Home / ब्लॉग / कलीम आजिज़ की स्मृति में उनकी कुछ ग़ज़लें

कलीम आजिज़ की स्मृति में उनकी कुछ ग़ज़लें

आज ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ में पढ़ा कि मीर की परम्परा के आखिर बड़े शायर कलीम आजिज़ का निधन हो गया. वे 95 साल के थे. इमरजेंसी के दौरान कहते हैं उन्होंने श्रीमती गाँधी के ऊपर एक शेर लिखा था- रखना है कहीं पाँव तो रखो हो कहीं पाँव/ चलना जरा आया है तो इतराए चलो हो‘. इसने उनको बड़ी मकबूलियत दिलाई थी. अभी हाल में ही उनके गज़लों का संकलन वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था- ‘दिल से जो बात निकली ग़ज़ल हो गई‘. सच में बिहार में वे अदब की सबसे बड़ी रवायत थे. उनका जाना उदास कर गया. जानकी पुल की ओर से उनकी स्मृति को प्रणाम- प्रभात रंजन 
=========================

1.
दिन एक सितम, एक सितम रात करो हो
वो दोस्त हो, दुश्मन को भी जो मात करो हो
मेरे ही लहू पर गुज़र औकात करो हो
मुझसे ही अमीरों की तरह बात करो हो
हम खाकनशीं तुम सुखन आरा ए सरे बाम
पास आके मिलो दूर से क्या बात करो हो
हमको जो मिला है वो तुम्हीं से तो मिला है
हम और भुला दें तुम्हें? क्या बात करो हो
दामन पे कोई छींट न खंजर पे कोई दाग
तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो
यूं तो कभी मुँह फेर के देखो भी नहीं हो
जब वक्त पड़े है तो मुदारात करो हो
बकने भी दो आजिज़ को जो बोले है बके है
दीवाना है, दीवाने से क्या बात करो हो.
2.

मुँह फकीरों से न फेरा चाहिए
ये तो पूछा चाहिए क्या चाहिए
चाह का मेआर ऊंचा चाहिए
जो न चाहें उनको चाहा चाहिए
कौन चाहे है किसी को बेगरज
चाहने वालों से भागा चाहिए
हम तो कुछ चाहे हैं तुम चाहो हो कुछ
वक्त क्या चाहे है देखा चाहिए
चाहते हैं तेरी ही दामन की खैर
हम हैं दीवाने हमें क्या चाहिए
बेरुखी भी नाज़ भी अंदाज भी
चाहिए लेकिन न इतना चाहिए
हम जो कहना चाहते हैं क्या कहें
आप कह लीजे जो कहना चाहिए
कौन उसे चाहे जिसे चाहो हो तुम
तुम जिसे चाहो उसे क्या चाहिए
बात चाहे बेसलीका हो कलीम
बात कहने का सलीका चाहिए.
3.

गम की आग बड़ी अलबेली कैसे कोई बुझाए
अंदर हड्डी हड्डी सुलगे बाहर नजर न आए
एक सवेरा ऐसा आया अपने हुए पराये
इसके आगे क्या पूछो हो आगे कहा न जाए
घाव चुने छाती पर कोई, मोती कोई सजाये
कोई लहू के आँसू रोये बंशी कोई बजाए
यादों का झोंका आते ही आंसू पांव बढाए
जैसे एक मुसाफिर आए एक मुसाफिर जाए
दर्द का इक संसार पुकारे खींचे और बुलाये
लोग कहे हैं ठहरो ठहरो ठहरा कैसे जाए
कैसे कैसे दुःख नहीं झेले क्या क्या चोट न खाए
फिर भी प्यार न छूटा हम से आदत बुरी बलाय
आजिज़ की हैं उलटी बातें कौन उसे समझाए
धूप को पागल कहे अँधेरा दिन को रात बताए
4.

इस नाज़ से अंदाज़ से तुम हाय चलो हो
रोज एक गज़ल हम से कहलवाए चले हो
रखना है कहीं पांव तो रखो हो कहीं पांव
चलना ज़रा आया है तो इतराए चले हो
दीवाना-ए-गुल कैदी ए जंजीर हैं और तुम
क्या ठाठ से गुलशन की हवा खाए चले हो
जुल्फों की तो फितरत ही है लेकिन मेरे प्यारे
जुल्फों से जियादा तुम्हों बलखाये चले हो
मय में कोई खामी है न सागर में कोई खोट
पीना नहीं आए है तो छलकाए चले हो
हम कुछ नहीं कहते हैं कोई कुछ नहीं कहता
तुम क्या हो तुम्हीं सबसे कहलवाए चले हो
वो शोख सितमगर तो सितम ढाए चले हैं
तुम हो कलीम अपनी गज़ल गाये चले हो.
5.

मौसमे गुल हमें जब याद आया
जितना गम भूले थे सब याद आया
उनसे मिलना हमें जब याद आया
शेर याद आये अदब याद आया
दिल भी होता है लहू याद न था
जब लहू हो गया तब याद आया
तुम न थे याद तो कुछ याद न था
तुम जो याद आये तो सब याद आया
जब भी हम बैठे ग़ज़ल कहने को
शायरी का वो सबब याद आया
जिस का याद आना ग़ज़ब है ‘आजिज़’

फिर वही हाय ग़ज़ब याद आया
 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

तन्हाई का अंधा शिगाफ़ : भाग-10 अंतिम

आप पढ़ रहे हैं तन्हाई का अंधा शिगाफ़। मीना कुमारी की ज़िंदगी, काम और हादसात …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *