आलोचक संजीव कुमार इन दिनों किसी ‘सबलोग’ नामक पत्रिका में व्यंग्य का एक शानदार स्तम्भ लिखते हैं ‘खतावार’ नाम से. अब चूँकि वह पत्रिका कहीं दिखाई नहीं देती है इसलिए हमारा कर्त्तव्य बनता है कि अनूठी शैली में लिखे गए इन व्यंग्य लेखों को आप तक पहुंचाएं. यह नया है और कमाल का है- मॉडरेटर
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इस बार रामपदारथ भाई का फ़ोन आया तो बड़े नाराज़ थे. बोले, ‘अरे, हम तुमको दिमागी तौर पर ही दीवालिया समझते थे, पर तुम तो नैतिक रूप से भी दीवालिया निकले!’
‘क्या हो गया, पदारथ भाई?’ मैंने किसी बड़े ख़तरे को सूंघते हुए उनका मूड हल्का करना चाहा, ‘मैं न तो किसी स्कैम में फंसा हूँ, न ही सेक्सुअल हरास्स्मेंट केस में. मोदी को लेकर आपसे डिफ़रेंस ज़रूर है, पर वह तो राजनैतिक मामला है, नैतिक नहीं!’
‘छोड़ो-छोड़ो, डिफ़रेंस-फिफरेंस सब नौटंकी है.’ पदारथ भाई हमलावर हुए, ‘तुम हो घुन्ना! मेरे सामने उलटा-सुलटा बात कहके हमसे बोलवाते हो और हमरे बतवा लिख-लिखके लेखक कहलाते हो. साला, बात हमारा और लेखक तुम! ई किसी स्कैम से कम है का? हमको तो पते नहीं चलता अगर कंकरबाग वाले महतो जी ‘सबलोग’ मैग्जिन्वा नहीं दिखलाए होते!’
मैं समझ गया, आज शामत आई… पर शामत ही है, कोई क़यामत तो नहीं! मैंने बिखरते आत्मविश्वास को इकठ्ठा किया और उनका मूड हल्का करने की दुरभिसंधि में जुट गया, ‘देखिये पदारथ भाई, दिमागी तौर पर मैं दीवालिया हूँ, यह तो आप जानते ही हैं. अब लेखक कहलाने की हसरत अन्दर ठाठें मार रही है. तो जो लोग अपने हैं, उन्हीं के दिमाग की तिजोरी से माल मारूंगा ना! किसी पराये से कैसे मारूं, बताइये!’
‘अच्छा बेटा, त हम ई सोच के संतोष कर लें कि घी कहाँ गिरा, थालिये में न!… अब कान खोल के सुन लो, हम घी गिरने ही नहीं देंगे. हमारा बात लिख के जो तुम लेखक बनोगे, सो हमही काहे नहीं लेखक बन जाएँ? अब तुम कितनो छेड़ो, हम अपना अनमोल वचन बोलेंगे ही नहीं.’
इस बात गुस्सा न आना निर्वीर्य होने का प्रमाण था, सो मैंने आने दिया. थोड़े तैश में कहा, ‘ऐसा है सर जी, आपकी जिन बातों को मैं लिख मारता हूँ, उनका मज़ा तभी तक है जब तक वे एक कैरेक्टर के मुंह से निकलती हैं. आप भला खुद उन्हें कैसे लिखेंगे? अगर आप उन बातों को अखबार के अग्रलेख के रूप में लिखें तो यकीन मानिए, वे दो कौड़ी की ठहरेंगी. कोई छापने को राज़ी न होगा. ऐसा अछ्प्य लेखक बनने से तो अच्छा है, एक बिंदास कैरेक्टर बन कर ही लोगों के बीच रहिये… भाई जी, लेखन का कंटेंट अपने फॉर्म के साथ पैदा होता है. फॉर्म बदल दीजिये, सारा गुड़गोबर हो जाएगा.’
शायद तैश में आने का कुछ असर हुआ. पदारथ भाई नरम पड़े. बोले, ‘देखो, कंटेंट और फॉर्म, ई सब तो हम जानते नहीं हैं, लेकिन आईडिया हमारे पास है. लाओ कुछ नकद नारायण, तब हम आईडिया का उल्टी करेंगे, और का?’
‘नकद नारायण!’ मुझे हंसी आ गयी, ‘आज तक अपने किसी लिखे पर मुझे एक छदाम नहीं मिला, और आप कह रहे हैं कि…’
‘नहीं मिला त लिख काहे रहे हो? इससे तो अच्छा है, दीनानाथ बत्रा या आई सी एच आर वाले राव साहब का घोस्ट राईटर बन जाओ. १०८ बार भारतीय संस्कृति लिखोगे, उसीमें हज़ारों का कमाई हो जाएगा. और कुछ नहीं त एक ठो पुराण लिख मारो. अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना वाला लोग मालामाल कर देगा.’
‘पुराण?’ मैं चौंका.
‘हाँ भाई, पुराण!’ पदारथ भाई बोले, ‘इसमें चौंकने वाला कौन बात है! आर एस एस का पुरानान्तार्गत इतिहास वाला प्रोजेक्ट के बारे में सुने नहीं हो? अभी से लेके २०२५ तक, माने आर एस एस की सौवीं सालगिरह तक इस प्रोजेक्ट पर काम चलेगा और एक खांटी देसी इतिहास लिखा जाएगा. १०६ पुराण तो ऊ लोग उपरा चुका है. एक ठो तुम भी लिख के ठेल दो, फिर देखो मजा.’
‘लेकिन पदारथ भाई, पुराण आज के जमाने में कैसे लिखा जा सकता है?’
‘अरे आज के ज़माना में नहीं लिखा जा सकता है त पुराना ज़माना में चले जाओ, और का! लगता है, तुम दूधनाथ सिंह वाला ‘आख़िरी कलाम’ नहीं पढ़े हो.’
‘वो पुराण शैली में लिखा हुआ है?’
‘अरे नहीं मरदे! उसमें एक जगह पुराण लिखने का भेद बताया है. कैसे साला मल को भी कमल ठहराया जा सकता है! उसमें एक ठो महंथ है, एकदम जब्बर राजा स्टाइल में रहने वाला. जिस गुरु से ई पूरा ठाठ बाट मिला है, उसको याद करके बार बार रोने लगता है. सच्चाई है कि गुरुआ का मर्डर ऊ खुद किया है. लेकिन कहता है कि गुरु तो सनातन हैं, अजर-अमर हैं, वे सिर्फ अलोप हुए हैं. उनकी अलोप-कथा को मह्न्थवा एक नया पुराण कहता है जिसको ऊ रचने जा रहा है. ‘रचूंगा ज़रूर, कभी फुर्सत से. इसी तरह गुरु-ऋण से उऋण हो पाऊंगा.’ अब अलोप-कथा क्या है? सुनो, उपन्यास में से ही सुना रहे हैं : बहराइच में हमारा एक मठ है. पुरानी माफी है हज़ार बीघे की. तब हम वहीं रहते थे. हम अक्सर कहते थे, ‘गुरु जी, जर-जमीन बहुत बड़ा टंटा है. गेरुआ पहने अक्सर कचहरी के चक्कर लगाने पड़ते हैं. तप में बाधा पड़ती है. छोड़िये सब, चलकर साकेतधाम में निवास करें या फिर रक्षार्थ हथियार उठाने की आज्ञा दीजिये.’ हमारे गुरुदेव इस पर कहते थे, ‘अचेतानंद, हथियार खुद को मारता है. उसे कभी पास न रखो. वह आत्मवध का प्रतीक है. और मारनेवाला तो हमेशा अदृश्य रहता है. वह कब प्रकट होगा, तुम नहीं जानते. फिर भी मेरे बाल-हठ पर वे मान गए और इजाज़त दे दी. तब से यह साथ है. (पास में रखा हुआ बंदूकवा के बारे में कह रहा है.) कितना पछताता हूँ, अगर उस दिन भी साथ होती. लेकिन जल्दी-जल्दी में बिसर गया. हमारे गुरु को खुले में निबटने की आदत थी. वे निकलते तो मैं पीछे-पीछे जल-पात्र लिए चलता और मुंह फेर कर खड़ा हो जाता. उस दिन भी वैसे ही खड़ा रहा और प्रतीक्षा करता रहा कि मेरे गुरु की गहन गुरुवाणी सुनाई पड़ेगी, ‘लाओ.’ लेकिन तभी में क्या सुनता हूँ कि गुरु सिंह की गर्जना में हँसे. मैंने पलट कर देखा तो मेरी घिग्घी बंध गयी. क्या देखा मैंने? अजगुत… अभूतपूर्व! मैंने देखा, मेरे गुरु सुनहरी अयालोंवाले सिंह पर सवार हैं और सिंह हंस रहा है. मेरे गुरु मुड़कर देख रहे हैं और वे भी हँसते जा रहे हैं, हँसते जा रहे हैं. मेरा मुंह जो खुला तो बंद होने का नाम ही न ले. फिर मैं एकाएक धाड़ मारकर रो पड़ा. रोते-रोते चिल्लाने लगा, ‘लौट आइये गुरुदेव, लौट आइये.’ तब गुरुदेव की वाणी की जगह सिंह की वाणी सुनाई पड़ी, ‘यह जो महात्मा मेरी पीठ पर सवार हैं, तुम उनके उत्तराधिकारी हो.’ मैं फिर चिल्लाया, ‘लौट आइये गुरुदेव!’ लेकिन वे नेपाल, भूटान फिर तिब्बत होते हुए अन्तरिक्ष में अलोप हो गए. उनकी छवि एकाएक मिट गयी और सर्वत्र अन्धकार छा गया. तबसे यह अंधकारग्रस्त मन लिए मैं इस नश्वर संसार में भटक रहा हूँ.’
अंश पढ़ कर सुनाने के बाद पदारथ भाई ने आधे मिनट का पॉज़ लिया. फिर पूछा, ‘मामला समझ रहे हो ना?’
‘जितना दिमाग है, उतने भर तो समझ रहा हूँ.’
‘अब ज़्यादा दिमाग लगा के बेसी सवाल-उवाल खड़ा मत करना. काहे कि गुरु का कोप चढ़ गया त खड़े-खड़े टें बोल जाओगे. अचेतानंद का आदेश था अपने सैनिकवन सब को कि यही अलोप-कथा सबको बताना है. फिर एक दिन क्या हुआ, सुनो : एक बाल-जिज्ञासु आया. बारादरी पर तैनात रक्षक ने पूछा, ‘कैसे आये?’ उसने पूछा, ‘स्वामी दिव्यानंद जी का स्वर्गवास कैसे हुआ?’ रक्षक ने डांटा कि स्वर्गवास नहीं हुआ और सविस्तार बखान दिया. बाल-जिज्ञासु ने कहा, ‘यह हो नहीं सकता.’ बस फिर क्या था! वह गली में ही मूर्छित हो गया. पुलिस उसे टांग कर ले गयी और चार दिन बाद उसकी मृत्यु हो गयी. मेरे गुरु की अलोप-कथा पर उसने शंका की, उसी का यह फल था. मेरे गुरु का कोप चढ़ बैठा. अब सोचो, इसी स्टाइल में अगर भाजपाइयों के हर लौकिक खून-खच्चर को अलौकिक शक्तियों के वरदान-अभिशाप में बदल दिया जाए त नया पुराण बन जाएगा कि नहीं! मल का कमल में रूपांतरण! शुरू करो ‘एकदा-आर्यावर्ते-कच्छ-सौराष्ट्र-प्रान्ते-हर-हर-मोदी:-नाम्नी-अवतारस्य-शासनान्तार्गते’ से, और फिर विस्तार से बताओ कि कैसे रामभक्तों के प्रति बुरे भाव रखने वाले मलेच्छों की एक-के-बाद-एक मृत्यु होती गयी, महामारी सी फैल गयी – मियांमारी नहीं, महामारी – फिर कैसे सबको रामभक्ति का माहात्म्य समझ में आया और हर हर मोदी नामक अवतार को अभूतपूर्व स्वीकृति मिली और कालान्तर में वह सम्पूर्ण आर्यावर्त का हृदय-सम्राट बना. बेटा, अभी भी कह रहे हैं, ऊल-जलूल लिखना छोड़ के पुराणकार बन जाओ. भगवत्कृपा से सात पुश्त बैठ के खायेगा.’
कहने के बाद पदारथ भाई क्षण भर को ठहरे. फिर बोले, ‘लेकिन हमको पता है, तुम साला ऊल-जलूल लिखने से बाज नहीं आओगे. भगवत्कोप के शिकार हो जाओ त हमको मत कहना.’ कह कर पदारथ भाई ने फ़ोन रख दिया और मैंने मन-ही-मन उन्हें धन्यवाद दिया कि गुरु ने बिना जताये-बताये ऊल-जलूल की एक और खेप मुहैया करा दी. जय हो पुराणकार गुरुदेव आचार्य रामपदारथ शास्त्री की!
Sanjeev Jee Ke Lekhan Ka Yah Roop Chaukata To Hai Hi Sath Hi Hamare Sahityik Samay Ka Tapman Bhi Batata Hai.
चुटीली से चुटीली बात को इतने रोचक ढंग से कैसे कहा जाता है…उसका एक सशक्त और मजेदार उदाहरण है ये…| बधाई संजीव जी को…और आपका आभार इसे पढवाने के लिए…|