मेरे हमनाम हैं प्रभात रंजन. कल उन्होंने ‘तहलका’ में लिखी शुभम उपाध्याय की लिखी हैदर फिल्म की समीक्षा साझा की. लिखने का अंदाज अच्छा लगा तो साझा कर रहा हूँ- प्रभात रंजन
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‘हैदर’ गोल-गोल कंटीली बाड़ों से हर तरफ लिपटा हुआ एक इंद्रधनुष है. वे कंटीले तार जो उन शहरों में बिछते हैं जिन्हें आर्मी अपना घर बना लेती है. कश्मीर में. हर तरफ. फिल्म के पास हर वो रंग है जो जिंदगी के साथ आता है, लेकिन क्योंकि कश्मीर है, त्रासदी की कंटीली तारों से झांकने को हर वो रंग मजबूर है. वो फिर भी खूबसूरत है, रिसता है, बदले की बात करता है, खून के छींटे उछालता है, मगर खालिस सच दिखाता है.
फिल्म के पास क्या नहीं है. कब्रों को खोदते फावड़ों का शोर, कब्रों को दड़बे बनाने का हुनर, झेलम की रक्तरंजित गाथा, श्रापित इंसानियत, और सच दिखाने का साहस. हैदर का साहस देखिए, पागलपन को जो आवाजें राष्ट्रभक्ति कहती हैं उन्हीं की दुनिया में वो बन रही है, हमें उधेड़ रही है, कुरेद रही है. वो फिल्म के रूप में भी उत्कृष्ट है और जो बात कहना चाहती है उसमें भी गजब की ईमानदार. वो कभी जिंदगी की खाल खींचती है कभी खींची खाल वापस लगाकर सहलाती है. वापस खींचने के लिए उसे फिर तैयार करती है.
मगर आप हेमलेट से तुलनात्मक अध्ययन करके हैदर का मजा मत खराब करिएगा. विशाल पर विश्वास करिएगा. वे हैं तो शेक्सपियर को भी थोड़ा बदलेंगे ही, और नया कुछ कहेंगे ही. हैदर के लिए उनके पास हेमलेट भी था और बशारत पीर भी. और उनकी किताब ‘कर्फ्यूड नाइट’ भी. किताब के बशारत पीर के निजी अनुभवों को फिक्शन के साथ जोड़ने की विशाल की अद्भुत कला ने ही फिल्म को दुर्लभ दृश्य भी दिए हैं. आइडेंटिटी कार्ड लेकर परेड करने का दृश्य हो या एक स्कूल में बना इंटेरोगेशन सेंटर. एक बार जब विशाल कश्मीरी जिंदगियों की नब्ज पकड़ लेते हैं, तब हेमलेट को लाते हैं. शाहिद कपूर को लाते हैं. फिल्म के शुरूआत में शाहिद को किरदार हो जाने में जो कसमसाहट होती है, साफ दिखती है. मगर धीरे-धीरे जब वे रवां होते हैं, क्या खूब अभिनय करते हैं. लाल चौक पर वो अभिनय के सर्वोत्तम मुकाम को छूते हैं,‘टू बी और नाट टू बी’ को हिंदी आत्मा देते गुलजार के शब्दों का शरीर हो जाते हैं, और ‘बिसमिल’ में हमें बताते हैं कि अगर चाहो तो नृत्य भी अभिनय हो सकता है. लेकिन अभिनय जब साक्षात दर्शन देता है, समझ लें वो के के मेनन के रूप में आता है. उन्होंने अपनी नसों में भर के हैदर के चाचा का किरदार जिया है. और वे सर्वश्रेष्ठ होते अगर फिल्म में तब्बू नहीं होतीं.
फिल्म जहां-जहां धीमी होती है, हेमलेट से न्याय करने के चक्कर में, वहां भी उसके पास तब्बू हैं जिनका सिर्फ चेहरा ही अभिनय की पाठशाला है यहां. यही चेहरा कश्मीर की सारी बेवाओं, सारी ब्याहताओं के दर्द को सामने लाने का बीड़ा उठाता है. या शायद आधी बेवाओं और आधी ब्याहताओं का. हैदर और उसकी मां के रिश्ते को जिस साहस से विशाल परदा देते हैं, हमारे सिनेमा में ऐसी हिम्मत इससे पहले कभी नहीं रही. इसके अलावा इरफान खान हैं, जिनकी राकस्टार एंट्री दिलचस्पी बढ़ाती है. बेहद छोटे रोल में कुलभूषण खरबंदा हैं, एक जरूरी संवाद के साथ, जिसे सुना जाना चाहिए. और भुलाये जा चुके नरेंद्र झा हैं, हैदर के पिता, जिनके ईमानदार अभिनय को देखकर अच्छा लगता है. बहुत अच्छा.
कुछ चीजों की तलब जरूरी है. इसलिए हैदर देखिए. बशारत पीर की किताब पढ़िए. ठंड आने से पहले कुछ तो समझदार काम करिए.
बेमिसाल फिल्म
हैदर को देखने के लिये यों तो विशाल भारद्वाज शाहिद कपूर का नाम काफी था लेकिन इस समीक्षा को पढ़कर तो न देखने का सवाल ही नही है ।
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