आज हृषीकेश सुलभ 60 साल के हो गए. जब हम साहित्य की दुनिया में शैशवकाल में थे तब तब पत्र-पत्रिकाओं में लेखकों की षष्ठी पूर्ति मनाई जाती थी. हिंदी साहित्यकारों का तब एक परिवार जैसा था. अब भारतीय समाज की सामाजिकता ही नहीं हिंदी की अपनी पारिवारिकता भी ख़त्म होती जा रही है. लेकिन अब भी कुछ लेखक ऐसे हैं जिनके सान्निध्य में युवाओं को कुछ छांह मिलती है. उन चंद लेखकों में हृषीकेश सुलभ भी हैं. वे हिंदी की गुम होती सहृदयता, सामाजिकता की अनवरत जलती हुई कंदील हैं. हमेशा अपने आसपास रौशनी फ़ैलाने के लिए तत्पर.
वे लोक के आलोक हैं. विलुप्त होती भोजपुरिया संस्कृति, गायब होती लोक चेतना, हाशिये की संस्कृतियों की जैसे हूक उनकी कहानियों, उनके नाटकों में अनवरत सुनाई देती है. इस ग्लोबल दौर में, युनिवर्सल के दौर में वे स्थानीयता की सबसे मुखर आवाज हैं. मुझे नहीं लगता है कि आज हिंदी में कोई दूसरा लेखक है जिसकी स्थानीयता पर इतनी गहरी पकड़ है, और जो तकनीक प्रधान होते समाज की संवेदन शून्यता को भी इतनी गहराई के साथ पकड़ पाता हो. हाल में ही उनका छठा कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ है- हलंत. इस संग्रह में एक कहानी है ‘उदासियों का बसंत’. सोशल मीडिया के दौर में संबंधों के इनबॉक्स आउटबॉक्स को लेकर इतनी अच्छी और सकारात्मक कहानी दूसरी नहीं पढ़ी मैंने. यह हिंदी की एक क्लासिक कहानियों में है. एक पाठक के रूप में मैं ख़म ठोककर यह बात कहना चाहता हूँ. हिंदी में आलोचना विश्वविद्यालयों के हिंदी प्राध्यापकों के लिए आलू-चना भर बन कर रह गई है. ऐसे में पाठकों की आवाज अधिक विश्वसनीय बन गई है. मैं वैसा ही एक पाठक हूँ जिसे यह कहानी एक ट्रेंडसेटर कहानी लगती है.
असल में, हृषीकेश सुलभ के लेखन की सबसे बड़ी ताकत ही यही है. वे नाउम्मीद के नहीं उम्मीद के लेखक हैं. उनमें सब कुछ नष्ट हो जाने, बदलते चले जाने का हा हंत भाव नहीं है बल्कि इस तेज बदलाव के दौर में भी वे उम्मीदों की डोर को मजबूती से थामने वाले लेखक हैं. अपने लेखन में वे उन सूत्रों को सूक्ष्मता से पकड़ते हैं जिनसे दुनिया आगे बढती है.
एक लेखक के रूप में मैंने भी स्थानीयता को लेकर कहानियां लिखी हैं, अपने गुमनाम शहर सीतामढ़ी को कहानी की दुनिया में मजबूती से स्थापित करने की कोशिश की है. कर पाया या नहीं यह अलग बात है लेकिन इसकी प्रेरणा मुझे सबसे अधिक सुलभ जी से ही मिलती रही है. मुझे याद आता है अंग्रेज कवि स्टीफेन स्पेंडर का वह कथन जो कभी उन्होंने नेहरु को लेकर कहा था कि बड़ा व्यक्तित्व वह नहीं होता है जिसके व्यक्तित्व से हम आतंकित हो जाएँ, जिसकी विराटता में हम खो जाएँ. बड़ा व्यक्तित्व वह होता है जो जिससे प्रभावित होकर हम उसके जैसा बनना चाहते हैं. हृषीकेश सुलभ का व्यक्तित्व ऐसा ही है जो हम जैसे एकलव्यों को इस बात की याद दिलाता रहता है कि इस विराट समय में हम अपनी स्थानीयताओं को न भूलें, जो परम्परा की थाती है उनको पिछड़ा समझ कर छोड़कर आगे न बढ़ जाएँ.
आज उनकी षष्ठी पूर्ति पर यही कामना है कि वे इसी तरह साहित्य के नए मुहावरे गढ़ते रहें और हम लोगों को प्रेरणा देते रहें. जानकी पुल की तरफ से उनको बहुत बहुत बधाई!
-प्रभात रंजन
षष्ठी पूर्ति पर आदरणीय सुलभ जी को हार्दिक बधाई , उनके जैसा लेखक कम ही होते है
सुलभ जी की कहानियां पढ़ते समय पाठक के सामने चलचित्र सा गुजरती है ,और कई दिनों तक मन में एक गहरा असर बना रहता है , बहुत बहुत बधाई मेरे प्रिय आदरणीय लेखक को