‘लोकमत समाचार’ की साहित्य वार्षिकी ‘दीप भव’ का इन्तजार बना रहता है. इसलिए नहीं कि उसमें मेरी रचना छपी थी. वह तो हर बार नहीं छपती है न. लेकिन पीछे 4-5 सालों से यह वार्षिकी हर बार निकल रही है. इन्तजार इसलिए रहता है कि यह भीड़ से हटकर होता है. हर बार एक विषय होता है, उस विषय के मुताबिक आकल्पन होता है. हिंदी गद्य-पद्य की विविधता का समुच्चय होता है.
साहित्य वार्षिकी के आयोजनों में अगर गुजरे जमाने के आयोजन इण्डिया तुद पत्रिका की साहित्य वार्षिकी के आयोजन को अगर छोड़ दें आम तौर पर साहित्य वार्षिकियों को लेकर मेरा अपना जो अनुभव है वह यही बताता है कि कई बार तो इसके माध्यम से संपादक ऐसा लगता है जैसे हिंदी समाज में दिग्विजय के रथ पर निकल गया हो. खूब सारे कवियों की कवितायेँ, किसी न किसी बहाने अधिक से अधिक लेखकों को उसमें स्थान दिया जाता है ताकि सम्पादक की कीर्ति अधिक से अधिक दूर तक फ़ैल सके. छपने वाले कृतज्ञ भाव से संपादक की जय कर सकें. कोई भी पत्रिका, कोई भी विशेषांक अधिक से अधिक लेखकों की मौजूदगी से श्रेष्ठ नहीं बनता है वह श्रेष्ठ बनता है संपादन दृष्टि से.
अतिथि संपादक अशोक वाजपेयी के नेतृत्व में इस वार्षिकांक का संयोजन कवि- संपादक पीयूष दईया करते हैं, जिनके बारे में मैं यही कह सकता हूँ कि वे हिन्दी में संपादन के स्कूल की तरह हैं. मैं हमेशा से उनकी संपादन उदारता का कायल रहा हूँ. उनके अंदर किसी तरह की वैचारिक कृपणता नहीं है, जो अपनी दृष्टि के बाहर पड़ने वाले हर लेखक को बाहर रखता हो. उनकी दृष्टि में जनतन्त्र का वैभव है. हर छांट के, हर काट के लेखक उनके यहाँ स्थान पाते हैं. यही नहीं विधाओं के मामले में भी हिंदी कितनी समृद्ध है इसका पूरा आभास इसके अंकों को पढने से होता है, वह भी पूरी ठसक के साथ. उनसे यही सीखा जा सकता है कि एक संपादक को गुणग्राहक होना चाहिए, अपने अहं को विलय करके रचना की श्रेष्ठ प्रस्तुति के ऊपर ध्यान दिया जाना चाहिए. पीयूष दईया से संपादक के बतौर मैंने यही उदार दृष्टि सीखी है.
2014 का वार्षिकांक मेरे सामने है. इस बार का विषय है ‘यादों के दीप’. पत्रिका में राय कृष्ण दास का लेकः जयशंकर प्रसाद के ऊपर है, मुक्तिबोध को लेकर एक दुर्लभ आयोजन है, जिसमें उनकी अप्रकाशित कवितायेँ, राजेंद्र मिश्र का शांता मुक्तिबोध का संवाद है, रमेश मुक्तिबोध का अपने पिता के ऊपर लेख है, मुक्तिबोध के आरंभिक आलोचक अशोक वाजपेयी का लेख है. संस्मरणों के खंड में इन्तजार हुसैन, आशीष मोहन खोपकर, ध्रुव शुक्ल है. हबीब तनवीर हैं, लीलाधर मंडलोई का अपने पिता के ऊपर संस्मरण है. बहुत मार्मिक. राहुल सोनी का कुवैत को लेकर संस्मरण है, उस दौर का जब कुवैत के ऊपर ईराक का हमला हुआ था और अचानक से भारतीयों को देश छोड़ना पड़ा था.
इस बार मुझे विशेष तौर पर युवाओं के लेखन का खंड अच्छा लगा. शुभम मिश्र, ऋभु वाजपेयी, मोहिनी गुप्त के आलेख आश्वस्त करते हैं कि हिंदी कल और आज की भाषा ही नहीं है, आने वाले कल की भी मजबूत भाषा बनी रहेगी.
एक बात कविता खंड के बारे में. इसमें जो खंड हिंदी से इतर भाषाओँ का कविता खंड है उसमें बेहतर कवितायेँ हैं. शीन काफ निजाम, अरुंधति सुब्रमनियम, केकी दारूवाला, गुलाम मोहम्मद शेख की कविताये पढने लायक हैं. जबकि हिंदी कविता का खंड बेहद कमजोर है. आशुतोष दुबे और बोधिसत्व जैसे कवियों को पढ़ते हुए लगता है कि इनके शब्द कितने बेजान हो गए हैं. कविता शब्दों का उलटफेर नहीं होता है, उसमें जीवन की ऊष्मा होनी चाहिए. ये दोनों कवि हिंदी के ‘ओवररेटेड’ कवि हैं. टीवी के लिए धार्मिक सीरियल लिखने वाले बोधिसत्व को संपादक लोग आज भी कवि मानते हैं तो यह शायद उसके मिलने जुलने का परसाद होगा. मेरा स्पष्ट तौर पर कहना है कि अगर ये कवितायेँ न होती तो यह आयोजन और बेहतर हो सकता था.
बहरहाल, संवाद के खंड में कलाकारों की बातचीत का खंड बहुत अच्छा है. भीमसेन जोशी से गौतम चटर्जी की बातचीत, विवान सुन्दरम से विनोद शर्मा की बातचीत बढ़िया है. लेकिन मुझे सबसे अच्छी लगी जया बच्चन के साथ विकास मिश्र की बातचीत.
कुल मिलाकर, एक और संग्रहणीय अंक है ‘दीप भव’. ध्यान रखने की बात है कि अहिन्दी क्षेत्र से हिंदी का सर्वश्रेष्ठ वार्षिकांक निकल रहा है. इसके पीछे अशोक वाजपेयी की दृष्टि और पीयूष दईया का कल्पनाशील संयोजन है. जो हर आयोजन के साथ पहले से बेहतर होता गया है. एक पाठक के रूप में पढ्न की भूख को पूरी तरह से शांत करने वाला!
-प्रभात रंजन
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लोकमत समाचार; दीप भव (रचना वार्षिकी)
अंक- 4
मूल्य 150 रुपये
पिछले दो बार की मेरे पास है, और संग्रहनीय है !!
विकास सर को आगे के लिए भी शुभकामनायें !!
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