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पड़ोसी की इमारत और कल्लन ख़ालू का दुख

सदफ नाज़ के व्यंग्य की अपनी ख़ास शैली है. व्यंग्य चाहे सियासी हो, चाहे इस तरह का सामाजिक- उनकी भाषा, उनकी शैली अलग से ही नजर आ जाती है. आप भी पढ़िए और बताइए- मॉडरेटर 
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हमारी मुंह-भोली पड़ोसन पिछले दिनों हमारे घर आईं तो काफी दुखी लग रही थीं। मुंह भी सूजा हुआ था। मालूम हुआ कि बिचारी हल्के डिप्रेशन और मौसमी तबियत की नासाजी से गुजर रही हैं। लेकिन दो समोसे एक पेस्ट्री और चाय के साथ जल्द ही उन्होंने दिल का असली अहवाल सुना डाला। पड़ोसन के दुख और तबियत की नासाजी की वजह उनकी फेवरेट ननद का सरप्राईज था। हुआ यूं कि पड़ोसन ने एक फैमिली फंक्शन के लिए लेटेस्ट डिजाइन वाले गोल्ड के नेकलेस और झुमके खरीदे थे। बिचारी मन ही मन खुश थीं कि फंक्शन के दिन पूरा इंप्रेशन जमेगा। कई तो जल-जल मरेंगी। लेकिन उनकी खुशी पर उस वक्त पानी फिर गया जब उन्हें मालूम हुआ कि उनकी फेवरेट ननद ने भी उसी फंक्शन के लिए डाइमंड के झुमके और नेकलेस खरीदे हैं। अब बिचारी पड़ोसन का ग़मज़दा होना लाज़िमी है क्योंकि कमबख़्त डायमंड के आगे उनके गोल्ड ज्वेलरी से कौन इंप्रेस होगा?

हमें दुखी करने के लिए हमारी सोसायटी में ऐसे हादसात होते ही रहते हैं। बात ऐसी है कि हम इंसान इतने रहमदिल हैं कि हमेशा ही दूसरों की ख़ातिर ग़मज़दा रहते हैं। हम अपने बैंक बैलेंस-आमदनी और जिंदगी से तब तक खुश नहीं होते जब तक कि यह साबित न हो जाए कि हमारे कलिग-पड़ोसी-रिश्तेदार के मुकाबले हमारा पलड़ा भारी है। ख़ुदा ना ख़ास्ता पड़ला हल्का हो गया तो दिल का दर्द बढ़ जाता है। साइंसदान भी मानते हैं कि ये हम इंसानों की पुश्तैनी(जैविक) आदत है कि हम हर चीज को दूसरों से मुआज़नह (तुलना) करने के बाद ही खुद की हैसियत-पैसे-हालात की सही-सही कीमत आंक पाते हैं। हमारी जुब्बा ख़ाला भी कहती हैं कि  इंसान अजीबुल फितरत (अलग प्रकृति)होता है, इसे अपने दुख और कमियां तो बर्दाश्त होती हैं, लेकिन दूसरों की ख़ूबीयां और खूशी बिलकुल भी नहीं!’

अगर जुब्बा ख़ाला पर आपको शक है तो आप खुद ही इसकी बानगी देखिए कि अक्सर बरसों तक बिना तरक्की के भी खुश-ख़र्गोश के मज़े लूटने वाले लोगों को जैसे ही पता चलता है कि उनके कलिग की तरक्की हुई है; बिचारों की सारी खुशी छू हो जाती है। और दुखी दिल से कैलकुलेशन करने लगते हैं, कि ओ……. फलां तो बॉस का चमचा रहा है, ढिमका ने जरूर तरक्की के लिए कोई जुगत लगाई होगी वगैरह-वगैरह! वैसे इस मामले में हमारी सोसायटी की मोहतरमाओं का हाल तो आप पूछिए ही मत! ये बिचारियां तो अपने नाज़ुक कांधो पर दूसरों के ही दुख उठाए फिरती हैं। इनकी पंसदीदा बीमारियां मसलन हल्का डिप्रेशन, हेडेक, मौसमी तबियत की नासाजी, मूड में फ़्लक्चुएशन और इस किस्म की जितनी भी बीमारियां हैं. अक्सर ननद, भाभी, देवरानी, जिठानी, सास, पड़ोसिन यहां तक कि दिलअज़ीज़ सहेलियों के दुख में ही वारिद होती हैं।यूं भी आप माने या ना माने दर्द भरे दिल से हमारा माशरा(समाज) भरा पड़ा है। किसी को इसकी खुशी से दुख है तो किसी को उसकी खुशी से दुख है!

 आप खुद ही देखें कि किसी का बच्चा अगर अपने हालात और सिचुएशन के मुताबिक जिंदगी में ठीक-ठाक जा रहा है, तो उनके मां-बाप इसकी खुशी मनाने की जगह, पड़ोसी-रिश्तेदार के बच्चों की कामयाबी का दुख मनाने में बिज़ी रहते हैं। आप कल्लन खालू का ही किस्सा लें बिचारे खालू ने बड़े चाव से बरसों की जमापुंजी लगा कर शानदार घर तैयार करवाया था। लेकिन उनके पड़ोसी ने उनसे भी ऊंची और शानदार इमारत तैयार करवाई। अब अपने घर की खुशी मनाने की बजाए बिचारे कल्लन खालू सुबह शाम अपनी बॉलकनी में लटके पड़ोसी की इमारत देख-देख चाय के साथ दुख के घूंट पीते रहते हैं। उनकी मिसेज ने इस साखिए को दिल और रेपोटेशन पर इतना ले लिया कि उन्हें मूड डिसआर्डर का मर्ज़ हो गया है। बिचारी दुखी रहती हैं कि निगोड़ी पड़ोसन ने उनके घर में ताक-झांक कर उनके जतन से मंगवाए यूनीक स्वीच बोर्ड और टाईल्स के डिज़ाइन का आइडिया चोरी कर हूबहू अपने घऱ में लगवा लिया है। ख़ाला का बस नही चलता है कि वो अपनी कमबख़्त पड़ोसन पर कॉपीराईट-पेटेंट जैसे जो भी कानून हैं, उनके वाएलेशन का दो-चार मुकदमा ठोंक दें। बिचारी अपने घर की शान और यूनिकनेस ख़त्म होने के ग़म से उबर ही नहीं पा रही हैं। वैसे कहीं आप भी तो उन लोगों में शामिल नहीं जो कलिग के प्रोमोशन देख ट्रेजडी किंग की तरह एक्ट करते हैं और पड़ोसी नए मॉडल की कार खरीदे तो इनकम टैक्स ऑफिसर की तरह रिएक्ट करते हैं ?
खुशबाश!

 
      

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9 comments

  1. नहीं बिलकुल नहीं, मैं वैसा नहीं हूँ ।
    मुझे तो अपने पड़ोसी के डिमोशन, नुकसान या तकलीफ में जी भर कर मजा आता है बस,
    फिर चटखारे लेकर मुझसे टक्कर लेने के हस्र के किस्से बयां करने का लुत्फ हीं कुछ और होता है।

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