देश है जहाँ तमाम तरह के अल्पसंख्यकों की जनसंख्या को चार प्रतिशत से अधिक बढ़ने देने में कभी कोई रूकावट उत्पन्न नहीं की गयी जैसा कि यूरोप में आम परिपाटी है। उदाहरण के लिए जर्मनी ने कभी-भी तुर्कियों की जनसंख्या जैसे ही चार प्रतिशत से अधिक होने लगती है, वहाँ की सत्ता इस विषय में सतर्क हो जाती है। अगर भारत में ऐसा नहीं होता तो इसका कारण इस सभ्यता में ही होना चाहिए और यह सच है कि इस सभ्यता के मूल्यों का वहन अगर अल्पसंख्यक करते हैं तो उसी प्रतिशत में बहुसंख्यक भी करते हैं। शायद यही कारण है कि आज जो अपेक्षाकृत समतामूलक संविधान स्वतन्त्र भारत ने स्वीकार किया है उसे भारत के बहुसंख्यक समेत सभी नागरिकों की सम्मति प्राप्त है। यह सच है कि आदिशंकराचार्य और तुलसीदास जैसे महान चिन्तकों को उनके समय में अनेक शास्त्रार्थ करने पड़े, उनसे अलग मत रखने वालों ने उनके साथ दुर्व्यवहार भी किया है। पर उसी देश ने इन चिन्तकों और कवियों को अपने माथे पर भी बिठाया है और स्वयं उनके समय में ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जो इनके प्रति सम्मान से भरे हुए थे। जब भी किसी समाज में कोई नया विचार जन्म लेता है, उसे अपना स्थान बनाने में कुछ समय और शक्ति लगती है। इसमें न भारत अपवाद है और न कोई और देश। 

अंत में रामराज्य की अपनी एक संक्षिप्त सी व्याख्या पाठकों के सामने रख रहा हूँ। मुझे यह व्याख्या मुझ समेत हर लेखक के लिए उपयोगी जान पड़ती है। वाल्मिकी ने श्रेष्ठ राजसत्ता के उदाहरणस्वरूप राम के राज्य का विवरण रामायण में किया है। यह कहा जा सकता है कि वाल्मिकी की दृष्टि में इससे बेहतर कोई राज्य व्यवस्था बन पाना असम्भव था। पर ऐसी लगभग अचूक राज्य व्यवस्था में भी रानी सीता के चरित्र पर प्रश्न उठते हैं। राम को उनका उत्तर देना पड़ता है। इस तरह आदि कवि वाल्मिकी शायद यह कह रहे हैं कि जब भी कोई राज्य व्यवस्था बनेगी, उस पर प्रश्न अवश्य उठेंगे, उस पर प्रश्न उठना उचित है और उसे उठाने वाले का राजा को सम्मान करना होगा। मैं समझता हूँ यह किसी भी लेखक के लिए गहरी सीख है। उसका काम राजसत्ता को प्रश्नांकित करना है। मैंने अपने लेख में यह कहीं नहीं लिखा है कि मैं मौजूदा शासन का समर्थक हूँ। एक लेखक के नाते मैं चाहूँ भी तो ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि तब मैं अपने लेखक धर्म का त्याग कर रहा होऊँगा। पर प्रश्नांकन करने और शंकालु बने रहने में विवेक करना होता है। अगर एक लेखक ऐसा नहीं कर पाता तब वह एक राजनैतिक दल के द्वारा किये पुस्तकों के प्रति अनाचार का विरोध करते हुए दूसरे राजनैतिक दल के द्वारा किये गये वैसे ही अनाचार को भूला देगा। मैं याद दिला दूँ कि भारत के लगभग सभी राजनैतिक दलों के सदस्यों ने किसी-न-किसी तरह से अलग-अलग समय पर अलग-अलग पुस्तकों को सेंसर किया है। इसके लिए सिर्फ किसी एक राजनैतिक दल को दोष देना महज तर्क जीतने जैसा कुछ है, इसमें कोई मूल्य निहित नहीं है। मूल्य की दृष्टि से देखें तो किसी भी किताब से असहमति की स्थिति में उस पर एक और किताब लिखने का जो बौद्धिक उपक्रम करना चाहिए उससे हमारे राजनैतिक दल और उनके समर्थक बुद्धिजीवी बचते रहे हैं। इसीलिए जब जिसका वश चला उसने किताबों को ‘बैन’ करने का प्रयास किया। इसमें क्या शक है कि पिछले पच्चीस वर्षों से गांधी-नेहरू परिवार के किसी सदस्य ने कोई पद ग्रहण नहीं किया। पर क्या उन्होंने शक्ति का भी त्याग किया? बिना पद के शक्ति को धारण करना कहीं अधिक अनैतिक राजनीति है। संजय बारू की किताब, ‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टरमें उन्होंने स्पष्ट दर्शाया है कि कैसे बिना दायित्व लिए इस परिवार के सदस्य देश की राजसत्ता का संचालन करते रहे हैं। इसलिए उसके एक सदस्य द्वारा पूरी शालीनता से पद त्याग का कृत्य सच्चा त्याग नहीं था, वह राजनैतिक चतुराई थी। क्योंकि अगर उन्होंने पद को त्यागा था तो उन्हें उसी पद की गरिमा को उसे दूर बैठकर संचालित करके दूषित करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। पर हम सब जानते हैं कि ऐसा हुआ नहीं। मैं यह स्वीकार करना चाहता हूँ कि अपने प्रश्नांकित लेख में मैंने एक पद का असावधानीपूर्वक गलत उपयोग कर लिया था। वह पद था गणतन्त्र, जबकि मुझे वहाँ ‘संघवाद(फेडरलिज़्म) लिखना चाहिए था। पर उस लेख में गणतन्त्र के चारों ओर जो बातें लिखीं थी उनसे गणतन्त्र के संघवादीय आयाम का संकेत हो जाता था। पर फिर भी वह उपयोग अचूक नहीं था।

रही बात यह जानने की कि मुझे यह पता है कि कब कहाँ रहना चाहिए यानि ऐसा क्या करना चाहिए कि मैं राज्य सत्ता से लाभान्वित हो सकूँगा, तो इसका अत्यन्त शालीन जवाब यह है कि कम-से-कम अब तक के अपने लेखकीय जीवन में हमेशा ही उस ओर रहा हूँ जहाँ राज्य सत्ता का पक्ष नहीं था। बौद्धिक विमर्श में चरित्र हनन खेल के नियमों की अवहेलना है, यह बात प्रियदर्शन से छिपी नहीं होगी।
 
      

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