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भोजपुरी फिल्मों का सफरनामा एक किताब में

भोजपुरी सिनेमा के ऊपर एक किताब आई है जिसके लेखक है रविराज पटेल. रविराज पटेल से एक बातचीत की है सैयद एस. तौहीद ने- मॉडरेटर 
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भोजपुरी फिल्मों का इतिहास यूं तो पचास बरसों से अधिक का होने को आया लेकिन उसके दस्तावेजीकरण का काम कम हुआ . हालिया में युवा लेखक रविराज पटेल ने इस दिशा में ठोस काम किया है. भोजपुरी को लेकर रविराज में खासी लगनशीलता से भोजपुरी फिल्मों का सफरनामापुस्तक पाठकों के समक्ष है. पटना के रविन्द्र भवन में भोजपुरी सिनेयात्रा सम्मान कार्यक्रम में पुस्तक का लोकापर्ण हुआ. इस अवसर पर रविराज से भोजपुरी सिनेमा एवं सिनेयात्रा सम्मान को लेकर हुई बातचीत का अंश: सैयद एस. तौहीद 

भोजपुरी सिनेमा पर लिखने का विचार किस प्रकार आया ?

बिहार की संस्कृति बहुत समृद्ध रही लेकिन यहां के सिनेमा पर ठोस दस्तावेज की कमी की चुनौती ने इस दिशा में गंभीरता से सोंचने को कहा. शुरुआत हमने भारतीय एवं विश्व सिनेमा को पढ़कर की जिसमें क्षेत्रीय सिनेमा विशेषकर बिहार की ओर ध्यान गया . पांच बोलियों पर फिल्में होने वाले प्रदेश बिहार पर कोई संतोषजनक सामग्री नहीं मिली. पुणे स्थित फ़िल्म अभिलेखागार तथा संग्रहालय में भी मगही भोजपुरी बज्जिका एवं मैथिली फिल्मों पर सामग्री नहीं मिला .भोजपुरी सिनेमा पर अध्ययन करके उसे पुस्तक की शक्ल देने का सार्थक प्रयास किया. इस दरम्यान पता चला की मेनस्ट्रीम के लोग सिनेमा पर काम कर रहे थे वही लोग भोजपुरी में आए तो उनके बारे में नहीं लिखा गया. हिंदी से भोजपुरी में आने के बीच यह फर्क बहुत तकलीफदेह थी.इसमें बदलाव की आवश्यकता थी हिंदी में क्षेत्रीय सिनेमा पर लिखने में अविजीत घोष की प्रेरणा काम कर गयी. शुरू में ज्यादा जरूरी बिहार की सिनेमा संस्कृति को समझना था. किताब उसी प्रक्रिया का हिस्सा बन गयी. भोजपुरी सिनेमा को पूरी समग्रता से प्रस्तुत करने के लिए लिखा. भोजपुरी का उत्तम स्तर जानने के लिए वो किताब सहयोगी मालुम होगी लेकिन वहीँ पर ठहरना ठीक नहीं माना क्योंकि अभी बहुत कुछ किया जाना बाक़ी था. आज के सिनेमा को देखकर भोजपुरी भाषी सिनेमा की भव्य विरासत का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता इसलिए वो एक जरुरी काम लगा. एक समग्रता के साथ पुरे सफर को बताने के लिए विकास की कड़ियों को बताना अहम था क्योंकि पचास बरस तक आते आते भोजपुरी सिनेमा अनेक बार मर कर जिया एवं जी कर मरा है . राष्ट्र के प्रथम नागरिक से सीधा सरोकार पा कर भी आज की भोजपुरी फिल्में विरासत से विमुख है.
भोजपुरी सिनेमा के आईने बदल गए ?

सिनेमा के प्रारूप को देखकर किसी प्रदेश की संस्कृति व रीति रिवाज का एक अंदाजा लगाया जाता है .इसलिए सिनेमा को समाज का आईना होने का दायित्व दिया गया.बदलाव पर आपत्ति नहीं आधुनिकता की परत आप पर चढ़ जाए बड़ी बात नही. भोजपुरी सिनेमा की शूटिंग बाहर जा कर करना किस आधार पर जबकि भोजपुरी भाषी क्षेत्र गंगा तट पर बसा हुआ . भोजपुरी फिल्मों में समुद्र दिखाया जा रहां जोकि ठीक नहीं.बाहर तब जाना चाहिए जब यहां चीजें उपलब्ध नहीं.आपके पास क्षेत्र की जीवन शैली एवं परिवेश खत्म हो गया तथा साहित्य नहीं रहा .वो अब भी बाक़ी फिर भी  विमुख हो रहें. आज की फिल्मों ने मिटटी व संस्कार का अहित करके रखा है.आप जब क्षेत्रीय सिनेमा मुनाफे के लिए बना रहे एवं भोजपुरी फिल्में बना रहे तो ध्यान रखना होगा कि क्या नहीं होना चाहिए. अमीर बनना किसे पसंद नहीं लेकिन सकारात्मक चीजें भी लेकर चलना सुहाता है. चीजें होने पर भी तलाशने की कोई ललक नहीं होना दुख देता है. ना केवल इंडस्ट्री बल्कि भोजपुरी को बिजनेस बनाने वाले सबको सोंचना होगा.
भोजपुरी का गर्व स्थापित करने वाले लोगों को याद करने का समय ?

बिलकुल! सिनेयात्रा सम्मान का मकसद वही था. भोजपुरी की पहली फ़िल्म के सम्मानित कलाकारों को सुंदरता से याद करने के लिए उनके नाम पर पुरस्कार रखे गए. वर्तमान को अतीत का आईना दिखाने के लिए आज के लोगों को दिवंगत लोगों के नामो से अवार्ड दिए गए. मसलन जद्दन बाई व नज़ीर साहेब .भोजपुरी में सिनेमा बने यह सोंच को इन्ही कलाकारों ने संभव किया. महबूब खान की तकदीरमें जद्दन बाई ने नरगिस पर ठुमरी रखने को कहा. आपने आग्रह किया कि महेंद्र मिश्र की मशहूर ठुमरी बाबू दरोगा जी कौने कसूर पे धर लियो सैयां मोरको रखने के लिए निर्देश दिए जाए.फ़िल्म में उस ठुमरी को उसी अंदाज़ में रखा गया जिस तरह जद्दन चाहती थीं. गाने की लोकप्रियता ने जद्दन बाई को भोजपुरी भाषा को लेकर पूरी फ़िल्म बनाने का सपना दिया. उनके अधूरे सपने को साकार किया नजीर साहेब ने. राजेन्द्र बाबू के भोजपुरी भाषी होने ने आपको खूब साहस दिया. हालांकि निर्माता खोजने में काफी समय गुजर गया .पचास से चली गाडी साठ दशक में जाकर मंजिल को आई.इस बीच नजीर को पटकथा पर अन्य भाषा में फ़िल्म बनाने वाले बहुत से निर्माता मिले लेकिन मन में लगन रही कि बनि तो केबल आपन भोजपुरिए में.
आज की फिल्मों का कोई मापदंड तो होना चाहिए ? भोजपुरी सिनेमा में नयी धाराओं की सख्त जरूरत सी है.

नजीर साहेब के प्रयासों को सुजीत कुमार की बेदेसिया ने जारी जरुर रखा .भिखारी ठाकुर को साक्षात अभिनय करते देखना चाह रहे तो राममूर्ति की लिखी बेदिसिया में देखें. बीच बीच में उत्तम स्तर को पाने की ललक दिखाई पड़ती रही लेकिन वो बहुत ही सीमित था.नयी बेदेसिया बनी भी तो ऊलजुलूल .इसलिए कहना चाहिए कि आज का हर भोजपुरी फ़िल्म कलाकार धनी जरुर लेकिन प्रतिष्ठा नहीं पा सका. किसी भी चीज को चलाने का एक मापदंड होता है. भोजपुरी सिनेमा का भी होना चाहिए. सम्मानित व सुसंस्कृत आधार लेकर चलने में आपको परेशानी भला क्या. भोजपुरी फ़िल्म के लोगों को इसकी ख़ास फिक्र नहीं क्योंकि उनके पीआरओ उन्हें हिट करा ही देंगे. तेतीस करोड़ भोजपुरी भाषी पर गर्व करने वाले इंडस्ट्री में तेतीस लोग भी सिनेमा पर गंभीरता से नहीं पहल ले रहें. बिहार का सिनेमा बंबई व फारेन लोकेशन का हो कर रहा गया है. 
आज की भोजपुरी फिल्मो में कामेडी का स्तर भी ठीक नहीं .लोहा सिंह सरीखे लोगों को भुला दिया गया ?

लोहा सिंह रेडियो का एक मशहूर का नाटक किरदार का नाम था जिसे रामेश्वर सिंह कश्यप अदा करते. नाटक की लोकप्रियता आलम यह था कि हफ्ते में जिस दिन इस साप्ताहिक कार्यक्रम का प्रसारण होता लोग पहले से ही रेडियो पास जमा होने लगते. इसकी अपार लोकप्रियता की वजह रही पात्रों की गंवईबोली एवं खुद लोहा सिंह का वो दिलचस्प अंदाज जिसमे खदेरन की मां को संबोधित करते. सबसे बड़ी खासियत यह कि इसका हर एपिसोड व्याप्त सामाजिक कुरीतियों पर खुलकर टिप्पणी करता एवं उनमे परिवर्तन की भी कामना रहती. लोहा सिंह का पात्र इस बुलंदी पर पहुंच गया कि इसके पीछे की आवाज रामेश्वर सिंह कश्यप का नाम छूटता गया एवं आम जन से ख़ास तक लोहा सिंह अमर हो गया. इस महान किरदार की लोकप्रियता को सिनेमा में लाने की पहल पटना निवासी मोहन खेतान ने ली. आपने भोजपुरी में इसी नाम से फ़िल्म तब बनाई जब यहां का सिनेमा कठिन संघर्ष से गुजर रहा था.आज का सिनेमा लोहा सिंह सरीखे उदाहरणों को भूला कर अजीब ही फूहड़ कामेडी रच रहा जोकि वाकई में वो नही एवं दुखद रूप से काम को हिट सुपरहिट भी बता रहा.
नोट : भोजपुरी फिल्मों का सफरनामा को प्रभात प्रकाशन ने जारी किया है.

संपर्क-passion4pearl@gmail.com
 
      

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