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‘लखनऊ बॉय’ विनोद मेहता का स्मरण

विनोद मेहता का जाना पत्रकारिता के एक मजबूत स्तम्भ का ढह जाना है. उस स्तम्भ का जिसके लिए पत्रकारिता एक मूल्य था, सामाजिक जिम्मेदारी थी. उनकी आत्मकथात्मक पुस्तक ‘लखनऊ बॉय’ के बहाने उनकी पत्रकारिता का बेहतर मूल्यांकन किया है जाने-माने लेखक प्रेमपाल शर्मा ने- मॉडरेटर 
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1941 में मौजूदा पाकिस्‍तान के रावलपिंडी में पैदा हुए और विभाजन की त्रासदी के बाद लखनऊ में पले, पढ़े, बड़े हुए विनोद मेहता को जिन प्रमुख अखबारों, पत्रिकाओं की बदौलत देश दुनिया जानती है वे हैं देबोनायर(1974), संडे ओब्‍जर्वर (1980), इंडियन पोस्‍ट (1987), द इंडिपेंडेंट (1989), पायेनियर (दिल्‍ली) और आउटलुक (1995) । कहने की जरूरत नहीं यह सब अंग्रेजी के अखबार और पत्रिकाएं हैं। इतने अखबारों से जुड़े, उन्‍हें प्रचार और प्रतिष्‍ठा भी दिलाई लेकिन नैतिक साहस की मिसाल छोड़ते हुए बार-बार छोड़ने के कारण वे स्‍वयं को सबसे ज्‍यादा निकाला जाने वाला संपादक भी कहते हैं।विनोद मेहता सिर्फ संपादक ही नहीं लिक्खाड़ भी खूब हैं । उनकी लिखी संजय गांधी और मीना कुमारी की जीवनी भी उतनी ही चर्चित रही हैं जितना कि 2001 में प्रकाशित उनके लेखों का संग्रह Mr. Editor!how close are you to the PM (संपादक महोदय! प्रधानमंत्री को कितने करीब से जानते हैं)?हर बार अखबार शुरू करना,टीम बनाना और फिर किसी नैतिक मुद्दे के तहत लात मार कर आगे बढ़ने की दास्‍तानें इतनी पठनीय है कि जासूसी उपन्‍यास को भी मात दे दे। इंडियन पोस्‍ट, इंडिपेंडेट और टाइम्‍स ऑफ इंडिया ग्रुप के समीर जैन, विजय पंत सिंघानिया के अखबार शुरू करने और बन्‍द करने के किस्‍से भी उतने ही रोचक। मुम्‍बई में इंडिपेंडेंट शुरू हुआ तो उसके संपादक और पूरी टीम को बेहतर पगार और सुविधाएं दी गई। इससे टाइम्‍स ऑफ इंडिया के तत्‍कालीन संपादक दिलीप पडगांवकर,महाराष्‍ट्र टाइम्‍स के गोविंद तलवलकर, इलस्‍ट्रेटड वीकली के प्रीतिश नन्‍दी की भौंहे चढ़ गईं। इन सभी और विनोद मेहता के बीच दुश्‍मनी की रस्‍साकशी देखने लायक है।
25 सितम्‍बर 1989 को इंडिपें‍डेट हाजिर हुआ। अपनी प्रस्तुति, खबर, भाषा में बेजोड़। शोभा डे ने प्रशंसा में लिखा। (पृष्‍ठ 129) किसी ने भी इतने अच्‍छे अखबार की उम्‍मीद नहीं की थी। मीडिया में तो इंडिपेंडेंट को आने से पहले ही खारिज कर दिया  था। अपनी कीर्ति के अनुरूप संपादक विनोद मेहता ने एक बार फिर करिश्‍मा कर दिखाया। एक संपादक के एक दशक में तीन लाजवाब अखबार। अशोक जैन, समीर जैन भी उतने ही प्रसन्‍न हैं सिर्फ दिलीप, के.कृष्‍णन और गोविन्‍द तलवलकर को   छोड़कर। अपने समकालीन इन संपादकों पर भी बहुत संतुलित टिप्‍पणी इस किताब में मिलती है। दिलीप पडगांवकर को विनोद मेहता ने सतत् असुरक्षा से आक्रांत संपादक कहा है और यह भी कि जो शख्‍स यह कहता था कि मैं टाइम्‍स ऑफ इंडिया के संपादक के रूप में देश की दूसरी सबसे महत्‍वपूर्ण कुर्सी संभालता हूँ उनसे ऐसी उम्‍मीद नहीं थी। मालिकों ने दिलीप से सिर्फ झुकने के लिए कहा था। लेकिन वे रेंगने लगे। (पृष्‍ठ 132) पाठकों के लिए बता दें कि इंडिपेंडेंट निकलने के कुछ ही दिनों में कई व्‍यवसायिक प्रतिस्‍पर्धाओं के कारण विनोद मेहता फंसते चले गये। यह विवाद था इंडिपेंडेंट में छपी तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री वाई.बी. चव्‍हाण के  खिलाफ खबर जिसका शीर्षक था अमेरिका के लिए खुफियागिरी के काम में मोरारजी देसाई नहीं, वाई.बी. चव्‍हाण। नतीजा ? 29वें दिन ही विनोद मेहता को इस्‍तीफा देना पड़ा और अखबारों ने उनकी लानत मलानत की वो अलग। इन मलानत करने वालों में शामिल थे ओल्‍वा पेलिस, रफीक जकारिया, नानी पालखीवाला से  लेकर ढेरों पत्रकार। जबकि पीछे मुड़कर देखें तो आज विनोद मेहता का कद सबसे ऊँचा है अपने तत्‍कालीन सभी दिग्‍गजों को पीछे छोड़ते हुए।
एक अच्‍छी किताब को पढ़ने का आनंद शब्‍दों में बयान नहीं किया जा सकता। बहुत किताबों और पत्रिकाओं से गुजरना होता है लेकिन पूरी-की-पूरी किताब में एक शब्‍द, पन्‍ना ऐसा न मिले जिसे आप छोड़ पाएं। किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं विनोद मेहता। डेबोनियर से शुरू की गई यात्रा के बाद जो भी अखबार उठाया वह कामयाबी की सर्वश्रेष्‍ठ ऊँचाइंयों तक पहुंचा। ज्‍यादातर अखबारों में ज्‍यादा नहीं टिके। आउटलुक में सबसे लम्‍बे समय तक। किताब के अंतिम पन्‍नों में सम पीपल्‍स यानी कुछ और लोग अध्‍याय के अन्‍दर उन्‍होंने अपने खास लोगों को याद किया है। जिनमें सबसे पहले उनके कुत्‍ते का नाम है। विनोद मेहता ने अपने कुत्‍ते का नाम एडिटर रखा हुआ है। ऐसी आत्‍मकथा इतनी ही निध्‍वंस भाव से लिखी जा सकती है। इसमें जिन और लोगों को जगह मिली है वे हैं मोहित सेन, विनोद मेहता के दादाजी, साहित्‍य के नोबल पुरस्‍कार विजेता वी.एस. नॉयपाल, विवादास्‍पद लेखक सलमान रश्‍दी, शोभा डे और सोनिया गांधी।
दिमाग में घूम रहे हैं विनोद मेहता के पत्रकार जीवन का एक-एक अध्‍याय। थापर से अचानक मिलना और लखनऊ से हटाकर दिल्‍ली से पायेनियर अखबार की शुरूआत। वर्ष 1992-93 । यह वह समय है जब मंडल आयोग भी चर्चा में था और अयोध्‍या विवाद भी। बाबरी मस्जिद का ढॉंचा टूट चुका था। शरद पवार महाराष्‍ट्र के मुख्‍यमंत्री थे। जनवरी 1993 में बम्‍बई और देश के दूसरे हिस्‍सों में भयानक दंगे हुए। आयोग बने और शरद पवार की भूमिका पर भी सवाल उठा। शरद पवार और तत्‍कालीन दूसरे दिग्‍गज नेताओं को लपेटने के कारण मालिक और नाराज हुए और रातों रात इस्‍तीफा देना पड़ा। वे लिखते हैं मुझसे कहा गया है आप सिर्फ एक मैनेजर हैं बहुत सारे मैनेजरों में से एक इससे ज्‍यादा कुछ नहीं।
      यानी फिर सड़क पर। खाली हाथ। न कोई बैंक बैलेंस, न मकान, न गाड़ी। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर तक जाने तक का किराया नहीं। एक दिन पैदल चलते हुए एक गड्ढे में गिरते गिरते बचे। यह दौर ज्‍यादा नहीं चला और रहेजा और शौरी के साथ मिलकर आउटलुक की संपाकी संभाली। मैनेजमेंट का सीधा इरादा पच्‍चीस वर्ष से पत्रकारिता के आकाश पर छाई इंडिया टूडे समूह को शिकस्‍त देना था। एक अच्‍छा एडिटर वही बन सकता है जो अपनी टीम भी उतनी अच्‍छी चुने। कुछ इंडिया टुडे से आए कुछ इंडियन एक्‍सप्रेस से, कुछ मुम्‍बई से। कुछ क्रिकेट के विशेषज्ञ, कुछ फैशन से, तो कुछ साहित्‍य से। आउटलुक शुरू हुई 1995 में। और तब से 2012 तक उससे जुड़े रहे हैं। इंडिया टूडे और दूसरे प्रकाशनों की उम्‍मीद से कहीं आगे। किसी को भी नहीं लगता था कि एक बिल्‍डर रहेजा की पत्रिका इतनी दूर तक जाएगी और न किसी को यह यकीन था कि इसका संपादक इतने दिन तक यहां टिका रहेगा। आजादी के बाद के सबसे बड़े टेलीफोन घोटाले टू जी, थ्री जी को उजागर करने में आउटलुक की ऐतिहासिक भूमिका रही। विनोद मेहता के सामने नैतिक संकट भी था। मालिक के मित्र टाटा और रिलाइंस दोनों के नाम नीरा राडिया की टेप में थे। इसके अलावा आर्थिक संकट के दिनों के साथी वीर संघवी भी। बरखा दत्‍त भी लेकिन न मालिक ने हथियार डाले, न संपादक ने। पत्रिका और मालिक दोनों के लिए यह सुनहरा इतिहास है। मौजूदा दौर की पूरी पत्रकारिता के लिए अनुकरणीय। पत्रकारों की टीम द्वारा टेप हासिल करना, उनका सुनना,उन पर पड़ने वाले राजनैतिक दबाव पूरी दास्‍तान किसी सुपरहिट फिल्‍म से कम नहीं  है। पाठकों की मदद के लिए 254 से 257 पृष्‍ठों पर नीरा राडिया के साथ इन दिग्‍गजों के संवाद भी पुस्‍तक में शामिल हैं।
      एक और रोचक प्रसंग। थापर के पायेनियर को ठुकराने के बाद आउटलुक का पहला इश्‍यू ही धमाकेदार रहा। दो बम कवर स्‍टोरीकी तैयारी रखी गई और शुरूआत हुई कश्‍मीर की जनता के आजादी के सर्वेक्षण के साथ । जैसा कि स्‍वाभाविक था बम्‍बई के बाल ठाकरे ने आउटलुक पर प्रतिबंध की मांग की । विनोद मेहता लिखते हैं कि मैं बाल ठाकरे का आभारी हूँ। पत्रिका के पहले ही अंक का इससे बेहतर विज्ञापन नहीं हो सकता। दूसरा इश्‍यू प्रधानमंत्री राव की औपन्‍यायिक कृति इनसाइडर के अंशों पर था। बस पत्रि‍का जम गई। कुछ लोग अक्‍सर पूछते हैं कि आप किनको अपना गुरू मानते हैं। विनोद मेहता बड़ी ईमानदारी से कहते हैं कि किसी को भी नहीं। लेकिन फिर भी दो पत्रकारों के नाम गिनाते हैं निखिल चक्रवर्ती- उनकी ईमानदारी और स्‍पष्‍टवादिता के लिए और खुशवंत सिंह की शरारती शैली के लिए। (पेज 164) वे जार्ज वर्गीस, कुलदीप नैय्यर, शामलाल से भी प्रभावित हैं। और भी दिग्‍गजों के नाम उन्‍होंने गिनाए हैं (पेज 259 ) जिनमें फ्रैंक मौरिस, एस. मूलगांवकर, चलपति राव, रोमेश थापर हैं।
क्‍योंकि आउटलुक ने अपने समय का एक लम्‍बा दौर देखा है इसलिए पत्रकारिता की दर्जनों मिसालें किताब में शामिल हैं । शशि थरूर, संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के महासचिव के चुनाव और उनकी नाराजगी।  (पृष्‍ठ 233) पंकज मिश्रा, विलियम डेलियमपर और रामचन्‍द्र गुहा की साहित्यिक तनातनी; पूर्व विदेश सचिव जे.एन. दीक्षित और यू.पी.ए.-1 की नई सरकार से उनकी टकराहट आदि।
      वाजपेयी सरकार के बनने से लेकर 2004 में उसकी हार तक कम-से-कम पचास पृष्‍ठ भी पुस्‍तक में मौजूद हैं। इसमें शामिल लगभग सभी किरदारों के साथ मेहता का एक निजी रिश्‍ता है। वे चाहे वाजपेयी हों, शशि थरूर या रंजन भट्टाचार्य। विनोद मेहता के अनुसार वाजपेयी सरकार जिन लोगों पर बहुत निर्भर थी उनमें सबसे पहले ब्रजेश मिश्र; दूसरे उनके दत्‍तक दामाद नमिता और रंजन भट्टाचार्य और एन.के.सिंह। जो अब जनता दल (यू)से राज्‍यसभा में हैं। एक अच्‍छे पत्रकार के नाते विनोद मेहता की खुन्‍नस किसी से नहीं है। लेकिन एक सच्‍ची पत्रकारिता के उद्देश्‍यों के तहत उन्‍होंने बख्शा भी किसी को नहीं। पत्रकारिता को सत्‍ता का चौथा स्‍तंभ इसीलिए तो कहा जाता है। वाजपेयी दौर में राष्‍ट्रीय राजमार्ग के निर्माण के घोटाले को उजागर करने पर पूरे देश भर में मालिक रहेजा, घरों और सम्‍पत्तियों पर छापे मारे गये। विनोद मेहता ने खुद त्‍यागपत्र की पेशकश की। मालिक रहेजा की तारीफ की जानी चाहिए कि उन्‍होंने विनोद मेहता का साथ दिया।
      पाठकों को याद होगा इसी दौर में क्रिकेट खेल के नाम पर सट्टेबाजी भी खूब चर्चा में रही। इसका क्रेडिट भी विनोद मेहता को कम नहीं जाता। अपने जांबाज पत्रकार अनिरूद्ध बहल की तारीफ करते हुए उन्होंने अजहरुद्दीन से लेकर माधवराव सिंधिया, कपिल देव, प्रभाकर सभी की तरफ इशारे किये हैं।
      विनोद मेहता को आप सभी ने टीवी पर बोलते देखा होगा उससे सौ गुना अच्‍छा इस किताब का गद्य है। सरल, पारदर्शी। बहुत लम्‍बे पेराग्राफ नहीं और न ऐसी अंग्रेजी जो समझने के लिए कम रौब मारने के लिए ज्‍यादा लिखी जाती है। वाकई जो बड़ा लेखक होता है उसकी भाषा, शैली उतनी ही सरल होती है।
      अमिताभ बच्‍चन और ऐश्‍वर्य पर भी उन्‍होंने अपनी शैली में सार्थक कटाक्ष किये हैं। ऐश्‍वर्य की शादी उनके बेटे के साथ होने से पहले उत्‍तर प्रदेश में किसी पेड़ के साथ की गई। कौन से मंदिर और पीर के पास अमिताभ बच्‍चन नहीं गये और दान दक्षिणा नहीं दी। मेहता इस सबको बहुत पीड़ादायक मानते हैं और पूरी तरह से अस्‍वीकार करते हैं। अपनी बात के समर्थन में उन्‍होंने हिंदी के बड़े लेखक राजेन्‍द्र यादव और प्रभाष जोशी की टिप्‍पणी को भी शामिल किया है । राजेन्‍द्र यादव ने हंस में लिखा (पृष्‍ठ 238) कि जिस अमिताभ बच्‍चन के पिता हरिवंशराय बच्‍चन किसी भी मूर्ति के आगे झुकने के खिलाफ थे उनकी पीढि़यों के यहां वहां ऐसे तमाशे करते देखकर अफसोस होता है। यह उनके गहरे असुरक्षा बोध का प्रमाण तो है ही उनकी सांस्‍कृतिक दरिद्रता का भी । प्रभाष जोशी को उद्धृत करते हुए लिखते हैं कि बच्‍चन की इस पीढ़ी को आप कहां रखेंगे? क्‍या आप सोच सकते हैं कि यह परिवार कभी नेहरू के आदर्शों से जुड़ा रहा होगा? 
गंभीर-से-गंभीर विमर्श के बीच विनोद मेहता का चुटीला और अपनी ही मजाक उड़ाता हुआ गद्य बेमिसाल है। जो आदमी सारी उम्र संपादक रहा हो और संपादक भी ऐसा जिसमें बार-बार कभी बम्‍बई धमाकों, क्रिकेट में सट्टा, गुजरात के दंगों,टू जी, थ्री जी घोटाले उजागर किये हों। वे अपने कुत्‍ते को एडिटर कह कर बुलाते हैं। नाम को सुनकर पत्‍नी चकित थीं। विनोद ने समझाया संपादक नाम इसलिए रखा है क्‍योंकि यह अकड़ू, अवज्ञाकारी और अपने को तीसमारखां समझता है। इसे दुनिया में सब कुछ जानने का गुमान भी है। (पृष्‍ठ 278)
नॉयपाल और सलमान रश्‍दी पर लिखी टिप्‍पणियां भी साहित्यिक समझ की बेमिसाल आलोचना कही जा सकती हैं। वी.एस. के बारे में लिखते हैं कि वैसे तो महान लेखक हर समय अपने और अपने काम के बारे में ही मस्‍त रहते हैं, तो उसकी पराकाष्‍ठा हैं। यहां तक कि वे मानते हैं कि जीवित और मृत कोई भी लेखक उनकी बराबरी नहीं कर सकता। मेरे ऊपर किसी भी लेखक का प्रभाव नहीं है। (पृष्‍ठ 292)
पुस्‍तक के पृष्‍ठ-दर-पृष्‍ठ पढ़ते हुए संपादक मेहता की अपने समय के एक साहसी संपादक की छवि बनती जाती है। पायेनियर अखबार में विनोद मेहता को मालिक थापर और उनके सी.ई.ओ. की दखलअंदाजी जैसे ही बढ़ती गई विनोद मेहता एक भरी बैठक छोड़कर बाहर निकल गये। मालिक और उनके चमचों को धता बताते हुए। न कोई दूसरी नौकरी, न घर, न कार, न बैंक बैलेंस (पृष्‍ठ 152)
साहस और मर्यादा दोनों की मिसाल! हमारी पूरी पीढ़ी के लिए एक सबक।
वैसे तो पुस्‍तक का हर पृष्‍ठ ही एक नायाब सबक है। 22 अक्‍टूबर 1988 इंडिया पोस्‍ट में छपा एक संपादकीय मालिक सिंघानिया को नागवार गुजरा। वायु दूत हवाई जहाज में खराबी के कारण दो दुघर्टनाएं हुई थीं जिसमें 164 लोग मारे गये थे। अखबार ने मैनेजिंग डायरेक्‍टर हर्षवर्धन को निकाले जाने का शीर्षक दिया था। हर्षवर्धन, सिंघानिया के करीबी थे। सिंघानिया को लगा कि मैं ऑब्‍जेक्टिव नहीं हूँ। मेहता ने जवाब में लिखा संपादकीय में ये त्रुटि नहीं खोजनी चाहिए। इनमें अखबार का ओपिनियन होता है। उसकी आत्‍मा और दिल दोनों। क्‍योंकि वे अखबार की दुनिया में नये-नये आये थे इसलिए संपादकीय और सूचना में अंतर कर पाना उनके लिए मुश्चिकल था।
पता नहीं साल दो साल की पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में क्‍या पढ़ाया जाता है यानी इस किताब को ही कोर्स में शामिल कर लिया जाए तो पत्रकारिता की पीढि़यां बदल सकती हैं। यों वे साफ कहते हैं कि न मैंने पत्रकारिता की पढ़ाई की, न किसी अखबार में काम किया बस संयोग या सौभाग्‍य कि सीधा संपादक बना। और दशकों तक धक्‍के खाते हुए यही सब सीख पाए। लेकिन एक बात ध्‍यान रखना। यदि मेरे रास्‍ते पर चले तो सीधा जेल पहुंचोगे । (पृष्‍ठ 259)
क्‍या एक अच्‍छा पत्रकार, एक साहसी लेखक को अपने सच की खातिर जेल जाने से डरना चाहिए?   
   
किताब : लखनऊ बॉय ए मेमोएर
लेखक : विनोद मेहता
प्रकाशक : पेंगुइन विकिंग
पृष्‍ठ : 325

 
      

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