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क्या है जर्मन-संस्कृत विवाद?

केन्द्रीय सेवाओं में हिंदी के उचित महत्व के मुद्दे पर प्रेमपाल शर्मा के तर्कों के हम सब कायल रहे हैं. केन्द्रीय विद्यालयों में जब जर्मन भाषा के स्थान पर संस्कृत पढ़ाने का मसला आया तो यह जरूरी लगा कि त्रिभाषा फ़ॉर्मूला और विदेशी भाषाओं के सन्दर्भ को समझा जाए. देखिये, कितने विद्वत्तापूर्ण ढंग से प्रेमपाल जी ने भारतीय भाषाओं के पक्ष इमं अपने तर्कों को रखा है. मैं भारतीय भाषा के इस कमांडर को सलाम करता हूँ. आप यह लेख पढ़िए- प्रभात रंजन 
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      केन्‍द्रीय विद्यालयों में मौजूदा जर्मन भाषा की जगह संस्‍कृत पढ़ाए जाने का विवाद तूल पकड़ता जा रहा है। देश की मौजूदा भाषा और शिक्षा नीति के संदर्भ में यह अच्‍छा ही हुआ क्‍योंकि इससे कई सबक सीखे जा सकते हैं। पूरे विमर्श में सत्‍ता, संस्‍कृति और समाज की कई दरारें भी झॉंकती हैं। देश में लगभग ग्‍यारह सौ केन्‍द्रीय विद्यालय हैं जि‍समें अस्‍सी हजार छात्र पढ़ते हैं। इनमें से सत्‍तर हजार  तीसरी भाषा के रूप में छठी से आठवीं तक जर्मन भाषा पढ़ रहे हैं। जर्मन पढ़ाने का फैसला 2011 में हुआ था। यह क्‍यों और किन परिस्थितियों में हुआ इसके लिए एक समिति का गठन किया गया है।  लेकिन क्‍या ऐसे फैसले हमारी शिक्षा व्‍यवस्‍था में उस राष्‍ट्रीय भाषा नीति के खिलाफ नहीं है जिसकी सिफारिश पहली बार कोठारी आयोग ने 1964-66 की अपनी रिपोर्ट में की थी और इसे फिर 1986 की शिक्षा नीति और 2005 की शिक्षा नीति में भी दोहराया गया। जाने मानेशिक्षाविद, वैज्ञानिक, प्रशासक डॉ. दौलतसिंह कोठारी ने उपशीर्षक नयी भाषा नीति में त्रिभाषा सूत्र की सिफारिश की थी । यानि एक मातृभाषा दूसरी अंग्रेजी जो बाकी दुनिया से जुड़ने का माध्‍यम और तीसरी कोई और प्रादेशिक भाषा जैसे उत्‍तर भारत के लिए कोई दक्षिण की और दक्षिण के लिए हिन्‍दी। अपनी सिफारिश में उन्‍होंने यह भी कहा था कि राष्‍ट्रीय स्‍तर पर सम्‍पर्क भाषा के रूप में हिंदी को बढ़ावा दिया जाए तथा गैर-हिंदी क्षेत्रों में हिंदी हो जिससे कि‍ भारत की सभी राष्‍ट्रीय भाषाएं परस्‍पर नजदीक आएं।

फिर किन कारणों से त्रिभाषा सूत्र में दो विदेशी भाषाएं अंग्रेजी और जर्मनी आ गई? और जब तीन वर्ष का अनुबंध सितंबर 2014 में समाप्‍त हो रहा है तो इतना बवाल क्‍यों? दूसरी दरार उस मध्‍यवर्गीय मानसिकता की । केंद्रीय विद्यालयों में पढ़ने वाले ज्‍यादातर बच्‍चे उन सरकारी कर्मचारियों के होते हैं जिनका जगह-जगह स्‍थानांतरण होता है। ये अमीर वर्ग तो नहीं लेकिन देश की मौजूदा गरीबी को देखते हुए अच्‍छा खासा खाया-पीया है। यही कारण है कि‍ इनमें से नब्‍बे प्रतिशत ने भारतीय भाषाएं सीखने के बजाए अंग्रेजी के साथ-साथ जर्मनी सीखना शुरू किया। इसके कुछ कारण यह भी हो सकते हैं कि जर्मनी, जापानी या दूसरी भाषाओं में लोकप्रिय और संख्‍या बढ़ाने के प्रयोजन से नंबर खूब लुटाए जाते हैं। कुछ नंबरों की होड़ और उसके बाद आसानी से विदेश भागने की दौड़ का लालच बच्‍चों की मानसिकता पर ऐसा असर डाल रहा है कि उनके लिये न ये देश ठीक, न इसकी भाषा। दुहाई तो यह वर्ग धर्म, संस्‍कृति के नाम पर संस्‍कृ‍त, पाली सबकी देता है लेकिन खुशामद कर करके दुतकारे जाने पर भी दाखिला अंग्रेजी स्‍कूलों में ही लेता है। सत्‍ता भी प्रकारांतर से इसमें मदद करती है। जिस सरकार ने 2011 में संघ लोक सेवा परीक्षा की सिविल सेवा परीक्षा के सीसैट में भारतीय भाषाओं के ऊपर अंग्रेजी लाद दी उसी ने न जाने किन प्रलोभनों में केंद्रीय विद्यालयों में जर्मनी की शुरूआत करा दी। आश्‍चर्य की बात कि इसकी किसी को कानो कान भनक भी नहीं पड़ी । हो सकता है यदि इसकी जगह संस्‍कृ‍त या दूसरी देसी भाषा अनिवार्य की जाती तो शायद देश में कोहराम मच जाता। यह है हमारे बुद्धिजीवी विमर्श की एक और दरार।

महात्‍मा गांधी, रवीन्‍द्र नाथ टेगौर से लेकर दुनियाभर के शिक्षाविद शिक्षा और समझ के लिए अपनी भाषाओं की वकालत करती रहे हैं। ऐसा नहीं कि वे विदेशी भाषाओं के खिलाफ थे। गांधी जी का कहना था कि विदेशी भाषा एक खिड़की की तरह है और ज्ञान जहां से भी आ सकता हो उसे आने देना चाहिए। ज्ञान और समझ के बारे में सभी इस बात से सहमत हैं कि जितनी भाषाएं हैं उतने ही विस्‍तृत ज्ञान। इसलिये अंग्रेजी या जर्मनी सीखना कोई गलत नहीं गलत है उसका असमय बच्‍चों पर लाद देना। प्रोफेसर यशपाल ने 1992 में बस्‍ते के बोझ की अपनी प्रसिद्ध रिपोर्ट में किताबों और परीक्षा के दबाव की बात कही थी। उसमें भी यदि देखा जाए तो जितना वजन अंग्रेजी सीखाने का होता है जिसकी वजह से अधिकांश बच्‍चे स्‍कूल छोड़ देते हैं उतना किसी और विषय का नहीं। कम से कम हिंदी पट्टी के राज्‍यों के सर्वेक्षणों से यह बात बार-बार जाहिर होती है कि अंग्रेजी सीखना उसके लिए कितना मुश्किल, समझ विरोधी है। अब इसमें एक और जर्मनी भाषा भी लाद दी जाए तो आप समझ सकते हैं बस्‍ते का वजन कितना बढ़ जाएगा।

एक और महत्‍वपूर्ण पक्ष भाषा की उपयोगिता और बच्‍चे के विकास का है। क्या सिर्फ नंबरों की होड़ के लिए संस्‍कृत अथवा जर्मनी पढ़ी जाए? या क्‍या इसकी रोजाना की जिंदगी में भी कोई प्रासंगिकता है? इस कसौटी पर दोनों ही भाषाएं भारतीय संदर्भ में बहुत कमजोर लगती हैं। भाषा हम समाज से सीखते हैं और वही समाज उसके विकास में सहायक होता है। किसी पाठ्यक्रम के तहत 2-4 साल नंबरों की खातिर पढ़ने से कुछ हासिल नहीं होने वाला। आप जर्मनी, रूसी या जापानी किसी अंतर्राष्‍ट्रीय समझौते के तहत पढ़ते भी हैं लेकिन यदि उसका उपयोग नहीं कर पाते तो उसे भूलने में भी देर नहीं लगती। यही बात संस्‍कृत के साथ है। बहुत समृद्ध भाषा है और भारतीय भाषाओं का मूल आधार भी। लेकिन रोजाना की जिंदगी में शायद ही आपको कोई संस्‍कृत बोलता नजर आए। बावजूद इसके संस्‍कृत को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। क्‍योंकि संस्‍कृत यदि पढ़ाई गई तो भविष्‍य में देश की सभी भाषाओं के साथ जुड़ने का आधार बनता है।

पूर्व केबिनेट सचिव टी.एस.आर. सुब्रमणियन ने अपनी नयी किताब द टर्निंग प्‍वाइंट में स्‍कूल के दिन में लिखा है कि शुरू की शिक्षा बांग्‍ला भाषा में हुई और फिर माध्‍यमिक शिक्षा में संस्‍कृत पर जोर रहा। कॉलिज स्‍तर पर अंग्रेजी माध्‍यम । इस पृष्‍ठभूमि में जब उन्होंने उत्‍तर प्रदेश में एक आई.ए.एस. अधिकारी के रूप में काम किया तो हिंदी सीखने में उन्‍हें कोई परेशानी नहीं हुई। हिंदी के इसी सम्‍पर्क भाषा की कल्‍पना तो हमारे संविधानविदों महात्‍मा गांधी, अम्‍बेडकर, जवाहर लाल नेहरू, राजगोपालाचार्य ने की थी। यानि संस्‍कृत समेत भारतीय भाषाओं को इस ढंग से आगे बढ़ाया जाए कि पूरे देश के लिए अंग्रेजी के कुछ दशकों के बाद हिंदी को सम्‍पर्क भाषा के रूप में अपना लें लेकिन ऐसा सपना लगातार बिखरता गया। रही बात संस्‍कृत और जर्मन के बीच आर्य जाति, स्‍वास्तिक जैसे अवांतर संबंधों को खोजने की तो वक्‍त आ गया है कि आधुनिक समाज किसी ऐसे भावनात्‍मक तर्कों से नहीं चलाया जा सकता। दस बीस ऐसे समान शब्‍द तो दुनिया की हर भाषा में खोजे जा सकते हैं। इसलिये न जर्मन की चिंता में पतले होने की जरूरत न संस्‍कृत के। हिंदी या हिंदुस्‍तानी को समृद्ध करने की जरूरत है और मौजूदा प्रधानमंत्री के कामों से यह स्‍पष्‍ट भी है। जर्मनी, जापानी, चीनी के विभाग विश्‍वविद्यालयों में हों, स्‍कूली पाठ्यक्रम में नहीं। यहां तक कि अंग्रेजी भी धीरे-धीरे विदा होनी चाहिए। बोध धर्म भारत में पैदा हुआ लेकिन क्‍या हमें चीन के साथ संबंधों में कोई मदद कर पा रहा है? या एक ही विरासत पाकिस्‍तान से सतत तनाव को कम कर पा रही है? नये राजनयिक संबंधों का आधार नये आर्थिक सांस्‍कृतिक समीकरण ज्‍यादा है अतीत की बातें नहीं। यदि ऐसा होता तो जिस संस्‍कृत भाषा में जर्मन रेडि़यो 2003 तक खबरें प्रसारित करता था वे आज तक क्‍यों बंद हैं? एक और भी विचाराधीन प्रश्‍न है कि यदि कल जापान, चीन या फ्रांस भी अपनी भाषाओं को भारतीय स्‍कूलों में पढ़ाए जाने के लिए जिद करे तो क्‍या यह हमारी शिक्षा व्‍यवस्‍था और बच्‍चों के साथ अन्‍याय नहीं होगा?

भारतीय संदर्भ में एक महत्‍वपूर्ण सबक सीखने की जरूरत यह है कि अपनी भाषा और संस्‍कृति के लिए यूरोप का एक देश जर्मन जिस स्‍तर पर संवाद, विमर्श में पूरी ताकत झौंक रहा है क्‍या भारत ने भी कभी भारतीय भाषाओं के लिए इस स्‍तर पर आवाज उठाई? भारत में भी। भारत में तो और उल्‍टा हो रहा है। भारतीय भाषाएं न शिक्षा में बची हैं न नौ‍करियों में। यहां तक कि सरेआम स्‍कूल उन छात्रों को दंड देते हैं जो भारतीय भाषाएं बोलते हैं। सच्‍चे लोकतंत्र के नाते नयी सरकार से इस देश के हर नागरिक को अपेक्षा है ‍कि भारतीय भाषाओं के अध्‍ययन अध्‍यापन पर वैसा ही ध्‍यान दे जैसे जर्मन जर्मनी के लिए और अमेरिका, इंग्‍लैंड अंग्रेजी के लिए दे रहे हैं।   

 
      

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32 comments

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