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मृणाल पाण्डे की कुछ कविताएं

मृणाल पाण्डे के उपन्यासों, उनकी कहानियों से हम सब वाकिफ रहे हैं. उनकी पत्रकारिता से हमारा गहरा परिचय रहा है. लेकिन उनकी कविताएं कम से कम मैंने नहीं पढ़ी थी. हमारे विशेष आग्रह पर मृणाल जी ने जानकी पुल के पाठकों के लिए अपनी कविताएं दी हैं. आप भी पढ़िए- प्रभात रंजन 
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1. 
आत्मकथा बतर्ज़ मीर’                 
मेरी ज़िंदगी कितनी? ठीक ज़िंदगी जितनी।
मेरे कमरे कमरों जितने,              
आत्मा आत्मा जैसी                        
मेरे पिछवाड़े हैं अकेलेपन से पथराये जिगर
सर पर धूप नगाधिराज की                  
यह ज़िंदगी ज़िंदगी भर परदेस की सीढियाँ चढी उतरी बार बार
हवाई जहाज़ों, नावों, घोडों, खच्चरों की सवारी गाँठ कर,
खानातलाशी के लिये इसने अपने कपड़े, मोज़े, जूते, चश्मे-चप्पलें मंगलसूत्र
तक बार बार उतारे और बिना चूं-चपड फिर पहन लिये हैं फिर एक एक कर के
पहुँची, खोली मुट्ठियां, खिडकियाँ भाँय भाँय करते घरों की इसने
कई दूसरों की ज़िंदगी, जानती हूँ इससे कई गुना भरी पूरी थी
उसमें ज़्यादा गहराई थी पर कई
ऐसे भी थे जिनकी इससे कहीं सूनी रही ज़िंदगी
कई बार इससे चुहलबाज़ी भी की है मैंने इस बाबत
कई बार उदास या नाखुश होकर कहा इससे
कि कोई और घर कर ले, मेरा पीछा छोड़,
पर जब भी घूम फिर कर वापस लौटी
तो इसे भूखी प्यासी बैठी पाया अपने इंतज़ार में
देख लेती है वो चारसू अच्छी तरह
चुपके से फिर पूछती है मीरतू अच्छी तरह?’ 
2.
घोंघा

देवियो और सज्जनो मैं एक घोंघा हूँ,
मेरे एक पूँछ और दो शर्मीले सींग हैं,
और मेरी पीठ पर मेरा घर है,
जिसकी चूनेदार गहराइयों में सींग पूँछ छिपाने को मैं पूरी तरह आज़ाद हूँ,
इतनी कि अगर गुड़ी मुड़ी होकर उसके भीतर घुस जाऊँ तो,
आप ढूँढे से मुझे नहीं पायेंगे, और आपके लाखठक ठकाने के बावजूद घर
लुढकता रहेगा एक निरुत्तर फूहडपने में |

 3.
खडी औरत, एक शबीह
मर्द गये काम पर
लाम पर
बच रही वह अपने
कर्कश कौवों, अनलगे बिछौनों और झगडती बिल्लियों के मुँहजोर साम्राज्य में
खुजलाती, टोहती, सहलाती औरत पुकारना शुरू करती है,
कुम्हार को, सुनार को, सुतार को, लुहार को, मनिहार को
एक मुडा तुडा अलसाव खूँट से खोल कर दिन भर भुनाती हुई
उसके कुछ कुछ कँपते ढलके स्तनों की भारी पतवार
भुंसारे को दुपहर तक ढकेलती है
फिर वह गोता लगा देती है कुछ देर तक
अपने अथाह समंदर की तलहटी में जहाँ उसके बाल
समंदरी काई की तरह लहराते हैं
घोंघों, सूँसों, बिन पैर के समंदरी घोड़ों
और अंधी मछलियों के निर्द्वंद्व झुंडों को चौंकाते हुए
शाम गये औरत तलहटी से ऊपर आती है
कुछ देर वह तकती है मुँडेर पर भागते बिल्ले को
फिर बा देती है एक बदबूभरा प्रागैतिहासिक संसार
जहाँ न मिहराबें हैं न कंगूरे
न उनके बीच फेंकी जानेवाली गोली गोली भाषा
शबीह के पीछे झाँकती हैं कुछ आनंदभरी खुजलियाँ
कुछ सहलाई गई खरोंचें और चंद चाटे गये घाव
और वह भौंचक्का बिल्ला जो यूँ ही कभी झाँकने चला आया था
4. 
फूलन के लिये एक शोकगीत
सिरहाने आहिस्ता बोलेंगे लोग
तेरे नहीं, ‘मीर’ के
क्योंकि बिना रोये बिना धोये
तू बस टुक से सो गई
तेरे सिरहाने पैताने बस अब इक शोर है
नेता अभिनेता, अंग्रेज़ी में गोद लेकर तुझे फोटोजेनिक बनानेवाले परदेसी
सबकी वंस मोर वंस मोर है
सिरहाने आहिस्ता बोलेंगे लोग, तो तेरे नहीं, ‘मीर’ के
बीहडों के सतर्क साये सरका किये थे लगातार तेरी निगाह में
एक घायल शेरनी सी जब तू चहलकदमी किया करै थी
अपने को कभी बीसगुना, कभी सौगुना गिनती हुई,
खबरें तेरी बहुत करके बस अफवाहें ही हुआ करतीं थीं
कोई वीरानी सी वीरानी थी, जिसे तू रोज़ जिया करती थी
अब तो हवाई अड्डे पर जो छूट गया ज़माना भर है
बाद तेरे बच रहने का बहाना करे सो शबाना भर है
‘मोमिन ‘ को कितनी फिक्र रहती थी तेरी तू नहीं जान सकी कभी,
के ‘तू कहाँ जायेगी कुछ अपना ठिकाना कर ले
सिरहाने आहिस्ता बोलेंगे लोग
तेरे नहीं ‘मीर’ के, अय फूलन!
क्योंकि बस टुक से सो गई तू एक रोज़
पर न रोई
न रोई
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5 comments

  1. अद्भुत है | कविता जीवन की तमाम पर्तों को छुते हुए बात करती है |धन्यवाद | एक बड़े संपादक की कविताओ़ से परिचित करवाने हेतु |

  2. वाह ! बहुत ही समर्थ कवितायें है। एक महान लेखिका एक उत्तम कवयित्री भी है… शुक्रिया इन कविताओं से रूबरू करवाने हेतू ॥

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