26 जून को देश-विदेश के फिल्म समारोहों में धूम मचा चुकी अविनाश अरुण की मराठी फिल्म ‘किल्ला’ रीलिज हो रही है. फिल्म के ऊपर बहुत सम्मोहक लेख लिखा है मिहिर पंड्या ने. आप भी पढ़िए- मॉडरेटर
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हर रचनाकार को आत्मकथा लिखना नसीब नहीं होता। लेकिन इनमें बहुत ऐसे भी हैं, जिन्हें उसकी ज़रूरत नहीं महसूस होती। दरअसल इनकी आत्मकथाएं इनकी गल्प रचनाओं के पोरों से रिसती हैं। अविनाश अरुण की ‘किल्ला‘ ऐसी ही इक आत्मकथात्मक आभा वाली फ़िल्म है जिसे उन्होंने अपनी स्मृतियों के महीन धागों से बुना है। फ़िल्म की रिलीज़ के हफ़्ते पहले ‘मिंट‘ के उदय भाटिया को दिए साक्षात्कार में वे इस बात का ज़िक्र करते हैं कि किस तरह स्वयं उनके बचपन की एक निर्णायक घटना की याद, जब उनके ही किसी मित्र ने उन्हें पीछे से धक्का देकर अँधे कुएं में धकेल दिया था, उनकी पहली फ़िल्म के मध्य आए शायद सबसे विहंगम प्रसंग का उत्स बनती है। लेकिन शायद इसी सुनहरे मोड़ पर जाकर उनकी यह निजी स्मृतियाँ सिनेमा देखनेवाले की साझा स्मृतियों में बदल जाती हैं। अपनों की भीड़ में अकेला छूट जाने का वह अादिम भय जिसे अाधुनिक नागर सभ्यता कभी हर नहीं पाई। भीतर के मुलायम को किसी कोटर में बन्द कर लेने की अादत जो किसी अात्मीय द्वारा किए विश्वासघात से उपजती है। स्मृतियाँ, भय, अादतें जिन्हें अाप हाथ बढ़ाकर छू सकते हैं।
‘किल्ला‘ भी मैंने बीते साल अन्य मराठी फ़िल्म ‘कोर्ट‘ के साथ मैकलॉडगंज के TIPA सभागार में ‘धर्मशाला अन्तरराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव‘ के दौरान देखी थी। यह फ़िल्म को सर्वश्रेष्ठ मराठी फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिलने से पहले की बात थी। ‘हंस‘ के लिए लिखे इस अालेख के बाद अौर इस शुक्रवार को फ़िल्म की अखिल भारतीय रिलीज़ से पहले निर्देशक अविनाश अरुण अपने सीने पर कुछ अौर गौरवशाली तमगे लटका चुके हैं। उनकी शूट की हुई फ़िल्म ‘मसान‘ इस बीच कान फ़िल्म फेस्टिवल के प्रतिष्ठित ‘अन सर्टेन रिगार्ड‘ में चयनित हुई अौर निर्देशक नीरज घायवान वहाँ से एक नहीं दो पुरस्कार अौर अनथक, असंख्य तालियों की गड़गड़ाहट जीतकर लौटे। अविनाश के काम अौर उनकी निर्दोष निरंतरता को देखें (सहायक के रूप में उनके खाते ‘लुटेरा‘ अौर ‘काय पो चे!‘ जैसी फ़िल्में हैं) तो कहना न होगा कि हम हमारे दौर के सबसे संभावनाशील सिनेमैटोग्राफ़र के सबसे बेहतरीन में बदलने की निर्माण प्रक्रिया को अपनी अाँखों के सामने साक्षात घटता हुअा देख रहे हैं।
दो हफ़्ते पहले एक छोटी सी चमत्कारी तमिल फ़िल्म ‘काक्का मुत्ताई‘ ने अापका मन भरमाया था। इस हफ़्ते यह बारी मराठी फ़िल्म ‘किल्ला‘ की है। अगर यह फ़िल्म अापके शहर में लगी है, तो इस सप्ताहांत इसे मौका दें। मेरा वादा है कि अाप निराश नहीं होंगे।
‘किल्ला‘ देखना किसी रूठे हुए जिगरी दोस्त से सालों के अन्तराल के बाद मिलने की तरह है। इसमें उदासी भी है, उन बीते सालों की जब वक़्त हाथ से छूटता रहा अौर दोस्त की बेतरह याद अाती रही। इसमें बेचैनी भी है, उस पल को पकड़ लेने की चाहत जिसका सालों इन्तज़ार किया अौर अाज अचानक समयचक्र ने उसे सामने ला खड़ा किया है। इसमें ठहराव भी है, जब दौड़ती ज़िन्दगी में अचानक अासपास की दुनिया की तमाम गतिविधियाँ अापके लिए रुक जाती हैं अौर सब कुछ उसी पल में सिमट अाता है। अौर इन सबके ऊपर इसमें निस्संगता भी है, कि दोस्त के चले जाने से दोस्तियाँ नहीं जाया करतीं। कि ज़िन्दगी का नाम चलते रहने में है। ‘किल्ला‘ की कोमलता मुझे भाषा में कविता कहने वाले, सदा मुंह में छालों वाले किसी पहाड़ी कवि की कविताअों की याद दिलाती है। यह उन फ़िल्मों की सूची में शामिल होगी जिसकी स्मृति को अाप फ़िल्म ख़त्म होने के बाद सिनेमाघर के अंधेरे में छोड़ने की बजाए किसी नवजात ख़रगोश के बच्चे की तरह नज़ाकत के साथ अपने सफ़री झोले में रख साथ घर ले जाना चाहेंगे।
लड़कपन की दहलीज़ पर खड़ा चिन्मय (अर्चित देवधर) अपनी माँ के तबादले की वजह से ‘बड़े शहर‘ पूना को छोड़ कोंकण के किसी छोटे से कस्बे में अाया है। ‘किल्ला‘ की कथा हमें ग्यारह वर्षीय चिन्मय के जीवन संसार के भीतर ले जाती है। इसमें एक अोर है चिन्मय का अपनी कामकाजी माँ (अमृता सुभाष) से रिश्ता जहाँ पिता के असमय चले जाने की ख़ामोश उदासी घुली है, वहीं दूसरी अोर है कस्बे के स्कूल में चिन्मय के नए बने दोस्तों का संसार जहाँ बेपरवाह दिखती दोस्तियों में गहरे छिपी व्यक्तिगत प्रतिस्पर्धाअों अौर रूठने-मनाने के अबोले दायरों के मध्य वह ज़िन्दगी के कुछ सबसे महत्वपूर्ण सबक सीखता है। बीती कुछ अन्य क्लासिक मराठी न्यू-वेव की फ़िल्मों की तरह (जिनमें सुजॉय दहाके की ‘शाला‘, उमेश विनायक कुलकर्णी की ‘विहीर‘ अौर हाल में चर्चित हुई नागराज मंजुले की ‘फैंड्री‘ शामिल हैं) अविनाश अरुण की ‘किल्ला‘ भी मुख्यधारा सिनेमा द्वारा अामतौर पर अनछुअा छोड़ दिये गए उमर के उस पड़ाव को टटोलती है जिसे हिन्दुस्तानी में ‘किशोरवय‘ की दहलीज़ कहा जाता है। लेकिन इन्हें अाप फ़र्जी किस्म के भोलेपन के साथ बाँध दी गई ‘बाल-फ़िल्म‘ की पूर्वनिर्धारित श्रेणी में डालने की ग़लती बिल्कुल ना करें। इस नए दौर के मराठी सिनेमा की यही ख़ास बात है कि यह फ़िल्में उमर के इस नाज़ुक पड़ाव को पकड़ते हुए इसकी जटिलताअों से बचने की कोशिश नहीं करतीं, बल्कि उनका पूरा ईमानदारी से सामना करती हैं। चिन्मय के दोस्तों की अापसी प्रतिस्पर्धाएं अौर उनके बीच बदलते संबंधों के मध्य कहीं भी फ़िल्म इन किरदारों का एकायामी चित्रण नहीं करती। ना यहाँ क्लास का सबसे अमीर लड़का युवराज खल पात्र है अौर न बदमाशी में अव्वल बंड््या। कथा चिन्मय के चरित्र को केन्द्रीयता देने की कोशिश में किसी अन्य किशोर से अौर उसके निरंतर नवनिर्मित हो रहे अनुभव संसार से नाइंसाफ़ी नहीं करती। युवराज का किरदार, जो पहले चिन्मय का प्रतिद्वंद्वी अौर बाद में सबसे अच्छा दोस्त बन जाता है, इस भाव निष्पक्षता का सबसे बेहतर उदाहरण है।
‘किल्ला‘ जितनी उसकी कथा में है, उससे कहीं ज़्यादा उसकी गतिमान तस्वीरों में है, उसकी ख़ामोश ध्वनियों में है। यह संवादों से ज़्यादा मौन से भावों की अभिव्यक्ति करती है। फ़िल्म के एक निर्णायक मोड़ पर जहाँ चिन्मय विकराल बरसात के मध्य किले के भीतर अकेला छूट गया है अौर अचानक उसके अवचेतन में बसे सारे डर उसे अपनी आँखों के सामने जीवित दिखाई देने लगे हैं, वह चिल्लाता है। फ़िल्म यहाँ अद्भुत प्रयोग के चलते उसकी आवाज को मूसलाधार बरसात की घनीभूत ध्वनि के पीछे छिपे मौन में बदल देती है। इस प्रयोग की वजह से न सिर्फ़ हम उसके दोस्तों से अलग अकेला छूट जाने के तात्कालिक डर को जान पाते हैं, उसके अवचेतन में बसे पिता की मृत्यु से उपजे अकेलेपन से भी परिचित होते हैं। यहाँ कथा में मौजूद वास्तविक किला दरअसल अबोले की उन अभेद्द भावनात्मक दीवारों का प्रतीक है जिसे छोटा-बड़ा हर इंसान अपने दुख को ‘अद्वितीय‘ समझ अपने मन के चारों अोर रच लेता है। ‘किल्ला‘ देखते हुए उमेश विनायक कुलकर्णी की लघु फ़िल्म ‘घिरणी‘ अौर उनकी बेहतरीन फीचर फ़िल्म ‘विहीर‘ बेतरह याद अाती हैं। यहाँ यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि अविनाश स्वयं उमेश कुलकर्णी के सहायक के तौर पर लम्बे समय तक काम कर चुके हैं। ‘गिरणी‘ की तरह ही यहाँ भी किशोरवय कथानायक के पिता सिर्फ़ तस्वीर में मौजूद हैं अौर पिता की यह अनुपस्थिति यहाँ बड़े होते कथानायक के मनोभावों को रचने वाला महत्वपूर्ण कारक बन जाती है। कथा में चिन्मय के अपनी माँ से संबंधों की परतों को उघाढ़ने वाला वह प्रसंग महत्वपूर्ण है जहाँ समन्दर किनारे स्थित अंतिम लाइटहाइस की छत पर दोनों माँ-बेटे अनुपस्थित पिता को याद करते हैं। यहाँ चिन्मय द्वारा अाँखों में अाँसू भरे माँ का अाश्वस्तिदायक मुद्रा में पकड़ा हुअा हाथ बताता है कि कैसे अबोध उमर में पिता की मृत्यु से उपजे ख़ालीपन से जूझ रहा लड़का हमारे समाज में बचपन के पूरा बीतने से पहले ही ‘बड़ा‘ हो जाता है।
पावस के महीने में मूसलाधार बरसते बादलों के बीच अविनाश अरुण कोंकण को उसकी अनछुई काया में टटोलते हैं। एफ़टीअाईअाई के पढ़े अविनाश मूलत: सिनेमैटोग्राफर हैं अौर इससे पहले ‘लुटेरा‘ जैसी अपने विज़ुअल के लिए सराही गई फ़िल्म के छायांकन पर काम कर चुके हैं। अविनाश अरुण अपनी फ़िल्म ‘किल्ला‘ के सिनेमैटोग्राफर भी हैं। यहाँ अरुण किसी चित्रकार की तरह अपने फ्रेम गढ़ते हैं। समन्दर किनारे बसा यह ठहरा हुअा कस्बा बारिशों के बाद जैसे एक नई पोशाक पहनता है। यह समन्दर की लहर के लौटने के बाद रेत के कोरे किनारे पर पहला पैर रखने की तरह है। उन्होंने किरदारों की भीतरी उदासी को परदे पर फ़िल्माने के लिए इंडोर दृश्यों को लट्टू की सघन पीली रौशनी में फ़िल्माया है अौर इस उदास पीले का विलोम वे बरसात, समन्दर अौर अाकाश के अासमानी नीले के साथ अपने अाउटडोर दृश्यों में रचते हैं। पानी स्वयं यहाँ सबसे बड़ा मैटाफर है। पानी ही यहाँ बाँधता है अौर पानी ही यहाँ किरदारों को बंधनों से अाज़ाद कर देता है। स्वयं चिन्मय को उलझन के क्षणों में अनजान सहयात्री के साथ एक डगमग डोंगी पर की गई अनन्त अनिश्चित समन्दर की यात्रा अागे का रास्ता सुझाती है अौर निडर होकर अपने डरों का सामना करने का हौसला देती है। यहाँ किरदारों के मन का बोझ जब पक जाता है तो वे भरी बरसात में छाता ‘भूलकर‘ निकल जाते हैं, अौर मुझे चैप्लिन की कही वो बात याद अाती है जिसमें वे बरसात को अपना दोस्त बताते थे जो अाँखों से नमकीन पानी बनकर निकलते दुख को अपने अाँचल में छिपा लेती है।
‘किल्ला‘ अात्मकथात्मक फ़िल्म है, लेकिन भिन्न क़िस्म से। यहाँ सिनेमा सिर्फ़ बनानेवाले की अात्मकथा न होकर देखने वाले की ज़िन्दगी का अात्मकथात्मक अंश हो जाती है। यह फ़िल्म कथा है माँ के तबादले के चलते ‘बड़े शहर‘ पूना से वापस कोंकण के किसी देहाती कस्बे में लौटने वाले ग्यारह साल के चिन्मय की। लेकिन इसे देखने वाले हम उसी देहात को छोड़ शहर के मेले में अा पहुँचे हैं। अौर ऐसे में ‘किल्ला‘ हमारी किशोर स्मृतियों की कथा बन जाती है। लेकिन जो बात ‘किल्ला‘ को नॉस्टेलजिया जगाने वाली अन्य भोली कथाअों से अलग अौर एक पायदान ऊपर लेकर जाती है वो इसका नॉस्टेल्जिया को मृत अतीत के पीछे छूटे हिस्से की तरह दुखी भाव से देखने का भाव नकार कर उसे गतिशील वर्तमान का हिस्सा बनाने की समझ। अपने अंतिम दृश्यों में ‘किल्ला‘ धूप-छाँव के खेल वाले जिन गतिशील दृश्यों को रचती है, वह उसकी शुरुअाती चित्रात्मक भाषा से अलग है। चिन्मय मोह के भंवर में जितना गहरे उतरता है, उतना ही वो अाज़ाद होता चला जाता है। यह बात समझने में उसे थोड़ी देर लगती है, शायद हमें भी। लेकिन ज़िन्दगी की गतिशीलता सदा चलते रहने में ही है, एक नॉस्टेल्जिया भरी मोहाविष्ट कथा होते हुए भी यह हासिल ‘किल्ला‘ की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
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Mihir Pandya
New Delhi
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