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हिंदी सिनेमा की नई ‘क्वीन’

कल घोषित सिनेमा के राष्ट्रीय पुरस्कारों में ‘क्वीन’ फिल्म के लिए कंगना रानावत को सर्वश्रेष्ठ नायिका का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है. प्रियदर्शन का यह लेख ‘क्वीन’ के बहाने सिनेमा की बदलती नायिकाओं को लेकर है. लेख पुराना है लेकिन आज एक बार फिर प्रासंगिक लगने लगा है. आप भी पढ़कर बताइयेगा- मॉडरेटर 
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रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास नौका डूबी की नायिका को जब पता चलता है कि उसका पति बदल चुका है और वह किसी और को पति मानकर रह रही है तो वह पहले आत्मदया में डूब जाती है, फिर आत्महत्या की सोचती है और आख़िरकार अपने भाग्य के भरोसे अपने खोए हुए पति की तलाश में अपना सर्वस्व होम कर निकल पड़ती है। यह गुरुदेव की कथालीला है कि वे अंत में सबको मिलाते हैं और एक बहुत दिलचस्प और मानवीय उपन्यास अपने सुखद अंत तक पहुंचता है।

भारतीय कथा संसार पतियों द्वारा छोड़ी गई, प्रेमियों द्वारा छली गई, घर से निकाली गई, लेकिन घर बनाने-बसाने को बेताब-दृढ़संकल्प स्त्रियों का भी संसार है- शायद कहीं इस मान्यता से अनुप्राणित कि यह स्त्री है तो घर है, संसार है और उसकी धुरी है। यह नहीं रहेगी, या ऐसी ही नहीं रहेगी तो धरती अपनी धुरी से खिसक जाएगी, संसार की लीला उलट-पुलट जाएगी, घर-परिवार बिखर जाएंगे, उनकी रची सभ्यता नष्ट हो जाएगी। जाहिर है, इस कथा-संसार को आभास नहीं है कि उसकी तय दुनिया सिरजने में, उसके घर-बसाने में, उसकी सभ्यता बचाने में स्त्री की अपनी दुनिया किस तरह-तरह तार-तार है, उसके अपने स्वप्न कैसे तहस-नहस हैं, उसका अपना वजूद कैसे बिल्कुल दासीत्व की नियति झेलने को मजबूर है।

बेशक, इस कथा के समांतर कई उपकथाएं भी हैं जो खासकर हाल के वर्षों में खूब सामने आई हैं जिनमें कहीं स्त्री के विद्रोह की कहानी, कहीं उसके दर्द की दास्तान, कहीं उसकी मुक्ति की बेचैनी और कहीं उसकी आज़ादी की राह भी खोजी गई है। हिंदी साहित्य के अलावा हिंदी सिनेमा भी इस स्त्री को बार-बार सिरजता और तलाशता रहा है। दो तरह की स्त्रियों के स्टीरियोटाइप हिंदी सिनेमा में खूब दिखते रहे हैं- एक तो बिल्कुल पतिव्रता, सती-सावित्री, लजीली स्त्री छवि है जो नायक को भाती है और अंत में नायक का घर बसाती है। दूसरी स्त्री छवि सिगरेट के छल्ले बनाती, क्लबों में नाचती-गाती, माफ़िया गिरोहों से लेकर कोठों तक में घिरी हुई उस बागी प्रतिनायिका से बनती है जिसका अंत में उद्धार होना है, जिसे हीरो-हीरोइन को बचाते हुए मारा जाना है- अगर बचना भी है तो हृदय परिवर्तन के साथ। करीब 60 साल पहले आई फिल्म श्री 420 की नादिरा और नरगिस इन दो अलग-अलग स्त्री छवियों की प्रतिनिधि हैं जिन्हें बाद में कई फिल्मों में थोड़े-बहुत बदलावों के बीच- कभी अलग-अलग और कभी साथ-साथ लगातार दुहराया जाता रहा है।

लेकिन इक्कीसवीं सदी की भारतीय स्त्री बदल रही है और उसके साथ भारतीय सिनेमा का नज़रिया भी बदल रहा है, इसे बताने वाली कई फिल्में हाल के दौर में आई हैं। खासकर जो युवा निर्देशक आ रहे हैं, वे छवियों के इस बने-बनाए जाल से बाहर जाकर हाड़-मांस के जिंदा किरदार ख़डे कर रहे हैं। विकास बहल के निर्देशन में बनी पहली फिल्म क्वीनइसका एक बहुत रचनात्मक सबूत है। इस फिल्म की नायिका को उसका पूर्व प्रेमी और भावी पति शादी से ठीक दो दिन पहले छोड़ देता है। दिल्ली के नितांत मध्यवर्गीय और पारंपरिक संसार में पली इस नायिका की पूरी दुनिया ही जैसे उजड़ जाती है। कुछ देर के लिए लगता है, वह आत्महत्या कर लेगी। लेकिन वह ऐसा नहीं करती- जीने की एक दबी हुई भूख उसके भीतर फिर भी सिर उठाती है- देस-विदेश घूमने की तमन्ना के तहत पेरिस में हनीमून मनाने के ख़्वाब के साथ बनवाया गया पासपोर्ट, लिया गया टिकट और बुक किया गया होटल उसे याद आते हैं। और एक दिन अपने आंसुओं और मायूसी के बीच वह घरवालों को बताती है कि वह अकेली ही अपनी हनीमून ट्रिपपर जाएगी। यह असंभव सा लगता ट्रिप लेकिन संभव होता है। दिल्ली से चली एक नितांत मध्यवर्गीय लड़की डरी-सहमी पेरिस पहुंचती है, नामालूम सी भाषा से उलझती हुई, नामालूम से व्यंजनों से जूझती हुई, कहीं पुलिस से घिरती हुई, कहीं लुटेरे से बचती हुई, धीरे-धीरे जैसे अपने जाले साफ़ करती है। इन सबके बीच उसे एक ऐसी दोस्त मिलती है जिसका जीवन उसके अपने जीवन, अपने मूल्यों और अपनी मान्यताओं से काफी भिन्न है। धीरे-धीरे रानी को यह समझ में आता है कि खुलकर शराब पीने वाली और मनचाहे मित्रों से संबंध बनाने वाली यह लड़की अंततः एक भली लड़की है और उसकी सबसे अच्छी बात यह है कि वह अपनी शर्तों पर जी रही है। पहली बार वह पहचानती है कि उस पर कितनी सारी बंदिशें थोपी गई हैं। हल्के नशे में एक जगह उसकी बेबसी उभर आती है- हमारे यहां तो लड़कियों को कुछ भी अलाऊ नहीं हैडकार लेना भी अलाऊ नहीं है। कुछ भी अलाऊ नहीं है। कभी पेरिस से फौरन निकल जाने को बेताब रानी इसके बाद रुकती है और अपनी इत्तिफाक से ही हासिल आज़ादी का लुत्फ लेती है।

लेकिन रानी जब पेरिस से एम्सटर्डम पहुंचती है तो अपनी आज़ादी की शर्तें कुछ और कड़ी होकर उसके सामने खड़ी हो जाती हैं। इस बार उसे ऐसा हॉस्टल मिलता है जहां तीन अनजाने-विदेशी लोगों के साथ उसे ठहरना है। एक बार फिर वह इसके लिए तैयार नहीं है। लेकिन एक बार फिर डरते, सहमते-सिकुड़ते हुए वह पाती है कि दुनिया उतनी भयावह और बुरी नहीं है जैसी उसके लिए बना दी गई है। इस दुनिया में बहुत सारी लड़कियां अपने ढंग से, अपनी शर्तों पर जी रही हैं और आज़ादी और असुरक्षा के हिंडोले में वे कम से कम उस सुरक्षित दुनिया से कहीं ज़्यादा बेहतर हैसियत में हैं जहां वे पति की कठपुतली होकर रहती है। यह दुनिया दरअसल रानी को उसका छुपा हुआ व्यक्तित्व लौटाती है।

ऐसा नहीं कि इस परिवर्तन के साथ रानी कोई क्रांतिकारी लड़की हो उठती है। वह पहले की तरह ही सहज है- बस ख़ुद को पहचान रही है और दुनिया को भी। उसका घूमना दरअसल दुनिया को देखना ही नहीं, दुनिया के आईने में अपने-आप को देखना भी हो जाता है। इसी दौरान ज़िंदगी उसके सामने वापसी का एक विकल्प भी रखती है। जिस पति ने छोड़ दिया था, अब वह उसके पीछे घूम रहा है- लगभग चिरौरी करता हुआ कि वह उसे माफ़ कर दे और अपना ले। वह रानी के लिए पेरिस आता है और फिर एम्सटर्डम भी पहुंच जाता है- बताता हुआ कि सब परिवार में उसका इंतज़ार कर रहे हैं।
इस मोड़ पर हिंदी फिल्मों की नायिकाओं का खोया हुआ सौभाग्य जैसे जाग जाता है। नौका डूबीकी कमला की कहानी वहीं ख़त्म हो जाती है जहां उसका पति उसे पहचान लेता है। लेकिन रानी ने दुनिया के समंदर में तैरते हुए अपने व्यक्तित्व की जो नौका अर्जित की है, उसे वह खोने को तैयार नहीं है।  सुहाग की वापसी के सौभाग्य का यह समारोह अब उसे नहीं चाहिए। वह भारत लौटती है, लड़के के घर जाती है, उसे उसकी अंगूठी लौटाती है और एक थैंक्स बोलकर निकल जाती है।

यह धन्यवाद किस बात का है? इस बात का कि नायक ने उसे छोड़ दिया और दुनिया नायिका की हो गई। अगर यह शादी हो गई होती तो रानी की कहानी शुरू ही नहीं होती। यह हिंदी सिनेमा की नई रानी है- अपने बोलचाल और पहनावे में बेहद मामूली- लेकिन इस मामूलीपन के साथ वह भारतीय समाज में बदलती औरत की छवि का एक सुराग दे जाती है। बेशक, पूरी फिल्म को कंगना रानावत का सहज अभिनय ऐसी विश्वसनीयता प्रदान करता है कि यह फिल्म हमारे लिए यादगार अनुभव में बदल जाती है।

इम्तियाज़ अली की फिल्म हाइवेकी नायिका क्वीन की तरह दबी-सहमी नहीं दिखती- वह कुछ बिंदास है और कुछ रोमांटिक भी। उसे एक खुली दुनिया और उसके ढेर सारे अनुभव चाहिए। रात के वक्त अपने दोस्त के साथ ऐसी ही खुली ड्राइव के बीच उसका अपहरण हो जाता है। आगे की कहनी फिर उसके बदलने की कहानी है। जिस अनपढ़ और खूंखार शख्स ने उसका अपहरण किया है, उसके भीतर भी एक मासूम इंसान बैठा हुआ है, यह वह पहचान पाती है। यह भी कि यह खूंखार शख्स कम से कम उसके उस चाचा से कहीं ज्यादा अच्छा है जो बचपन में उसे चॉकलेट देकर उसका जबरन यौन शोषण किया करता था।

जिस तरह सिहरते और हिचकते हुए आलिया भट्ट अपने भीतर की दबी हुई यह तकलीफ खुरचती है, इसका बयान करती है, वह बहुत मार्मिक है। वह याद करती है कि मां को जब उसने यह सब बताया तब हरक़त तो बंद हो गई, लेकिन उसे बस चुप करा दिया गया। यह लड़की जब किडनैप है तो कहीं ज़्यादा आज़ाद है, घर में भी तो कहीं ज़्यादा असुरक्षित थी।

चाहें तो कह सकते हैं कि क्वीन और हाइवे दोनों एक रोमानी दुनिया रचती हैं। बाहर की दुनिया लड़कियों के लिए उतनी हसीन और आसान नहीं है जितनी इन फिल्मों में है। घर हो या बाहर- इस दुनिया में यौन हिंसा से लेकर सामाजिक वर्जनाओं तक की बेड़ियां जैसे हर क़दम पर किसी लड़की के पांव रोकने को तैयार रहती हैं।

लेकिन इन फिल्मों का मोल यही है कि ये बेड़ियां यहां टूटती हैं, पीछे छूट जाती हैं। दोनों फिल्में अपने सफ़र में उस सहज मनुष्यता की तलाश है जो अब तक लड़कियों के लिए एक मरीचिका रही है। पुरानी फिल्में ऐसी तलाश को भी जैसे कुफ़्र मानती थीं- बेशक, उन फिल्मों में कई बार लड़कियां बहुत साहसी दिखती हैं, विद्रोही भी होती हैं, लेकिन एक हद के बाद वे मर्दवाद की किसी न किसी सरणी में बंधी नज़र आती हैं।

बेशक, लड़कियों के लिए खुलेपन का न्योता भी एक स्तर पर इस मर्दवाद की नई सरणी है। बाज़ार इस खुलेपन के बहुत सारे फायदे ले रहा है- उसने स्त्री को बिल्कुल कटी-छंटी देह में बदल डाला है। लेकिन इसी खेल के भीतर एक खामोश चुनौती सिर उठा रही है जो स्त्रीत्व को नए सिरे से परिभाषित करने की कोशिश और मांग कर रही है, इसे अनदेखा नहीं करना चाहिए। इन दो फिल्मों के अलावा हाल के दिनों में ऐसी बनी ढेर सारी और फिल्में भी हैं जहां यह बदलती हुई लड़की पहचानी जा सकती है। ये सिर्फ बहादुर, जांबाज़ या स्वच्छंद लड़कियां नहीं हैं, लेकिन अपने दिए हुए लड़कीपन को नकार कर अपने स्त्रीत्व का एक नया पाठ गढ़ती, अपने चारों तरफ खींची हुई परिधि को मिटाकर नई रेखाएं बनाती नई लड़कियां हैं। ठीक इसी तरह नहीं, लेकिन अपनी शर्तों पर जीने की मांग कर रही ऐसी ल़डकियां हमारे समाज में बढ़ रही हैं और इनका बढ़ना पुराने घरों और परिवारों की बुनियाद हिला रहा है। जाहिर है, इस नई लडकी को समायोजित करने के लिए घर और परिवार को भी कुछ बदलना पड़ेगा।

 
      

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6 comments

  1. Achchha aalekh… Priyadarshan jee aur Jankipul aapka aabhaar!
    – – Kamal Jeet Choudhay

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