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जिसे किम्वदंती समझते रहे आखिरकार वह इतिहास का हिस्सा हो गया!

राजकमल चौधरी ने लेखन में बनी-बनाई हर लीक को तोड़ने की कोशिश की, हर मानक को ध्वस्त किया. कल जब राजकमल चौधरी रचनावली का लोकार्पण हो रहा था और मंच से मैनेजर पाण्डेय उनकी महानता को लेकर वक्तव्य दे रहे थे, जिसके बारे में मैंने गीताश्री जी की फेसबुक वाल पर पढ़ा तो लगा कि राजकमल चौधरी की मौत के 48 साल बाद ही सही विद्वानों का स्वर उनको लेकर बदलने लगा है, आलोचकों का मौन टूटने लगा है. उन्हें इतिहास में जगह देने की कवायद शुरू हो गई है. 

महज 35 साल की उम्र तक जिसका लेखन कैरियर रहा हो और जिसने उस दौरान साढ़े चार हजार पृष्ठ लिख डालें हों. मछली मरी हुई जैसा उपन्यास, जलते हुए मकान में कुछ लोग जैसी कहानी, जिसका न तब कोई सानी था न अब कोई सानी है. मुझे ख़ुशी है कि अंततः इतिहास ने उनके साथ न्याय किया, बहुत देर से ही सही लेकिन किया. शायद हमारे आलोचना के औजार इतने तेज नहीं थे कि उनकी रचनाओं की धाह को बर्दाश्त कर पाते. उनका लेखन हर बने बनाए फ्रेम से बाहर निकल जाता था. 

मुझे याद आता है 90 के दशक में जब पढ़कर थोडा-बहुत लिखना शुरू किया था तो उस दौर में अपने अग्रज लेखक प्रियदर्शन से मुलाकातें होती थी. वे एक बड़ी अच्छी बात कहते थे कि हम मोहभंग की पीढ़ी के लेखक हैं. सारे विचार, सारी आस्थाएं, सारे मोह टूटते से लगने लगे थे. उसी दौर में राजकमल चौधरी का आकर्षण बढ़ा था. उस पीढ़ी ने राजकमल चौधरी का पुनराविष्कार किया था. 

आखिर क्या था उनमें, आखिर क्या है उनमें? कल जब नीलाभ ने अपनी फेसबुक वाल पर यह लिखा कि राजकमल जीते जी किम्वदंती बन गए थे तो यह बात अच्छी लगी क्योंकि उनका आकर्षण उनके इसी किम्वदंती बन जाने के कारण कहीं न कहीं था. एक ऐसा लेखक जो हमारे मन की अँधेरी दुनिया को उघाड़ कर रख देता था. आज फेसबुक के दौर में जब इनबॉक्स में लोगों के मन का अँधेरा उतरने की बातें आम हो गई हैं, आज राजकमल हमें अधिक करीब लगने लगे हैं- वह राजकमल जो वर्जनाओं से भाषा को, लेखन को मुक्त करना चाहता था. 

मुझे हँसी आ रही थी जब रचनावली के संपादक देवशंकर नवीन राजकमल चौधरी की अराजक होने की छवि को लेकर डिफेंसिव हो रहे थे. राजकमल को किसी डिफेन्स की जरूरत नहीं थी, नहीं है. वे इसीलिए महान हैं क्योंकि वे वैसे थे.

यह हिंदी का झूठा नैतिकतावाद है जिसकी वजह से भुवनेश्वर को पागल हो जाना पड़ता है, समाज की नजरों से ओझल हो जाना पड़ता है, राजकमल चौधरी को महज 37 साल की उम्र में संसार के कूच कर जाना पड़ता है. हिंदी समाज इस कदर मध्यवर्गीय मानकों में मुब्तिला है कि वह विराट प्रतिभाओं को पचा नहीं पाता, उन्हें खुले दिल से अपना नहीं पाता है.

यह स्वागतयोग्य बात है कि उनकी मौत के 48 साल बाद ही सही राजकमल चौधरी रचनावली का प्रकाशन हुआ और कुजात समझे जाने वाला लेखक किम्वदंती से इतिहास का हिस्सा बन गया. इसके लिए संपादक देवशंकर नवीन का जितना आभार प्रकट किया जाए कम है. राजकमल प्रकाशन का धन्यवाद भी बनता है कि उसने राजकमल रचनावली का प्रकाशन करके राजकमल चौधरी के मूल्यांकन, पुनर्मूल्यांकन के लिए आधार तैयार किया है.

एक समय आएगा जब हिंदी में मेरे जैसे लेखक प्रेमचंद की परम्परा से नहीं बल्कि राजकमल चौधरी की परम्परा से खुद को जोड़ेंगे. उस लेखक की परंपरा से जिसने हमें साहस के साथ लिखना सिखाया.  
 
      

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2 comments

  1. मित्र, सन् 60 के दशक का वह मेरा एक प्रिय कथाकर-कवि सचमुच किंवदंती से इतिहास बन रहा है। हिंदी जगत का ध्यान उसकी ओर आकर्षित हुआ है। मेरी खतो-किताबत थी उनसे, हालांकि आज ट्रासंफरों की जिंदगी में वे पत्र कहीं पीछे छूट गए। मैं उनकी कहानियों और कविताओं को मन से पढ़ा करता था। उनका उपन्यास ‘मछली मरी हुई’भी मैंने पढ़ा था। ‘जलते हुए मकान में कुछ लोग’ भी। ‘देहगाथा’और ‘मुक्ति प्रसंग तो हैं ही मेरे पास। उन्हें तब कई लोग एक अराजक लेखक मानते थे और कुछ इस तरह की खबरें छपा करती थीं कि,…राजकमल चौधरी किसी को लेकर दरभंगा से कहीं और भाग गया है…वगैरह। आज राजकमल चौधरी के बारे में आपके शब्द पढ़कर बहुत अच्छा लगा। मैंने 6 जुलाई 2013 को उन्हें याद करते हुए यह टिप्पणी लिखी थी:

    राजकमल चौधरी की पुण्यतिथि है आज। 45 वर्ष पहले 1966 में पटना अस्पताल के राजेन्द्र सर्जिकल ब्लाक के ई-वार्ड में भर्ती राजकमल चौधरी ने अपनी लंबी कविता ‘मुक्ति प्रसंग’ लिखी थी, जिसे उन्होंने पुस्तक रूप में प्रकाशित किया और मित्रों-परिचितों को भेजा। मूल्य था सजिल्द तीन रूपए और अजिल्द दो रूपए। मूल्य क्या था, एक कवि के इलाज के लिए सहयोग राशि थी वह। मुझे उनकी भेजी ‘मुक्ति प्रसंग’ की प्रति 16 सितंबर 1966 को मिली थी जिसे मैंने सहेज कर रख लिया। जब-जब मन हुआ, पढ़ा। आज फिर पढ़ रहा हूं…पढ़ रहा हूं राजकमल चौधरी का वात्सायन जी के पत्र के उत्तर में लिखा-छपा कि,…. ‘‘मैं अपने अतीत में राजकमल चौधरी नहीं था। भविष्य में यह प्रश्नवाचक व्यक्ति और इस व्यक्ति की उत्तर-क्रियाएं बने रहना मेरे लिए संभव नहीं है। क्योंकि, मैं केवल अपने वर्तमान में जीवित रहता हूं। इस अस्वस्थ्य वर्तमान में मेम साहब और चंदमौलि उपाध्याय की अलौकिक निकटता-निजता मुझे उपलब्ध हुई है। अतएव, मुक्ति प्रसंग मेरा वर्तमान है।”
    और यह भी कि,
    …. ‘‘पिछले साल भर के अखबार
    रेडियोसेट कवियों और प्रकाशकों के पत्र टेलीफोन पुरानी पांडुलिपियां
    मनी-प्लांट की लताएं वर्षों से बंद दीवार-घड़ी
    कलैंडरों में सोए हुए बच्चे हरिन फूल
    चिड़ियां झरने पहाड़ी गांव औरतें चाय के बगान
    बचपन का प्यारा अलबम अपनी छोटी मां का हाथ थामे हुए चकित मैं
    हरसिंगार के नीचे खड़ा हूं
    पराजय के तीस वर्षों में एकत्र की गईं धर्म सेक्स इतिहास
    समाज-परिकल्पना ज्योतिष की किताबें डाक-टिकट
    सिक्के सोवेनिर
    मैं बड़े डाक घर के बहुत बड़े लेटरबाक्स में डाल आया
    वापस आकर अपनी स्त्री से मैंने कहा पुलिस पत्रकार कवि-मित्र पार्टी-कामरेड
    कोई भी मिलने आए सूचित करना है-
    सब के लिए सब के हित में अस्पताल चला गया है
    राजकमल चौधरी”…
    मैं, एम.एससी. का छात्र, राजकमल चौधरी की कहानियों, कविताओं का पाठक था और उन्हें पत्र लिखा करता था। तब चर्चित लेखक-कवि भी अपने पाठकों से पत्र-संवाद बनाए रखते थे।
    उस प्रिय कवि, कहानीकार राजकमल चौधरी की स्मृति को नमन।

    – देवेंद्र मेवाड़ी

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