शीर्षक से कुछ और मत समझ लीजियेगा. असल में यह एक मारक व्यंग्य लेख है. संजीव कुमार को आलोचक, लेखक के कई रूपों में जानता रहा हूँ, लेकिन पिछले कुछ अरसे से उनके व्यंग्य लेखन का कायल हो गया हूँ. भाषा का खेल, रामपदारथ भाई जैसा किरदार. यह व्यंग्य का एक नया अंदाज है. पढ़िए- जानकी पुल.
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‘जयहिंद! जयभारत!’
फ़ोन रिसीव करते ही रामपदारथ भाई की आवाज़ ठन्न–से कान के पर्दे पर टकराई। एकदम करंट–सा लगा। अपन ने प्यार से झिड़की दी, ‘हाय–हैलो की जगह जयहिंद–जयभारत! पदारथ भाई, ये क्या हाल बना रखा है? कुछ लेते क्यों नहीं?’
‘अच्छा बेट्टा! अब तुम भी ‘कुछ’ कहने लगे! देख रहे हैं कि मोदिया के आने के बाद से सबका जुबान शाकाहारी हो गया है।’
‘मतलब?’
‘मतलब उतलब छोड़ो। तुम अ–नारी हो, अनाड़ी थोड़े ही हो कि मतलब समझाएं?’ पदारथ भाई मानो शब्दों का खेल खेलने पर ही आमादा थे।
ऐसे खिलाड़ी बकैत से कौन उलझे! हार मानते हुए हमने आग्रह किया कि ‘कुछ’ विषयक अपनी आपत्ति का न सही, कम–से–कम अपने अभिवादन में आए हल्लाबोल बदलाव का मतलब तो समझा दें।
पदारथ भाई उवाच, ‘देखो ऐसा है, जिस कारण से तुम्हारा जुबान विशुद्ध शाकाहारी हो गया है, उसी कारण से हमारा जुबान भी विशुद्ध भारतीय हो गया है। मोदिया के आने के बाद से हम देख रहे हैं, बौद्धिक जगत में भारतीयता अइसा उछाल मार रहा है कि खुद मोदी उसके आगे विदेशी लगने लगा है। हमारे बात पर विश्वास न हो तो कुछ दिन के लिए ‘जनसत्ता’ लगवा लो।’
‘मैं ‘जनसत्ता’ का नियमित पाठक हूं और इस जागरूकता के लिए आपके मशवरे का मोहताज नहीं। काम की बात पर आइये।’ मैंने चिढ़ कर कहा।
‘चिढ़ो मत बेटा! आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर!’ शक्तिपूजा विशेषज्ञ जामवंत की भूमिका में पदारथ भाई बोले, ‘अगर तुम नियमित और जागरूक पाठक हो तो मेरे बात पर तुमको सीधा उदयनवाजपेइयों और रमेशचंद्रशाहों का नाम याद आना चाहिए था। पवन कुमार गुप्ताओं को तो मान लो छोड़ भी
बेहद उम्दा…आपको बहुत बहुत बधाई…
@मुकेश के जन्मदिन पर.
बहुत बढ़िया
कल 29/जुलाई /2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
धन्यवाद !