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उमाशंकर चौधरी की कविताएं

उमा शंकर चैधरी की कविताएंः-
उमाशंकर चौधरी की कविताओं का अपना स्वर है जो समकालीन कविता में उनको सबसे अलग बनाता है- उनकी कविताओं का राजनीतिक मुहावरा नितांत मौलिक है- उनका नया कविता संग्रह आया है भारतीय ज्ञानपीठ से- चूँकि सवाल कभी ख़त्म नहीं होते- उसी संग्रह से कुछ कविताएं- मॉडरेटर 
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फिक्र हैं कि उड़ती ही नहीं
वे दिन भी कितने अच्छे थे मेरे दोस्त
जब हमें कोई गम नहीं था
कोई चिंता नहीं थी
हम तब घंटों मुजफ्फरपुर के अघोरिया चौक
और कल्याणी चौक में किया करते थे बतकथनी
वो जवाहर टाकीज और अमर टाकीज में
हमारा सिनेमा दर सिनेमा देखना
माधुरी दीक्षित का बहुत ही नखरे के साथ
पूछा गया वह सवाल
हमारे लिए तब लाख टके का सवाल था
कि चोली के पीछे क्या है
जूही चावला का वह घूंघट की आड़ में अपना मुखड़ा छिपाना
तुम्हें आज भी याद होगा वह दिन मेरे दोस्त जब
तब की सनसनीखेज नायिका दिव्या भारती की मौत की खबर
आई थी हमारे पास अचानक और
तब लगा था हमें जैसे
हमारे शरीर का कोई अंग ही कट गया हो
वो रात के घुप्प अंधेरे को
सिगरेट के गोल-गोल छल्ले में उड़ा देना
तब भूखी रातें और सुन्न पड़े सपनों का
हमें कोई इल्म ही कहां था
न ही काई पड़ चुके तालाब के जल में छपाक से
किसी पत्थर के गिरने की आवाज के प्रति
हमारा कोई मोह ही था
उस ढलवां रास्ते पर चलते हुए बेफिक्र
हमने कब चिंता की थी मेरे दोस्त
कि इस रास्ते की कोई मंजिल नहीं थी
कोई प्रकाश नहीं था
हमने आमगोला के उस धीरे-धीरे सूखते पोखर में
तड़पने वाली मछलियों की तड़प की कोई बेचैन सी आवाज
कब सुनी थी
हीरो और एटलस साइकिल के हैंडिल को संभालते हुए मदमस्त
हमने तब रेलवे लाइन के ट्रैक के दोनों ओर
ढेर सारे टनटनी के पौधों के बढते झाड़-झंखाड़ की
कोई चिंता कब की थी
कब की थी फिक्र तब नई नई उस अर्थव्यवस्था की
उस नए लचीलेपन की
नए व्यापारियों की
पैसों के अथाह सागर की
कब हमने देखना चाहा था उसी अघोरिया चैक पर बाट जोहते बैठे
ढेर सारे मजदूरों की कातर आंखों की लालसाओं को
सिगरेट के छल्ले से रात के घुप्प अंधेरे को उड़ा देने वाले हम
तब कब हमने सोचा था कि
उस छल्ले में रात का घुप्प अंधेरा ही नहीं
हमारा अपना भविष्य भी उड़ता जा रहा है
मुजफफरपुर की सड़कों-गलियों और चौक चौराहों पर
यूं अलहदा घूमते हुए
कब हमने सोचा था कि आगे हमारी जिंदगी में
अंधकार का कोई कतरा भी है
आज जब वर्षों बाद फेसबुक पर तुम्हारा वही चेहरा झांकता है
तब वे सारी बातें इस लम्बे दरम्यां को लांघकर
आ जाती हैं मेरे पास
तब सोचता हूं क्या वह वाकई अच्छा नहीं था
कि हमें कोई फिक्र नहीं थी
वह मौजमस्ती, वह बेफिक्री
वह निश्चिंतता और सिगरेट का वह धुंआ
आज जब चाहता हूं सोचना
चिंता करना
और कुछ आवाजों को इकट्ठा कर शोर मचाना
तब सबसे ज्यादा हमारी आवाज को ही
कर दिया जाता है दरकिनार
जिन-जिन जगहों पर हो सकती है हमारी आवाज की
थोड़ी भी गुंजाइश
उन-उन जगहों पर बैठा दिये गए हैं
उनके अपने नुमांइदे जो हमसे पूछते हैं सबसे पहले
हमारा नाम, हमारी पहचान
और हमारा रंग
मेरे दोस्त तब हम गलत थे या सही, पता नहीं
पर वे दिन कट गए बेफिक्र, निश्चिंत
लेकिन ये दिन बहुत बड़े हैं
जबकि इन दिनों में मैं चाहता हूं कुछ सोचना, कुछ करना
तब ये दिन हो गए हैं बहुत कठिन
और सच कहूं तो अब सिगरेट के धुंए के किसी छल्ले से
ये फिक्र उड़ती ही नहीं।
हमारे समय में रंग
आजकल कुछ रंग हो गए हैं बेहद मनमौजी
बेहद बड़बोले, बिगड़ैल
वे निकल आए हैं बैनीआहपिनाला के दायरे से आगे बहुत आगे
वे निकल आए हैं सड़क पर यहां-वहां हर तरफ-हर तरफ
मन में सोचता हूं रंगों के बारे में
तो सबसे पहले दिखता है रक्त का ही रंग
और सोचता हूं कि सचमुच रक्त का भी अपना एक रंग होता है
बेटी निकालती थी रंगों के बक्सों से रंग
तो लगता था बाहर आसमान इन्द्रधनुषी होता जा रहा है
परन्तु उसी इन्द्रधनुष से कुछ रंग निकल कर आ गए हैं अब सड़क पर
बेखौफ
रंगों के इतिहास को देखें तो
राजा रवि वर्मा से लेकर हुसैन तक
किसी ने कभी सोचा नहीं होगा कि
उनकी कूची से फिराये गए इतने रंगों में से
किन्हीं खास रंगों की हो जाएगी इतनी अहमियत
कब सोचा था वाॅन गाॅग ने उस जूते की तस्वीर बनाते वक्त
कि एक दिन ऐसा भी आयेगा
जब एक रंग बन बैठेगा इस प्रकृति का नियामक
नहीं तो क्या गॉग उस जूते की तस्वीर में भरता कभी काला रंग
अब उसी रंग को देखकर चिड़िया
अपने पंखों को फड़फड़ाना बन्द कर देती है
बन्द कर देते हैं कुछ खास लोग मुस्कराना
और बन्द कर देती है उनकी पत्नियां अपनी रसोई में
बरतन की कोई आवाज, कोई खनक
बन्द कर देते हैं उनके बच्चे
अपनी मां की गोद में दुबके दूध पीने की चुपुर-चुपुर की
मद्धिम आवाज़
यह रंग अब रंग नहीं हमारे देश का वर्तमान है
वर्तमान है, भविष्य है
यहां तक कि इस देश का अर्थतंत्र है
अर्थतंत्र ही नहीं, सूचनातंत्र है
यहीं से बनता है वर्तमान यहीं से बनता है इतिहास
यहीं से बनती है आदमी की जमीन
और यहीं से बनता है उनका आसमान
टेलीविजन पर बढ गयी है अब कुछ खास रंगों की मात्रा
चुभने लगा है आंखों को टेलीविजन पर यह रंग
दिखलाने जाता हूं मैकेनिक के पास कि क्यूं बढ गई है
इस टेलीविजन सेट में कुछ खास रंगों की मात्रा
मैकेनिक देखता है उस टेलीविजन सेट को
और समझने की करता है कोशिश
वह जूझता है टेलीविजन के उस रंग से
और कहता है अब किसी भी टेलीविजन सेट में ऐसा कोई बटन नहीं
कि कर सके नियंत्रित इन रंगों के बड़बोलेपन को
ये हो गए हैं बिगड़ैल
मैकेनिक देखता है उन रंगों के सैलाब को
टेलीविजन सेट पर गौर से
और गिऱ पड़ता है पछाड़ खाकर वहीं बेसुध
उस दिन तो हद ही हो गई
जब मेरी चार साल की बेटी ने खोला अपना रंगों का पिटारा
और रोती हुई दौड़ती आई मेरे पास
कि पापा-पापा मेरे रंग के बक्से में न तो लाल रंग है
और न ही है नारंगी
पता नहीं कहां गायब हो गए हैं मेरे बक्से से ये रंग
पूछती है मेरी बेटी और मैं निरुत्तर हो जाता हूं।

डर
चार साल की बेटी को
तमाम वर्दीधारियों के बीच सिखलाया जाता है स्कूल में
 
      

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4 comments

  1. छोटी बातों पर प्रधानमंत्री कविता बहुत अच्छी लगी । लोकतंत्र की विसंगतियों को उजागर कर दिया उमाशंकर जी ने । ' आजकल के कवि क्या-क्या लिखते हैं ' हम ऐसा तो नहीं कहेंगे बल्कि आपको साधुवाद ही देंगे इतनी अच्छी कविता के लिए ।

  2. छोटी बातों पर प्रधानमंत्री के बहाने बड़ी बात बोल गये, सर! अद्भूत ….

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