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क्या मीडिया समाज की नकारात्मक छवि बनाता है?

अभी हाल में ही वरिष्ठ पत्रकार राकेश तिवारी की किताब आई है- ‘पत्रकारिता की खुरदरी जमीन’. इस पुस्तक में उन्होंने बड़ा मौजू सवाल उठाया है कि आखिर मीडिया ऐसे समाचार ही क्यों प्रमुखता देता जिससे हमारे अंदर निराशा का भाव पैदा होता है, नकारात्मकता पैदा होती है. समाज में अच्छे लोग अभी भी मौजूद हैं, समाज में अच्छाई का पूरी तरह लोप नहीं हुआ- इन पहलुओं से जुड़े समाचार मीडिया में क्यों हाशिये पर रहते हैं? मुझे याद आया कि एक बार विनोद मेहता ने भी यह बात कही थी कि हमें पत्रकारिता में लोकरुचि को ही प्रमुखता नहीं देनी चाहिए बल्कि पत्रकारिता के माध्यम से लोगों तक अच्छे मूल्यों के प्रसार की भी कोशिश करनी चाहिए. कारण यह है कि मीडिया का असर समाज पर बहुत अधिक है.

बहरहाल, पत्रकारिता पर मार-तमाम किताबें आती रहती हैं. आज मीडिया ही एक बड़ी इंडस्ट्री नहीं है, मीडिया प्रशिक्षण भी एक बड़ी इंडस्ट्री है. जिसके लिए दो तरह के लेखकों की किताबें आती हैं. एक तो, बड़े संपादकों की, जिनके लेखों के संकलन को एक सुन्दर सा नाम दे दिया जाता है या विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले प्राध्यापकों की, जिनको पत्रकारिता की ज्यादा हवा नहीं होती है. ऐसी किताबें बहुत कम है जिसमें वरिष्ठ पत्रकारों ने नई पीढ़ी के लिए अपने अनुभव का निचोड़ देने की कोशिश की हो. मुझे एक किताब का ध्यान आता है. अरविन्द मोहन की है- पत्रकार एवं पत्रकारिता प्रशिक्षण. राकेश तिवारी की यह किताब उसके बाद मुझे दूसरी ऐसी किताब लगी जिसमें पत्रकारिता के बदलावों के बीच अपने अनुभवों को नई पीढ़ी के साथ साझा करने का भाव है.

पुस्तक मूलतः प्रिंट की पत्रकारिता को लेकर है. लेखक तकरीबन 30 सालों से ‘जनसत्ता’ के जुड़े हुए हैं. इसकी वजह से पुस्तक में विश्वसनीयता दिखाई देती है. पुस्तक के आरम्भ में लेखक ने लुई फिशर का उदाहरण दिया है कि किस तरह से उसने गाँधी के ऊपर लिखते हुए छोटे छोटे ब्योरों का ध्यान रखा था. उस सन्दर्भ में लेखक का यह मानना है कि अनुभव और अभ्यास से पत्रकार में सलाहियत आती है. लेखक ने लेटर प्रेस के जमाने में भी पत्रकारिता की है, और आज कंप्यूटर युग की पत्रकारिता में भी दक्ष हैं. यह पुस्तक एक तरह से उनके अनुभव और अभ्यास का निचोड़ है. जिनको साझा करते हुए उन्होंने पूरी ईमानदारी बरती है.

पुस्तक में संवाददाताओं के लिए अनेक उदाहरणों के साथ कई महत्वपूर्ण सूत्र दिए गए हैं. जो टीवी के पत्रकारों के लिए भी काम के हो सकते हैं जो पत्रकारिता में सार्वजनिक और निजी के फर्क को अक्सर समझ नहीं पाते हैं. लेकिन इस पुस्तक में तीन अध्याय ख़ास तौर पर मुझे अच्छे लगे, एक तो आचारसंहिता को लेकर लेखक ने बड़े विस्तार से लिखा है. यह बताया है कि प्रेस परिषद् ने जो आचारसंहिता बनाई है वह पर्याप्त है. असली बात है कि उसका ईमानदारी से पालन किया जाए. इसी तरह से, साक्षात्कार को लेकर लेखक ने अपने अनुभवों के आधार पर बहुत विस्तार से लिखा है. मुझे नहीं लगता कि किसी पत्रकार ने इतने विस्तार से इस विषय पर कभी लिखा हो. इसी तरह, सांस्कृतिक पत्रकारिता को ग्लैमरहीन माना जाता रहा है इसलिए उसकी उपेक्षा की जाती रही है. लेखक ने एक सांस्कृतिक पत्रकार की जिम्मेदारियों के ऊपर बखूबी लिखा है. इन तीन अध्यायों के अलावा मुझे पुस्तक में फिल्म पत्रकारिता पर एक अध्याय अलग से देखकर ख़ुशी हुई. आम तौर पर फिल्म पत्रकारिता के ऊपर अलग से लिखा नहीं जाता है.

हाँ, एक सवाल है कि पुस्तक में लेखक का दृष्टिकोण आदर्शवादी अधिक है. पत्रकारिता में जो ग्लैमर आया है, जो पैसा आया है उसे कहीं न कहीं लेखक उस आदर्श से एक विचलन की तरह देखता है. इस बात से पूरी तरह से सहमत नहीं हुआ जा सकता है. लेकिन इस बात से इनकार भी नहीं किया जा सकता है कि पत्रकारिता को पूरी तरह से धंधा तो नहीं ही होना चाहिए. लेखक ने बहुत अच्छा उदाहरण दिया है कि नौवें दशक में जब जनसत्ता ने भर्ती के लिए विज्ञापन निकाला था तो उसमें लिखा था कि केवल पैसे के लिए पत्रकारिता में आने वाले आवेदन न करें. आज मुझे लगता है इस तरह के विज्ञापन की जरूरत है कि केवल ग्लैमर के लिए पत्रकारिता में आने वाले आवेदन न करें!

कुल मिलाकर, ‘पत्रकारिता की खुरदरी जमीन’ पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए बहुत काम की किताब तो है ही उनके लिए भी एक जरूरी किताब है जो पत्रकारिता के बदलावों को समझना चाहते हैं. पुस्तक उदाहरणों से भरपूर है जो इसे विशिष्ट बनाती है.

बहुत जरूरी है कि इस पुस्तक का पेपरबैक संस्करण आये ताकि विद्यार्थियों तक इसकी सहज रूप से पहुँच हो सके.

पुस्तक वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई है. 
 
      

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6 comments

  1. आचार्य हजारी प्रसाद ने लिखा है कि–" बुराई में रस लेना बुरी बात तो है ही पर अच्छाई को उतना ही रस लेकर उजागर करना और भी बुरी बात है ." आय की समस्या अपनी जगह ठीक है लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि समाज को दिशा देने में ( अच्छी या बुरी . सही या गलत ) मीडिया की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है .इस दिशा में अगर सोचा जा रहा है तो यह एक अच्छी खबर है .

  2. आपका ब्लॉग मुझे बहुत अच्छा लगा, और यहाँ आकर मुझे एक अच्छे ब्लॉग को फॉलो करने का अवसर मिला. मैं भी ब्लॉग लिखता हूँ, और हमेशा अच्छा लिखने की कोशिस करता हूँ. कृपया मेरे ब्लॉग पर भी आये और मेरा मार्गदर्शन करें.

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