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नदी कथा है आकाशगंगा की

उषा प्रियंवदा के उपन्यास ‘नदी’ पर एक संक्षिप्त और सम्यक टिप्पणी की है क्षमा त्रिपाठी ने. पढ़कर देखिये उपन्यास पढने लायक है या नहीं- मॉडरेटर
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हिंदी साहित्य के स्त्रियोन्मुख लेखन में उषा प्रियंवदा का लेखन एक अलग प्रकार का लेखन रहा है. जैसा जीवन है वैसी ही है जीवन कि कथा शायद यही उनके लेखन का मूल मन्त्र माना जाय. अपने जीवन में इलाहबाद से लेकर अमरीका तक के सफर में उषा जी कि औपन्यासिक यात्रा का छठा पड़ाव है नदी. यदि उषा जी के समग्र लेखन के क्रम में नदी को देखा जाय तो यह उपन्यास न तो पचपन खम्भे लाल दीवारें जैसी पीड़ा उकेरता है और न ही रुकोगी नहीं राधिका जैसा द्वंद्व. परन्तु फिर भी इस उपन्यास में कुछ है, कुछ ऐसा जो आपको इसे पूरा खत्म करने तक इसमें रूचि बनाये रखता है.

नदी कथा है आकाशगंगा की जो जाती है अपनी बहन के पास अपने बच्चे कि मृत्यु का दुःख हल्का करने, थोडा मन बदलने और लौट कर आने पर पाती है कि उसके दूषित रक्त को उसके पुत्र के कैंसर का जिम्मेदार समझने वाला उसका उच्च शिक्षित पति उसका पासपोर्ट, वीसा, रूपए पैसे, बेटियाँ सब कुछ ले कर चुप चाप भारत वापस भाग गया है. पर्स में साठ या सत्तर डालर लिए, खाने को एक टाइम कि पूरियां और भरवां करेले और दो / चार जोड़ी कपडे लिए अपने बिक चुके मकान के दरवाजे पर खड़ी एक युवा महिला जो अपनों से हज़ारों मील कि दूरी पर खड़ी है उसके जीवन का प्रवाह है नदी. पति द्वारा छोड़ कर भाग जाने पर उसके जीवन में अर्जुन सिंह आता है जो उसके यौवन के भोग के बदले नकली गहनों कि सौगात देता है, फिर आता है उसके मृत बेटे भविष्य का डॉक्टर एरिक स्टीवेन जो उसको एक पुत्र कि सौगात देता है. इस वर्ण संकर पुत्र कि पहचान के भारत में अपने खतरे है जिनसे भयभीत नायिका वापस अमरीका आती है और एक कैंसर से जूझती स्त्री कि सेवा करती है, फिर वो कैंसर से मरती स्त्री प्रौढावस्था की अंतिम सीढ़ी पर खड़े अपने पति को उसे सौंप देती है कि उसका ख्याल आकाशगंगा रखेगी. ये पुरुष भी गंगा के जीवन में अपना वैधव्य और अपने पुत्र पर आश्रित होने कि मजबूरी छोड़ कर दुनिया से विदा लेता है. उपन्यास के अंतिम खंड में उसका वो बेटा जिसे उसकी कैंसर ग्रस्त सहेली जनम के समय ही किसी को गोद दिलवा देती है उसके एकरस जीवन में आशा का संचार करने आता है. यह आगमन इसलिए और आह्लादकारी बन जाता है क्योंकि वो लुकेमिया से लड़ कर और जीत कर आया है. और उसी एक जीत से गंगा अपने जीवन का कुल यथार्थ जोड़ लेती है.

उषा जी अपने उपन्यासों में कभी कोई क्रांतिकरी पात्र चित्रित नहीं करतीं, सामान्यतया उनके उपन्यासों कि नायिकाएं वो प्रवासी स्त्रियाँ हैं जो भेजी जाती हैं अमरीका और यूरोप के मुल्कों में अपने पति कि अर्धांगिनी बना कर, पति कि सहचरी बना कर पर उनकी इस यात्रा कि परिणति होती है एक ऐसे दोराहे पर आकार जहाँ पति या जीवन का पुरुष ही सारे द्वंद्व के मूल का सूत्रधार बन बैठता है. उषा जी कि नायिकाएं चाहे वो सुषमा हो (पचपन खम्भे लाल दीवारें) या वाना हो (अंतर्वंशी) या फिर आकाशगंगा (नदी) वे क्रांति का नहीं नियति का दामन थामती हैं. समय परिस्थिति और अपने परिवेश को नकारती नहीं है, वो शनैः शनैः अपने लिए जीवन का एक नया मार्ग चुनती हैं. पर यह चुनाव स्वतंत्र नहीं है. इसके मूल में है परिस्थितियों का तानाबाना.

 नदी कहानी है एक लुटी, पिटी और छली गयी ऐसी महिला कि जो अपनी समझ और परिस्थिति के अनुसार जीवन का एक नया मार्ग स्वयं चुनती है और उस मार्ग पर उसे जो मिलता है उसे बिना किसी को दोष दिए स्वीकारती है. जीवन नाम है निरंतर प्रवाह का, निरंतर आगे बढ़ने का और निरंतर चलते जाने का. जैसे एक नदी अविरल बहती है और बहाव उसे किसी भी सडन, किसी भी व्याधि से दूर रखता है वैसे ही जीवन है. एक जगह रुक कर, एक जगह ठहर कर जीवन को भोगने का और जख्मी हिस्सों को चिपकाये रखने का हर उपक्रम छोटे छोटे जख्मों को नासूर बना देता है. नदी नाम है गंगा कि खोज भरी जीवन यात्रा का जो बारम्बार यही सवाल पूछती है कि क्यों हमारी आदर्श सिर्फ सीता ही हो, क्यों हम सिर्फ सीता ही बनने कि सोचें जब कि इसी समाज का एक सच द्रौपदी भी है और कुंती भी!
क्षमा त्रिपाठी 


हमने ये मान लिया है कि जो भी विमर्श लेखन होगा चाहे वो दलित हो या स्त्री उसमे उस धारा का पूरा असंतोष मुखर ही होना चाहिए. शब्द ऐसे कि कान में पिघलते शीशे से उतरते चले जायें. और तटस्थ रहने या होने कि कोई गुंजाईश नहीं है. अगर विमर्शों के पैमाने पर मूल्यांकन किया जाय तो नदी निराश करती है. पर यह विमर्शों के प्रति उदासीनता ही तो उषा जी के सम्पूर्ण लेखन कि विशेषता या यू एस पी मानी जा सकती है. उम्र के अस्सी बसंत देखने वाला कोई भी सर्जक सृजन कर्म से विरत हो कर अपनी पिछली कृतियों से कमाई गयी शोहरत और सम्मान का भोग करता है. पर ८४ के वय में सृजन कर्म में रत रह कर एक ऐसी सफल कृति का सृजन करना जो पाठक को एक बार शुरू करने पर उपन्यास खत्म होने तक अपनी किस्सागोई से बाँधे रखे वाकई जीवट का कार्य है.

पुस्तक : नदी(उपन्यास),   लेखिका: उषा प्रियम्वदाप्रकाशक: राजकमल पृष्ठ: 170  मूल्य: 350/-
लेखक परिचय
नाम : क्षमा त्रिपाठी
सम्प्रति : सेंट एंड्रूज पी.जी. कालेज (दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय)
से हिंदी विषय में शोध कार्य और शोध पत्रिका आवर्तन का संपादन.
संपर्क : 022 ई, झारखंडी मार्ग, गिरधरगंज बाजार कूड़ाघाट गोरखपुर, उत्तर प्रदेश.
मो. नं.: +918987760231

 
      

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11 comments

  1. एक जरुरी उपन्यास पर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी के लिए क्षमा त्रिपाठी का आभार. उम्मीद है कि यहाँ उनकी और भी टिप्पणियाँ भविष्य में भी देखने को मिलेंगी.

    आशुतोष
    हिंदी विभाग
    डॉ.हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर

  2. सही बात है जीवन विमर्शों से नहीं चलता ।जीवन का तो अपना ही एक प्रवाह होता है । हमेशा युद्ध जीवन का विकल्प नहीं हो सकता और होना भी नहीं चाहिए ।हर व्यक्ति का दृष्टिकोण अलग होता है और सभी को अधिकार है अपने जीवन को अपने ढंग से देखने और जीने का ।

  3. padhne ko utsukta jagati huyee bahut sundar sameeksha

  4. बहुत सुंदर समीक्षा ।

  5. शानदार !

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