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विजयदान देथा के आखिरी दिन और ‘बोरुंदा डायरी’

बोरुंदा क़स्बा है या गाँव, उसकी पहचान विजयदान देथा से थी. हिंदी-राजस्थानी के लेखक मालचंद तिवाड़ी विजयदान देथा के आखिरी बरसों में उनके साथ लेखक-अनुवादक के रूप में जुड़े हुए थे. ‘बोरुंदा डायरी’ उन्हीं दिनों लिखी गई. भाषा में राजस्थानी समाज का रूपक गढ़ने वाले विजयदान देथा के आखिरी दिनों का एक मार्मिक दस्तावेज पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ. यकीन मानिए साल के इन आखिरी बचे महीनों में आई यह एक उल्लेखनीय पुस्तक है जिसे पढ़ते हुए इस मौसम की बारीक ठंढ से आने वाली कंपकंपी कभी कभी शरीर में चिनक जाती है. आप भी पढ़िए एक मार्मिक अंश. मैं पुस्तक पढ़ रहा हूँ- प्रभात रंजन 
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यह डायरी बिज्जी विजयदान देथा और उनके द्वारा रचे समाज का, उनके लिखे और उसके पाठक का, उनकी विचारधारा और उसके अन्य के बीच एक अनोखे प्रेम सम्बन्ध का वृत्तान्त है। यह बिज्जी के लेखन का, उसके भारतीय और विश्व साहित्य में एक बिरली संघटना होने का एक दस्तावेज़ है और इसके लिए हमें उनके अनन्य-अन्य का, ‘जी-सा के इस विपथगामी पुत्र-अनुयायी मालचन्द तिवाड़ी का मन से कृतज्ञ होना चाहिए।?
गिरिराज किराडू
बोरुंदा डायरी के कुछ पन्ने

29 सितंबर, 2013

हमारा गम कुछ और है मित्रो!

फुलवाड़ीका तेरहवां भाग अनुवाद के अपने अंतिम चरण में आ पहुंचा है। कोई चार-पांच छोटी कहानियां और एक थोड़ी लंबी कथा अकल रौ कांमणबची है। आज बिज्जी ने मुझे एक बार भी याद नहीं किया। सुरेश से पूछा था मैंने। उसने बताया कि वे अपने कई परिजनों, जिनके साथ उनका बरसों से विग्रह चलता आया है, के नाम अनेक कलह-संदर्भों में कल रात बार-बार लेते रहे। उनकी स्मृति उनके साथ खिलवाड़ कर रही है। बिज्जी धीरे-धीरे अपने प्रयाण-बिंदु की ओर बढ़ रहे हैं। वहां पहुंचकर राजस्थानी के निस्सीम नभ का यह गरुड़-पाखी किसी अदीठ देश में उड़ विलीन होगा। बिज्जी के अनेक नायक पछतावे के क्षणों में, लज्जा के क्षणों में, पराजय के क्षणों में, अक्सर एक ऐसे ही अदीठ देश की कामना करते हैं कि वहां चले जाएं। वे अपने देश-काल को मुंह दिखाने के काबिल नहीं!
आज भी पूरा दिन कल की तरह रवींद्र-उल्लिखित एक बंगाली छड़े’ (शिशु-गीत) की तर्ज पर बीता—’बिस्टी पोड़े टापुर-टुपुर!बांग्ला की इस द्विध्वनि को सुनिए तो जराटापुर-टुपुर! क्या बारिश की एक गति विशेष का ठीक यही स्वर नहीं होता? वह हमारे कानों में क्या इसी शब्द में नहीं बजती?
आज बिज्जी की एक और अद्भुत कहानी का अनुवाद किया—’गम बड़ी रे भाई गम बड़ी!यह विचित्र है कि उर्दू का सर्वप्रिय शब्द गमराजस्थानी में भी है, लेकिन स्त्रीलिंग में। उर्दू में, उर्दू की शायरी में इस शब्द ने क्या-क्या जलवे नहीं ढाए! गालिब ने कहाकैद-ए-हयात या बंदो-गम असल में दोनों एक हैं / मौत से पहले आदमी गम से नजात पाए क्यों! एक आधुनिक उर्दू कवि फैज़ अहमद फैज़ का भाषायी अमल देखिए कि उर्दू गज़ल में अर्द्धविराम या कॉमा नामक पंक्ज्युएशन का वे कैसा इस्तेमाल कर रहे हैं‘गमे-हयात हो रुखे-यार हो या दस्ते-अदू / सलूक जिससे किया हमने आशिकाना किया!’

और हमारे बिज्जी ने अपनी कहानी का अंत कुछ ऐसे किया है :

वक्त के साथ किसी करिश्मे से राई के बराबर बीज भी घेर-घुमेर छतनार वट-वृक्ष बन जाता है। इसी भांति सेठजी की हवेली के तीनों बालक भी कें-कें रोते-रोते गबरू जवान हो गए। और गाजों-बाजों के साथ वक्त अनुसार तीनों के ब्याह भी हुए। सेठानी का रूप भी यौवन ढलने के साथ-साथ ढलता गया। सेठजी की तोंद भी साठ पार ढलने को आई। तीनों ही बालकों के ब्याह में खूब धमा-चौकड़ी मची और हवेली के चौक में डंका-दर-डंका पर पांच-पांच ढोल बजते रहे। सेठ-सेठानी के होंठ तो अबोले थे, पर अंतस के परदों पर इन ढोलों की प्रतिगूंज सुनाई पड़ती रहीगम बड़ी रे भाई गम बड़ी…गम के बाजे ढोल!

है न अद्भुत! यह कहानी पढ़ेंगे तो उर्दू वाले जान जाएंगे कि हम उनके गमको किस अर्थ में इस्तेमाल करते हैं और वह उनके गमसे कितना गुरुतर है। हमारे यहां वह उतना हल्का नहीं कि उसको कोई आनंद बख्शी यों बरत सके : हमको भी गम ने मारा, तुमको भी गम ने मारा, इस गम को मार डालो!

हमारा गम कुछ और है मित्रो! वह मारने की नहीं, संजोने की चीज़ है।

पुनश्च :

बिज्जी की आवाजें सुनाई दे रही हैं। असहाय पुकारें। निर्मल, उनकी सर्वाधिक अनथक और आत्मीय देखभाल करने वाला उनका पोता, कल जयपुर चला गया। चिमनारामजी के पैर में मुड़पड़ी है; वे आ नहीं रहे। सुरेश प्रजापत रात को रहता है, पर पिछले दो दिनों से चिमनारामजी का एवजी होकर दिन को भी आ रहा है और रात को भी। असल में सुरेश महेंद्र बाबू के विशद पैमाने के महिला शिक्षणालय के अंतर्गत चलने वाले लड़कियों के छात्रावासों के बड़े रसोवड़ेका कुक है। वह इसके अलावा कोई भी काम मात्र अतिरिक्त धनोपार्जन के लिए करता है और उसके कुकमें और व्यक्ति-मनोविज्ञान में भी एक आरआ धंसता है, वह कुकसे क्रुकबन जाता है। यही तो है मेटामोर्फोसिस’, कायान्तरण, जिसका भूतो न भविष्यतिअंकन फ्रैंज काफ्का ने अपनी इसी शीर्षक की एक कहानी में किया है। पर बिज्जी तो हर पांच-सात मिनट के अंतराल से पुकारे चले जा रहे हैं, ”सरल! सरल! सरल!

सरल निर्मल का बड़ा भाई है, पर वह अपनी तरह का ही सरल है, जो वक्र को भी तपस्या करने हिमालय भेज दे! अस्तु, बस अगले किसी भी क्षण मेरे कमरे, मेरी टेबल तक उनकी बुलाहट सुनाई पड़ सकती है, ‘सरल!और यह भी विचित्र है कि बिज्जी उस ध्वनि-सतह पर बोलने में प्राय: एकदम असमर्थ हो गए हैं जिसे हम बातचीत का, परस्पर संवाद का या पास-पास बैठकर बतकही करने का स्तर कह सकते हैं, लेकिन आवाज देकर पुकारने के मामले में उनके गले में अभी खासा जोर बाकी है!

आज इस भीगे-भीगे गिजगिजे दिन में काम तो किया लेकिन काम की सुगंध को इस भारी-भरकम नमी ने मानो फैलने-पसरने-इतराने का कोई परिसर नहीं दिया। कोई साढ़े बारह बजे का किस्सा है। लेकिन उससे पहले डॉ. भीमदानजी।

कोई दस बजे के करीब, जबकि मैं अखबार-वाचन से निवृत्त हुआ, मुझे इस घर-परिसर में उनकी एक झलक दिखाई पड़ी। उनके साथ एक-दो लोग और भी थे। मैं जिज्ञासावश अपने कक्ष के द्वार पर गया। तीन लोग थे। एक भीमदानजी, दूसरे किंचित् स्थूलकाय नील-शर्टधारी सज्जन और तीसरा पट्टियोंदार टीशर्टनुमा कुछ पहने एक नौजवान। अपनी टहनी जैसी पतली और लचीली काया के किसी आगे-पीछे में डॉक्टर साहब की नजर मुझ पर पड़ गई। वे शेष दोनों सज्जनों को लौटाकर मेरे कमरे में लाए, स्मृतिदोष के मत्थे दोष मढ़ते हुए।

पतलून में बिना बेल्ट के शर्ट इन्सर्ट किए रखने वाले लोग मुझे असहनीय रूप से बेशऊर लगते हैं। पर वे बिज्जी के परिवार की किसी भगिनी कन्या के पतिदेव थे, सो मुझे उनका परिचय डॉक्टर साहब द्वारा दिए जाते ही अपना रुख बदलना पड़ा।

वाह साहब, बड़ा अच्छा साहित्यिक कार्य हो रहा है…!ऐसे जुमले बोलकर वे खड़े हो गए, तो मुझे राहत मिली।

अलबत्ता, मेरे कमरे की सीढिय़ां उतरते डॉ. भीमदान देथा से मैंने आग्रह किया, ”डॉक्टर साहब, एक-एक प्याली चाय तो मेरे साथ पीते जाते!

वह तकरीबन साढ़े बारह बजे वाला किस्सा शायद कल दर्ज करूं।

डॉ. भीमदान देथा को असल में मैं कई दिनों से याद कर रहा था। उन्होंने ही मुझे अपने पुराने रोग साइनोसाइटसका इलाज कराने दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल के ENT Endoscopic शल्य चिकित्सक डॉ. देवेंद्र राय के पास भेजा था। डॉ. भीमदानजी ने जोर देकर कहा था कि  आप इसका इलाज करवा लें…क्योंकि यह ज्यादा बिगडऩे पर
 
      

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4 comments

  1. इस बिदा गीत को जल्दी ही पढूंगी . बिज्जी साहित्य के एन्साइक्लोपीडिया थे . जानकीपुल आभार इस पोस्ट के लिए .

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