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राजेश खन्ना की कामयाबी एक मिसाल है- सलीम खान

80 के दशक में जब हम बड़े हो रहे थे तो हमारे सामने सबसे बड़ा डाइलेमा था कि कपिल देव सबसे बड़े क्रिकेट खिलाड़ी हैं या सुनील गावस्कर. 70 के दशक में हमारे मामाओं-चाचाओं के लिए डाइलेमा दूसरा था- राजेश खन्ना या अमिताभ बच्चन. याद आया यासिर उस्मान की पुस्तक राजेश खन्ना- कुछ तो लोग कहेंगेको पढ़ते हुए. राजेश खन्ना हिंदी सिनेमा के पहले सुपर स्टार थे. हम प्रस्तुत कर रहे हैं इस यादगार किताब की भूमिका जिसे लिखा है सलीम खान ने. राजेश खन्ना की फिल्म ‘अंदाज’ से सलीम-जावेद की उस लेखक जोड़ी की सफल शुरुआत हुई थी. जो सिनेमा की पहली सुपर स्टार लेखक जोड़ी थी. सलीम साहब ने बहुत अच्छा लिखा है. यकीनन आप पढ़कर कायल हो जायेंगे- प्रभात रंजन  
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राजेश खन्ना और मेरे करियर ने 1970 की शुरुआत में तक़रीबन एक ही साथ उड़ान भरी थी। राजेश खन्ना से जब हमारी (मेरी और जावेद अख़्तर) मुलाक़ात हुई थी तब तक उनकी फिल्में आराधनाऔर दो रास्ते रिलीज़ हो चुकी थीं और उन्हें सुपरस्टार का ख़िताब मिल चुका था। फिर हमने जीपी सिप्पी की फिल्म अंदाज़ में पहली बार साथ काम किया। इस फिल्म के निर्माण के दौरान ही हमारी जान-पहचान बढ़ी। उनके साथ नई स्टोरी आयडियाज़ पर बहुत चर्चा होती थी। हम अच्छे दोस्त बन गए थे। बान्द्रा में भी हम लोग पड़ोसी हुआ करते थे और तक़रीबन रोज़ ही मिला करते थे। जिन दिनों उनका सितारा बुलंदी पर था, मैं भी अक्सर उनके बंगले आशीर्वाद की बैठकों में शामिल हुआ। मुझे उन्हें क़रीब से जानने का वक़्त मिला। कई साल तक उन्हें जानने-समझने के बाद मैं उनके बारे में ये तो नहीं समझ पाया कि वो अच्छे हैं या बुरे, बस इतना समझा कि वो अजीब थे। सबसे अलग थे।
   
ये वो वक़्त था जब फिल्म इंडस्ट्री आज के दौर के मुक़ाबले छोटी ज़रूर थी लेकिन यहां प्रतिद्वंद्विता कम नहीं थी। दिलीप कुमार, राज कपूर, देव आनंद, शम्मी कपूर, राजेन्द्र कुमार जैसे एक्टर राज करते थे। इन सबकी मौजूदगी में किसी भी नए एक्टर के लिए अपनी पहचान बनाना बड़ी बात थी। राजेश ने ना सिर्फ़ अपनी पहचान बनाई बल्कि बहुत कम वक़्त में अपने स्टारडम को एक नई ऊंचाईं तक पहुंचा दिया। 1969-1975 तक मैंने उनके सुपर स्टारडम को बेहद क़रीब से देखा लेकिन मुझे ये कहने में कोई झिझक नहीं है कि जिस ऊंचाई को उन्होंने छुआ वहां उनके बाद आज तक हिंदी सिनेमा का कोई स्टार नहीं पहुंचा। उनकी कामयाबी एक मिसाल है।
आज मेरा बेटा सलमान बड़ा स्टार है। हमारे घर के बाहर उसे देखने के लिए हर रोज़ भीड़ लगती है। लोग मुझसे कहते हैं कि किसी स्टार के लिए ऐसा क्रेज़ पहले नहीं देखा। मैं उन लोगों से कहता हूं कि इसी सड़क से कुछ दूरी पर, कार्टर रोड पर आशीर्वाद के सामने मैं ऐसे कई नज़ारे देख चुका हूं। राजेश खन्ना के बाद मैंने किसी भी दूसरे स्टार के लिए ऐसी दीवानगी नहीं देखी।
राजेश के फैन्स में 6 से 60 साल तक के लोग शामिल थे। ख़ासतौर पर लड़कियां तो उनकी दीवानी थीं। उनके करियर की सबसे बड़ी हिट फिल्म हाथी मेरे साथी लिखने में भी मेरा योगदान था। मुझे याद है कि इस फिल्म की शूटिंग के वक़्त मैं उनके साथ मद्रास (चेन्नई) और तमिलनाडु की कई दूसरी लोकेशन्स पर गया। मैंने देखा उन इलाकों में भी राजेश खन्ना के नाम पर भारी भीड़ जमा हो जाती थी। ये हैरत की बात थी क्योंकि वहां हिंदी फिल्में आमतौर पर ज़्यादा नहीं चलती थीं। तमिल फिल्म इंडस्ट्री ख़ुद काफ़ी बड़ी थी और उसके अपने मशहूर स्टार थे, लेकिन राजेश खन्ना का करिश्मा ही था जो भाषा की सरहदों को भी पार कर गया था। ये करिश्मा उन्होंने उस दौर में कर दिखाया जब ना तो टेलीविजन था, ना 24 घंटे का एफ़एम रेडियो ना बड़ी-बड़ी पीआर एजेंसीज़।
लेकिन चार-पांच साल के बाद उनके करियर की ढलान भी शुरू हुई। जिस तरह उनकी बेपनाह कामयाबी की कोई एक वजह नहीं थी, उसी तरह उनके करियर के ढलने की भी कोई एक वजह नहीं थी। उनकी पारिवारिक ज़िंदगी के तनाव, इंडस्ट्री के लोगों के साथ उनका बर्ताव और कुछ नया ना करना…ऐसी कई वजहें थीं। लेकिन मुझे लगता है कि इसमें क़िस्मत का खेल भी था। फिर जब फिल्में पिटीं तो उन्होने अपने अंदर झांक कर नहीं देखा कि ग़लती कहां हुई। उन्होंने दूसरों को दोष देना शुरू कर दिया। उन्हें लगता था कि उनके खिलाफ़ कोई साजिश हुई है।
उन जैसे सुपरस्टार के बारे में ये जानकर आपको हैरानी होगी कि एक इंसान के तौर पर वो इंट्रोवर्टथे और खुद को सही ढंग से एक्सप्रेस तक नहीं कर पाते थे। वो बेहद शर्मीले भी थे। मैं उनकी मेहमाननवाज़ी का भी गवाह रहा हूं। बड़े दिल के आदमी थे, खाना खिलाने का शौक़ीन थे। मैं जानता हूं कि उन्होंने अपने स्टाफ़ के लोगों को मकान भी दिए हैं, कोई आदमी अच्छा लगता था तो उसके लिए बिछ जाते थे। गाड़ियां तक गिफ्ट दी है। उस ज़माने में अपने दोस्त नरिंदर बेदी को भी उन्होंने गाड़ी तोहफे में दी थी। फिर धीरे-धीरे उनका दौर गुज़र गया। लेकिन मुझे लगता है कि अपने ज़ेहन में वो इस बात को कभी स्वीकार नहीं कर पाए।  
फिल्म इंडस्ट्री के बड़े स्टार्स पर कई किताबें लिखी गई हैं। इनमें से ज़्यादातर या तो राजेश खन्ना से पहले के स्टार्स जैसे दिलीप कुमार, देव आनंद, राज कपूर, शम्मी कपूर वगैरह पर है या फिर राजेश खन्ना के बाद के स्टार्स जैसे अमिताभ बच्चन पर। हैरानी की बात है कि राजेश खन्ना पर अब तक कुछ भी शोधपरक नहीं लिखा गया था। जबकि उनका दौर हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का बेहद अहम और करिश्माई दौर रहा है। अपने उस दौर में वो वन मैन-इंडस्ट्री थे और कहा जाए तो उन दिनों फिल्में नहीं चलती थीं, सिर्फ राजेश खन्ना चलते थे।
किसी कलाकार की ज़िंदगी के बारे में रिसर्च करके लिखना आसान नहीं है। वक्त बीतने के साथ साथ कलाकार को जानने वालों की यादें अक्सर धुंधली होती जाती है। ज़रूरी है कि उन लोगों से बात करके उसकी पर्सनैलिटी को समझ कर, उसे दस्तावेज़बंद किया जाए। कोई भी शख्स ऐसा क्यों था? उसकी एक्टिंग, फिल्में और ज़िंदगी, सिनेमा के इतिहास का हिस्सा हैं जिनके बारे में लिखा जाना चाहिए। 
इस किताब के शोध के लिए लेखक यासिर उस्मान ने ऐसे कई लोगों से बात की है जो राजेश खन्ना को क़रीब से जानते थे या फिर उनके साथ काम कर चुके हैं। इसके अलावा ख़ुद राजेश के पुराने इंटरव्यूज़, उनके निर्माता-निर्देशकों, को-स्टार्स के अनुभव और कड़ी रिसर्च के ज़रिए उनकी ज़िंदगी और उस दौर को बड़ी खूबसूरती से री-क्रिएट किया गया है। हालांकि ये राजेश खन्ना की असली ज़िंदगी की कहानी है लेकिन लेखक का अंदाज़-ए-बयां ऐसा है कि ये कहानी किसी दिलचस्प फिल्म की तरह ज़ेहन में यादगार तस्वीरें उभारती है। इन तस्वीरों में राजेश खन्ना पलकें झपकाते हुए, अपनी हसीन मुस्कान के साथ भी नज़र आते हैं और बाद में अकेलपन और गुमनामी से जूझते हुए गुज़रे ज़माने के स्टार के तौर पर भी।    
फिल्म स्टार्स या पब्लिक फिगर्स के बारे में बात करते वक़्त हम अक्सर ये भूल जाते हैं कि वो भी आम इंसान ही हैं जो ग़लतियां करते हैं, नाकाम भी होते हैं, जिन्हें असुरक्षा  होती है और कामयाबी खोने का डर भी सताता है। इस कहानी में राजेश खन्ना के बेमिसाल स्टारडम के साथ एक एक्टर के तौर पर उनकी क़ाबिलियत का ज़िक्र है, तो एक इंसान के तौर पर उनकी ख़ूबियों और ख़ामियों की भी बात है। कुल मिलाकर लेखक, राजेश खन्ना की शख़्सियत के कई डायमेंशंस बड़ी ख़ूबी से सामने लाए हैं। अक्सर मशहूर शख्सियतों की असली ज़िदगी पर लिखे गए लेख या किताबें या तो सिर्फ़ उनकी तारीफ़ करती हैं या सिर्फ आलोचना, और इस कोशिश में अक्सर यूनी डायमेंशनल हो जाती हैं। लेकिन यहां कड़ी रिसर्च के हवाले से, बड़े बैलेंस तरीक़े से सारी बातें उभरती हैं। किसी दिलचस्प नॉवेल की तरह कहानी को आगे बढ़ाते हुए, लेखक गंभीर बात कह जाते हैं। ख़ासतौर पर अंत तक पहुंचते हुए उन्होंने जिस तरह राजेश खन्ना के व्यक्तित्व को समझाने की कोशिश की है, वो लेखनी पर उनकी पकड़ को साफ़ दिखाता है। इसमें लेखक की पत्रकारिता की ट्रेनिंग भी नज़र आती है।
मैंने भी ये सोचा नहीं था कि अगर एक इंसान की ज़िंदगी खोली जाए तो उसमें कितनी पर्तें हो सकती हैं और ये पर्तें उसकी शख्सियत को कितने आयाम देती हैं। फिल्म की स्क्रिप्ट लिखते समय, नए-नए किरदार गढ़ते वक़्त मैं इन बातों पर बेहद ध्यान देता था, लेकिन ये किताब पढ़कर मुझे यही लगा कि वाक़ई ट्रूथ इज स्ट्रॉन्गर दैन द फिक्शन। एक ऐसा शख़्स जिसे मैं एक जीते जागते इंसान के तौर पर जानता था, उसी शख्स को देखने समझने का एक नया नज़रिया और उसकी ज़िंदगी एक नया पहलू मुझे इस किताब में नज़र आया।
मुझे यक़ीन है कि इस किताब को पढ़ते वक़्त आप मुस्कुराएंगे, कुछ हिस्से आपकी आंखें नम भी करेंगे। अपने हीरो राजेश खन्ना के लिए आपको हमदर्दी भी होगी और फिर क्लाईमैक्स तक आते आते एक जीत का अहसास भी होगा। यानी ये अनुभव तक़रीबन वैसा ही है जैसे राजेश खन्ना की कोई बेहद कामयाब फिल्म देखने के बाद हुआ करता था। फिल्म इंडस्ट्री के जिस दौर का मैं भी गवाह रहा हूं, उस ख़ास वक़्फ़े को इस किताब में जिंदा करने की कोशिश की गई है। मेरा मानना है कि ये किताब सिनेमाई लेखन में एक अहम दस्तावेज़ है जो आने वाले समय में फिल्म इतिहास का हिस्सा रहेगी। मैं यासिर को उनकी इस कोशिश के लिए मुबारकबाद देता हूं। 
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टेलीविज़न पत्रकार और लेखक यासिर उस्मान ने ये किताब हिंदी और अंग्रेज़ी भाषाओं में लिखी है और इसे पेंगुइन बुक्स इंडिया ने प्रकाशित किया है। 296 पन्नों की इस किताब का मूल्य 250.00 रुपए है और इसमें राजेश खन्ना के जीवन से जुड़े कई रोचक चित्र प्रकाशित किए गए हैं। किताब का ई-बुक वर्जन भी जल्दी ही उपलब्ध होगा।

 
      

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