शोर-शराबे के दौर में स्वप्निल श्रीवास्तव चुपचाप कवि हैं, जिनके लिए कविता समाज में नैतिक होने का पैमाना है. उनकी कुछ सादगी भरी, गहरी कवितायेँ आज आपके लिए- मॉडरेटर.
एक
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शुरूआत
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जिस दिन अर्जुन ने चिड़िया की आंख पर निशाना लगाया था
उसी दिन हिंसा की शुरूआत हो गई थी।
द्रोपदी को द्यूत क्रीड़ा में हार जाने के बाद यह तय हो
गया था कि स्त्री को दांव पर लगाया जा सकता है।
चीरहरण को चुपचाप देखनेवाले धर्माचार्य और बुद्धिजीवी
इतिहास में अपनी भूमिका संदिग्ध कर चुके थे।
यह स्त्री अपमान की पहली घटना थी।
धृतराष्ट्र किसी राजा का नाम नही एक अंधे नायक
का नाम है जिसने पुत्रमोह में युद्ध को जन्म दिया था
युद्ध के बाद बचते है शव, विधवायें, अनाथ बच्चे और
इतिहास के माथे पर कुछ कलंक
अंत में विजेताओं को बर्फ मे गलने के लिये
अभिशप्त होना पड़ता है।
दो
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फर्क
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बहुत सी मौतें हत्या की तरह होती है
उसे हम अंत तक नही जान पाते
आदमी की मृत्यु स्वाभाविक दिखती है
यह पता नही चलता उसे कितने सलीके से
मारा गया है
उसकी मृत्यु सिर्फ मृत्यु दिखाई देती है।
कुछ दिनो बाद लोग हत्या और मृत्यु का फर्क
भूल जाते है।
इतिहास में ऐसी बहुत सी मौतें दर्ज हैं
जो वास्तव में हत्याएँ हैं।
जो हत्याएँ करते हैं उन्हे भी मार दिया
जाता है।
हत्यायों और मृत्यु का फर्क कम होता जा रहा है
यह सब तफ्तीश का कमाल है।
तीन—-
कुफ्री के घोड़े
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कुफ्री में बहुत से घोड़े है
इन घोड़ों ने बहुत लोगो को रोजगार दे रक्खा है
इनके दम से घरों में जलते हैं चूल्हे
रोटी का होता है बेहतर स्वाद
ये घोड़े नही परिवार के वरिष्ठ नागरिक हैं
वे अपनी पीठ पर सैलानियों को लाद कर
पिकनिक स्पाट तक पहुंचाते हैं।
हमें दिखाते हैं पहाड़
हमें प्रकृति के समीप ले जाते हैं
जिन कठिन रास्तों पर चल नही सकती गाड़ियाँ
घोड़े उन रास्तो पर आसानी से चलते हैं।
*
घोड़े मामूली चीज नही इतिहास को बदलने वाले लोग है
जिस दूरी को तय करने में तीन दिन का समय लगता है
घोड़े उस दूरी को एक दिन में तय कर लेते है।
घोड़े के बगैर हम युद्ध की कल्पना नही कर सकते
महाराणा प्रताप और लक्ष्मीबाई की विजय
इन घोड़ों ने दर्ज कराई है।
कुफ्री के घोड़े इन्ही घोड़ों के वंशज हैं
ये राजमार्ग पर लद्धड़ दौडनेवाले घोड़े नहीं हैं
न ये पूंजी अथवा किसी छल से पैदा हुये हैं।
ये घोड़े पहाड की कोख से पैदा हुये है
इनके श्रम में पसीने की महक है।
ये घोड़े दुर्गम से दुर्गम रास्तो को अपनी
हिकमत से पार करते हैं
ये अनथक चलते है
अपने पैरों से बनाते हैं रास्ते
इनके बनाये रास्ते रात में चमकते हैं
जीन और रकाब के बीच फंसे हुये आदमी को
ये घोड़े देते हैं जिंदगी का पता।
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कुफ्री शिमला के पास का हिलस्टेशन है जहां सैलानी घोड़ों के जरिये
पिकनिक स्पाट तक पहुंचते है ।
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चार
राजाओं के बारे में
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राजाओं को गुजर-बसर के लिये चार पांच कमरों का
मकान नही आलीशान महल चाहिये
उनके लिये एक दो रानियां नही सैकड़ों रानियों का
हरम चाहिये।
पुरूषार्थ बनाये रखने के लिये चाहिये
शाही हकीम
नहाने के लिये तरणताल और जलक्रीड़ा में पारंगत
स्त्रियां चाहिये
दरबारियों और मुसाहिबों के बिना संपन्न नही
हो सकती दिनचर्या
उन्हे रागदरबारी गाने के लिय्रे शास्त्रीय गायक
और नृत्य के लिये नृत्यांगानाएं चाहिये।
उन्हे तोप बंदूक हाथी घोड़े और आखेट के लिये
निरपराध लोग चाहिये।
इतिहास में उनका नाम तानाशाह के रूप मे
दर्ज होना चाहिये लेकिन वे अपने मुकुट के साथ
समय के पन्नों में चमक रहे हैं।
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पांच
आभार
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हमें भले ही कुछ न मिला हो लेकिन यह जीवन तो मिला है
जिसके लिये मैं अपने माता-पिता का आभारी हूं
उनके नाते मै इस दुनिया में आया
उनकी दी हुई आंखों से देखी यह दुनिया
उन्होने जमीन पर चलने के लिये दिये पांव
हाथों के बारे में उन्होने बताया कि यह शरीर का
सबसे जरूरी अंग है जिससे तुम बदल सकते
हो जीवन
क्या क्या है इस दुनिया में- पहाड नदियां आकाश परिंदे और समुंदर
बच्चे इस दुनिया को करते है गुलजार
इस दुनिया में रहती है स्त्रियां
वे कुछ न कुछ रचती रहती हैं
वे अपने गर्भ में छिपाये रहती है आदमी के बीज
वक्ष में दूध के झरने
ईश्वर हैं हमारे मातापिता
वे हमे गढ़ते है
हमारे भीतर करते हैं प्राण-प्रतिष्ठा
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स्वप्निल श्रीवास्तव
510–अवधपुरी कालोनी /अमानीगंज–फैजाबाद-224001
मो) 09415332326
ई-मेल
swapnilsri.510@gmail.com
वाह ।
behad aasan-sahaz shabd,gahri-sarthak abhiwyakti…..
स्वप्निल जी की कविताओं में समाया सहज प्रतिरोध, रिश्तों के प्रति निष्ठा, सहजता ने मुझे उनकी कविता से जोड़ा है. कवि और कविता का उद्देस्य भी यहाँ स्पष्ट हो जाता है.
जब ’जानकीपुल’ जैसी महत्त्वपूर्ण ब्लॉग-पत्रिका की सिर्फ़ एक पोस्ट में वर्तनी की पचासों ग़लतियाँ हों, तो हम अन्य पत्रिकाओं और ब्लॉगों से भला क्या आशा रख सकते हैं। घोड़े इस पोस्ट में घोडे हैं और पहाड़ हैं पहाड। गढ़ते को गढते लिखा है। पोस्ट की अन्तिम पंक्ति में ’ हमारे भीतर करते हैं प्राण-प्रतीक्षा’ की जगह ’हमारे भीतर करते हैं प्राण प्रतिष्ठा’ होना चाहिए था। प्राण-प्रतीक्षा से तो अर्थ का अनर्थ हो गया।
वाह ।
behad aasan-sahaz shabd,gahri-sarthak abhiwyakti…..
स्वप्निल जी की कविताओं में समाया सहज प्रतिरोध, रिश्तों के प्रति निष्ठा, सहजता ने मुझे उनकी कविता से जोड़ा है. कवि और कविता का उद्देस्य भी यहाँ स्पष्ट हो जाता है.
जब ’जानकीपुल’ जैसी महत्त्वपूर्ण ब्लॉग-पत्रिका की सिर्फ़ एक पोस्ट में वर्तनी की पचासों ग़लतियाँ हों, तो हम अन्य पत्रिकाओं और ब्लॉगों से भला क्या आशा रख सकते हैं। घोड़े इस पोस्ट में घोडे हैं और पहाड़ हैं पहाड। गढ़ते को गढते लिखा है। पोस्ट की अन्तिम पंक्ति में ’ हमारे भीतर करते हैं प्राण-प्रतीक्षा’ की जगह ’हमारे भीतर करते हैं प्राण प्रतिष्ठा’ होना चाहिए था। प्राण-प्रतीक्षा से तो अर्थ का अनर्थ हो गया।