फौज़िया रेयाज़ बिलकुल आज की लेखिका हैं. आज के जेनेरेशन की सोच, भाषा, विषय- हिंदी में कहानियां कितनी बदल रही है यह उनकी कहानियों को भी पढ़ते हुए समझा जा सकता है. जैसे कि उनकी उनकी यह कहानी- मॉडरेटर
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कभी हर कोई हर किसी का होता होगा पर मीरा के बचपन तक पहुंचते-पहुंचते रंग बंट चुके थे. पिंक मीरा का, ब्लू छोटे भाई सौरभ का. मीरा को अपने कमरे की दीवारों पर बने गुलाबी फूल अच्छे नहीं लगते थे. बचपन में अगर ‘कलरमैन‘ उसे रंगों की बाल्टी दे देता तो वो सफ़ेद दीवारों पर नीचे ऑरेंज पत्ते बिखेरती और ऊपर सीलिंग की ओर बढ़ते हिस्से पर नेवी ब्लू फूल बनाती. पिंक फ़्रॉक, पिंक शूज़, पिंक हेयर–बैंड…. उफ़्फ़्फ़्फ़. जैसी कोफ़्त उसे गुलाबी रंग से महसूस होती थी, शायद सौरभ भी समझता था. तभी तो जब मम्मी पेनसिल बॉक्स दिलाने ले गई थीं और दुकानदार ने पिंक पेंसिल बॉक्स दिखाया, तो सौरभ ने चिढ़कर कहा था “ये तो पिंक है…गर्ल्स का कलर. मुझे ब्लैक चाहिए या फिर ब्लू”
“मम्मी मुझे भी ब्लू चाहिए…आई डोंट लाइक पिंक” मीरा भिनभिनाई थी
“ओह्ह सच्ची??” और मम्मी हैरान हुई थीं
जब अपनी खरीदारी खुद करने लायक हुई तो पीले रंग के पाले में आ गई. पीले पर्स, पीली शर्ट या पीले गुलाब. पीला रंग उसे तरो–ताज़ा महसूस करवाता था. हरा रंग भी प्यारा था, हरी साड़ियों पर तो जान देती थी. एक और रंग था जो उसकी आंखों को चहकाता था ‘एक्वा’. कलर–पैलेट पर हरे और नीले रंग को मिलाए जाने पर जो रंग उभरता है वो रंग यानि ‘एक्वा’. मीरा को जहां भी इस रंग के कपड़े दिखते खरीद लेती. उसके पास ‘एक्वा’ कलर के बैग्स, ‘एक्वा’ कलर की सैंडल्स, ‘एक्वा’ कलर के नेल–पॉलिश की भरमार थी.
अपनी अल्मारी में ‘एक्वा’ का भंडार सजाते हुए मीरा को अंदाज़ा नहीं था कि ये पसंदीदा रंग उसके दिमाग पर कभी यातना के हथौड़े भी बरसा सकते हैं. अपने कमरे में लगे बड़े से शीशे के आगे खड़े होकर वो अक्सर अब अमन के मनपसंद रंग के बारे में सोचती है. क्या होगा अमन का पसंदीदा रंग? सात साल में कभी पूछा ही नहीं. इस बारे में कभी बात ही नहीं हुई. एक साथ रहने के बावजूद हम किसी को कितना कम जानते हैं इसका एहसास तो किसी दिन अचानक ही होता है. जिसके साथ एक तकिये पर सिर जोड़कर सोते हैं, उसके दिमाग में कौन-सा भूचाल करवटें ले रहा है, पता ही कहां चलता है, हम से सटा हुआ, बालों से ढंका हुआ वो सिर बाहर से कितना शांत दिखता है.
मीरा को आज से कुछ साल पहले तक समझ नहीं आता था कि कुछ लोग खिड़की के पास खड़े होकर बाहर शून्य में क्या तलाशते हैं. ये लोग कौन हैं जिनकी आंखें कभी आसमान, कभी बिल्डिंगो तो कभी आती–जाती गाड़ियों में अर्थ खोजती हैं. मीरा के सामने ये राज़ हाल ही में बेनक़ाब हुआ है. ये लोग जिनमें अब मीरा भी शामिल है, कभी बालकनी में कुर्सी लगाकर बैठते हैं तो कभी बालकनी की रेलिंग पर टिक जाते हैं, बाहर से देखने पर खिड़की में अटके ये लोग फ़्रेम में चिपकी ‘वैन गोग’ की कोई उदास पेंटिंग नज़र आते हैं.
अब तो मीरा खुद भी किसी पार्क में बैठे, बेमक़सद पेड़ो को ताकते हुए अक्सर स्मारक बन जाती है. उसकी निगाहें फूलों पर तैरते हुए डालियों पर गोते लगाते हुए, शून्य में ताकती हुई आंखों का राज़ समझ गई है. असल में ये लोग उसी की तरह अपने पुराने पसंदीदा रंगों से थक चुके हैं, ये अब कोई नया रंग तलाश रहे हैं. ऐसा रंग जो रास आ जाए.
पिछले कुछ साल में जिस्म के अलग–अलग हिस्सों को अमन ने कई बार ‘एक्वा’ रंग से सजाया. कभी कलाइंयों पर, कभी पैरों पर, कभी माथे पर तो कभी गाल पर. अमन के भरे ‘एक्वा’ रंग की खासियत थी कि वो जिस्म पर जगह लेते ही उस हिस्से को कढ़ाई की तरह उभार देता था, जाने क्यूं मीरा के ऑफ़िस के लोग इस कला को ‘नील’ या ‘सूजन’ का नाम देते थे.
अमन की इस अद्भुत डिज़ाइन की एक और खासियत थी. ये ‘एक्वा’ रंग मिटने से पहले हरे और फिर पीले रंग मे बदलता है, उसके बाद जाकर कहीं गायब होता है. हरा जिसकी कई रेशमी साड़ियां बैग में पैक हैं, पीला वही जो कभी फ़्रेशनेस का एहसास दिलाता था. मीरा के तीनों पसंदीदा रंग उसके खुद के जिस्म पर जमे हैं; उसकी पसंद–नापसंद का इतना ख़्याल तो बस अमन ही रख सकता था.
वैसे ख़्याल तो मीरा की मम्मी को भी काफ़ी था तभी तो बचपन में बार-बार उसे पिंक पहनाती थीं. उसकी तरफ़ गुलाबी गालों वाली गुड़िया बढ़ाते हुए वो शायद मीरा को तैयार कर रही थीं. जब आईने के सामने बैठकर चेहरे पर ‘रूज‘ से ‘एक्वा’ छुपाया, पिंक की एहमियत समझ आई. मनपसंद रंगों को छुपाने के लिए नापसंद ओढ़ा और खुद पर कई बार पिंक का कर्ज़ चढ़ाया.
ये कहानी भी है और एक कसी हुई कविता भी है…फौजिया को शुभकामनायें
अद्भुत… रंगों में उकेरी हुई पीडा… धन्यवाद साझा करने के लिए…
इस छोटी सी कहानी को कई बार पढ़ा| रंग.. और संवेदना… बहुत कुछ कह गईं| कल ही पत्नी ने किसी मित्र के एक्वा रंग के बारे में बताया था| कहानी आस पास की और बहुत लम्बी लगी| बधाई देने का मन नहीं है….|
nice story
रंगों और संवेदनाएं की कहानी…अत्यन्त सुन्दर और सहज तरीके से बुनी गयी संवेदनाएं….। लेखिका को बधाई…।
very nice dear:-)
सुन्दर। बधाई।
लेकिन इधर के दस बरस में बहुत कुछ बदल गया है ..पिंक और नीले के विभाजन की राजनीति को नयी माएं खूब समझ रही हैं .इन पांच सालों में मैटेल गुडिया का बाज़ार मंदा हुआ है ..कहानी के लिए शुक्रिया . अच्छी लगी .
आज पहली बार रंगों में छिपा दर्द समझ में आया।शुक्रिया इतनी बेहतर कहानी के लिए।