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जाना एक महान बौद्धिक का इस तरह चुपचाप

कमलेश जी को मीडिया में सबसे अच्छी श्रद्दांजलि आज ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ अखबार ने दी है. उसके बाद ‘जनसत्ता’ में. समाजवादी राजनीति के बौद्धिक हलकों में उनका कद ऊँचा था. वे ‘प्रतिपक्ष’ के संपादक रह चुके थे, प्रसिद्ध बड़ौदा डायनामाईट काण्ड में जॉर्ज फर्नांडीज के साथ्सः-अभियुक्त थे. लेकिन हम हिंदी लेखकों के लिए उनकी पहचान जरा अलग थी. हम उनको एक जमाने की जानी-मानी साहित्यिक पत्रिका ‘कल्पना’ के सहायक संपादक के रूप में जानते थे. ‘जरत्कारू’(1984) जैसे कविता संग्रह के लिए विशेष तौर पर जानते थे.
70 के दशक में पहचान सीरिज में प्रकाशित उनकी कविताओं में हिंदी कविता में बढ़ते नितांत समसामयिकता और अति सार्वजनीनता से विपरीत निजता, आत्मीयता, दार्शनिकता और अमूर्तन का वैभव था. उन्होंने राजनीति आच्छादित आधुनिकता के बरक्स कविता की दूसरी परम्परा की एक तरह से बुनियाद रखी. उनकी कविताओं में एक अन्तर्निहित मिथकीय और ऐतिहासिक चेतना थी. उनकी कविता का न कोई पूर्वज दिखाई देता है न ही कविता की वह परम्परा उस सम्पूर्णता में उनके बाद दिखाई देती है. कुछ हद तक शिरीष ढबोले की कविताओं को छोड़कर. ‘जरत्कारू’ की एक कविता याद आ रही है-
रास्ता जरूर कोई होगा, पर
वह हर रास्ता नहीं होगा.

लगता है वे आजीवन उसी कोई रास्ते की खोज करते रहे इसीलिए हर रास्ते से किसी और रास्ते की तरफ मुड़ जाते रहे. साहित्य, राजनीति में उनको लगभग किम्वदंती पुरुष का दर्जा प्राप्त था. मुझे याद है एक समाजवादी चिन्तक सच्चिदानंद सिन्हा ने उनके बारे में कहा था कि वे एक साथ बहुत सारे काम शुरू कर देते थे, लेकिन पूरा शायद ही कोई काम उन्होंने किया. राजनीति में शीर्ष नेताओं के साथ उठते बैठते थे, लेकिन दलगत और चुनावी राजनीति से निरपेक्ष बने रहे. एक दौर में साहित्यिक बहसों के केंद्र में बने रहे लेकिन खूंटागार साहित्य से बहुत दूर रहे. 70 के दशक में जिन कविताओं के लिए जाने जाते रहे उन कविताओं का संकलन 1984 में तब छापकर आया जब उन्होंने ‘सातवाहन प्रकाशन’ शुरू किया, जो उनका एक और अधूरा उपक्रम रहा. जाहिर सही समय पर सही बहस में शामिल हो जाने की कला से दूर वे सृष्टि की सनातन बहस में रूचि रखने वाले थे.

हाल के वर्षों में उन्होंने शायद एक काम पूरा कर लिया था रूसी कविताओं पर उन्होंने एक पुस्तक तैयार की थी जो समास नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ था. उसके बारे में उन्होंने बताया था कि उनकी पुस्तक पूरी हो चुकी थी. समास पत्रिका में उनका साक्षात्कार भी प्रकाशित हुआ था, जिसको लेकर सोशल मीडिया और जन्सत्त्ता सहित कुछ अन्य पत्र पत्रिकाओं में लम्बी बहस चली थी. समास पत्रिका को कम से कम मैं इसके लिए हमेशा याद रखूँगा कि उसने कमलेश जी को बहस के उस केंद्र में लाने की कोशिश की जिसके वे हमेशा से हकदार थे.

बाद में उनके दो कविता संग्रह ‘बसाव’ और ‘खुले में आवास’ भी प्रकाशित हुए, लेकिन उन कविताओं का दौर बीत चुका था, वह मुहावरा पीछे छूट गया था. बहरहाल, बौद्धिकता की बेकरार थी.

उनकी स्मृति और ज्ञान चमत्कृत करने वाला था. उनसे कई सालों में कई बार मिलना हुआ था. पिछले साल किसी सिलसिले में कई बार घंटों उनके साथ बैठने का सौभाग्य मिला था. उनसे पहली बार दिल्ली में अपने स्थानीय अभिभावक सरीखे समाजवादी नेता हरिकिशोर सिंह के यहाँ मिलना हुआ था. वे उन दिनों विदेश राज्य मंत्री थे, वीपी सिंह की सरकार में. मैं कॉलेज में पढता था और हरिकिशोर बाबू के यहाँ अक्सर जाता था और वहां बैठे खद्दरधारियों को लेकर मन में गलत धारणा बना लेता था. कमलेश जी उनके गहरे मित्रों में थे. पिछले दिनों उनको लेकर चली फेस्बुकीय बहस में मैंने कुछ अशोभन टिप्पणी कर दी थी, जिसके लिए मैंने माफ़ी मांग ली थी. उसके बहुत समय बाद एक दिन पुरानी दिल्ली में किसी सिलसिले में उनके साथ बैठना हुआ. जब बैठक समाप्त हुई तो उन्होंने कहा कि चलिए आपको कॉलेज छोड़ देता हूँ. फिर ड्राइवर को उन्होंने फतेहपुरी की तरफ ले चलने का निर्देश दिया. वहां एक कदीमी दूकान पर लस्सी पिलाते हुए बताया कि 1960 के पहले से यहाँ लस्सी पीने वे आते अरेह हैं, उसके बाद दरीबा ले गए, वहां जलेबी खिलाई. चलती गाड़ी में जब जलेबी खा रहा था तो उन्होंने कहा था कि फेसबुक पर आपने ही हरिकिशोर बाबू के हवाले से कोई टिप्पणी की थी. मुझे किसी ने बताया तो मुझे आप याद आ गए. आपकी स्मृति मुझे उसी विद्यार्थी रूप में आई. आपकी छवि मेरे अंदर एक गंभीर विद्यार्थी की थी. अपनी छवि को बचाए रखना चाहिए. लेखक एक लिए बहुत जरूरी होता है.

मैं ग्लानि से मरा जा रहा था. आज भी लिखते हुए भारी पश्चाताप हो रहा है. उसके बाद उस प्रसंग को एकदम से परे करते हुए वे हरिकिशोर बाबू के बारे में बात करने लगे. कुछ दिन पहले ही उनका निधन हो गया था. किस तरह समाजवादी युवजन सभा के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने 60 के दशक में राजनीति शुरू की थी. वे तब ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से पढ़कर आये थे.

बहरहाल, मेरा कॉलेज आया. उतरने से पहले उन्होंने धीरे से कहा, तारा अपार्टमेंट का घर बेचकर प्रतिभा जी(हरिकिशोर बाबू की पत्नी) ने एसडीए में फ़्लैट खरीदा है. कभी उनसे भी मिल आइयेगा.

उनका जाना हिंदी में बौद्धिकता की एक विरल परम्परा का अवसान है. जो हिंदी में सहसा चमकी और चुपचाप चली गई. वे अचानक गायब हो जाने और सहसा प्रकट होने के लिए अपनों में कुख्यात थे. अफ़सोस कि अब उनसे कभी मिलना नहीं हो पायेगा.  
 
      

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