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प्रताप सोमवंशी की चार कविताएं

प्रताप सोमवंशी को हम सजग वरिष्ठ पत्रकार के रूप में अच्छी तरह जानते हैं. वे एक संवेदनशील कवि भी हैं. कविता उनके सार्वजनिक के निजी एकांत की तरह हैं. यहाँ प्रस्तुत हैं उनकी चार कविताएं- मॉडरेटर 
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१-
क्या नहीं है इस आंगन में
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चिड़ियों ने जाने कैसे कहां खबर फैलाई
तोता, कोयल, बुलबुल, फाख्ता, कबूतर और गौरैया से भर गया था
आंगन के अमरूद का पेड़
शुरू-शुरू में दो चार चिड़िया ही देखने आई थी आंगन
गिनती के दिनों में ही इतना घुल-मिल गई हैं कि
दाना बिखेरने में जरा सी देर हो जाए तो
चहचहाहट के शोर से भर जाता है आंगन
दाना पाते ही संस्कारी नजर आती है सारी चिड़िया
खाते समय बोला नहीं जाता
मोर आंगन में इत्मीनान से टहलता है
उसे खुद खाने से ज्यादा
चिड़ियों को चुगते हुए देखना ज्यादा अच्छा लगता है
शैतान कौए सारी रोटियां अकेले लेकर न भाग जाएं
रोटियों पर पानी डाल देता है आंगन
गली हुई रोटियां सबके हिस्से में बराबर बंट जाती हैं
गिरगिट को यहां रंग बदलने के कलंक से नहीं पहचाना जाता
अहसास की उंगलियां अगर विश्वास के रास्ते से आएं
पीठ तक सहलाने की इजाजत देता है गिरगिट
गोह आंगन में धूप सेंकने आती है अक्सर
चीटें-चीटियां इधर-उधर से मिट्टी लाते
और छोटे-छोटे पहाड़ बना-बनाकर खाते-खेलते हैं
आंगन के ऊपर से गुजरते बिजली के तार
चीलों के लिए सबसे पसंदीदा जगह है
जगह-जगह नाचती बहुरंगी तितलियां नहीं होती जब
आंगन बेचैन नजर आता है तब-तब
कुत्ते दरवाजे की सांकल उतरने का मतलब जानते हैं
उनके लिए खाने को कुछ बाहर आने वाला है
सांकल चढ़ना ड्यूटी पर मुस्तैद होने का साइरन है
विद्वान आंगन की तीन  व्याख्याएं प्रस्तुत कर रहे हैं
एक-आंगन जंगल में बदल गया है
दो-जंगल में एक आंगन है
तीन-आंगन इसी जंगल जैसा होना चाहिए।
२-
 जीत गए हैं बच्चे

पलक झपकते ही बड़े हो गए हैं ये बच्चे
कुछ देर पहले तक जो बालू में खेल रहे थे
इस समय उन्हीं बच्चों की टोली
नदी के भीतर लहरों से जूझ रही है
एक डूबते हुए आदमी को बचाने की जद्दोजेहद जारी है
बच्चे बड़ों से भी कई गुना बड़े नजर आ रहे हैं
लहरें एक बार फिर हार गईं है
जीत गए हैं बच्चे
यमराज के हाथ से छीन लाए हैं एक जिन्दगी
मैले-कुचैले कपड़ों और पानी से चिपके बालों वाले
ये बच्चे गंदगी की पहचान नहीं
सभ्यता के वाहक नजर आ रहे हैं
जो अपने सामने किसी को मरता हुआ नहीं देख सकते
इन अनपढ़ बच्चों को समझ नहीं आती शुक्रिया की भाषा
अपने किए के एवज में नहीं मांगते वीरता के पदक
न ही जिसे बचाया है उससे विजिटंग काडॆ और पता
कि कभी हारे-गाढ़े अपने पुण्य के एवज में कुछ पाने को सोचें
बेहोश आदमी की बोली लौटने पर हंस पड़ते हैं सब एक साथ
एक सुख सबके हिस्से में बराबर-बराबर बंट जाता है
हां, ये पढ़ लेते हैं सामने वाले की आंख में कृतजता का भाव
इसमें पीढ़ियों का अनुभव काम आता है
मरने वाले रोज चेहरे बदल-बदल कर आते हैं इन घाटों पर
बचाने वालों का कुछ नहीं बदला, न वे न उनके हालात
उम्र के साथ बदलती हैं सिफॆ उनकी पीढ़ियां
कल इनके पिता थे यहां इन घाटों पर
आज ये विरासत संभाल रहे हैं
कल आएंगे इनके बच्चे फिर बच्चों के बच्चे
सबके हिस्से होंगे पचास-सौ किस्से
लहरों को परास्त करते और मौत को मुंह चिढ़ाते हुए।
३-
भाई प्रेम सिंह

(बांदा के एक प्रयोगधमीॆ किसान, जो खेती को उत्पादन का माध्यम मात्र नहीं, बल्कि प्रकृति के साथ जीने का एक अभ्यास बताते हैं )
उसने मिट्टी को छुआ भर था,
धरती ने उसे सीने से लगा लिया
उसने पौधे लगाए
खुश्बू उसकी बातों से आने लगी
पेड़ समझने लगे उसकी भाषा
फल खुद-ब-खुद उसके पास आने लगे
पक्षी और पशु तो
सगे-सहोदर से बढ़कर हो गए
जो मुश्किल भांपते ही नहीं
उन्हें दूर करने की राह भी बनाते
मैने पूछा भाई प्रेम सिंह
क्या कुछ खास हो रहा है इन दिनों
खिलखिला पड़े वो
कहने लगे
लोग जिस स्वगॆ की तलाश में हैं
मैं वही बनाने में जुटा हूं
४-
ये कैसा पिता है जियाउद्दीन युसफजई
*( मलाला युसुफजई के पिता)
—-
कौन है ये जियाउद्दीन युसुफजई
क्या चाहता है
जब पूरी स्वात घाटी बंद कर लेती है किवाड़े
तालिबानियों की दशहत से
लोग दुबके जाते हैं घरों में
एक फरमान की बेटियां गई स्कूल
तो फेंक दिया जाएगा उनके चेहरे पर तेजाब
माएं आंचल में छुपा लेती हैं बेटियां
लेकिन ठीक इसी वक्त एक किसान जियाउद्दीन युसुफजई
बो रहा होता है अपनी बेटी मलाला में हिम्मत के बीज
इस उम्मीद के साथ कि जब ये बीज पौधा फिर पेड़ बनेगा
तब आएंगे फल और बंजर नहीं कही जाएगी उसकी स्वात घाटी
शिक्षक जियाउद्दीन युसुफजई
अपनी बेटी के हाथ में रखता है रवींद्रनाथ टैगोर की किताब
समझाता है एकला चलो रे का सबक
बेटी मलाला निकल पड़ती है स्कूल के लिए
उस वक्त भी जब सड़को पर साथ होती है सिर्फ दहशत
टेलीविजन के कैमरों के सामने निडर मलाला
पूछ रही होती है सवाल कि क्यों नहीं जा सकती है वह स्कूल
कौन सा मजहब इजाजत देता है
कि बेटियां स्कूल जाएं तो उन पर फेंक दिया जाए तेजाब
बरसाए जाएं कोड़े, मार जी जाएं गोलियां
गर्व से छाती फुला रहा होता है
स्वात घाटी का मशहूर कवि जियाउद्दीन युसुफजई
ये वो क्षण हैं जब वो कविता लिख नहीं
जी रहा होता है घाटी की सड़को पर
बेटी मलाला बनना चाहती है डाक्टर
पिता चाहता है कि वह बनें सियासतदां
और करे लोगों में छिपे डर का इलाज
ताकि बेटियां वो बन सकें जो बनना चाहती हैं
न कि किसी मलाला नाम के डाक्टर को
किसी दहशतगर्द के तेजाब से डरना पड़े
बेटी मलाला के सिर पर हाथ रखे
हिमालय की तरह खड़ा है जियाउद्दीन युसुफजई
दहशतगर्दों को इस जवाबी ऐलान के साथ कि
वो न घाटी छोड़ेगा न मलाला स्कूल
क्योंकि अब डरने की बारी तुम्हारी है
 
      

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11 comments

  1. ये कैसा पिता है को बार बार पढ़ने को मन करता है

  2. ये कैसा पिता है को बार बार पडने को मन करता है

  3. अच्छी कविताएं

  4. Very touching poems. Dhanyavaad, saajha karne ke liye.

  5. मर्मस्पर्शी कवितायें ।

  6. sabhi rachnayen ….ek se badh kar ek …..!

  7. अहसास की उंगलियां अगर विश्वास के रास्ते से आएं
    पीठ तक सहलाने की इजाजत देता है गिरगिट……….bahut bahut sundar

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