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आशीष नंदी: ग़फलत-में-सुकून का उल्लास

 
आशीष नंदी की पुस्तक ‘The Savage Freud’ की आशीष लाहिड़ीद्वारा की गई समीक्षा का बहुत सुन्दर अनुवाद जाने माने कवि, सामाजिक कार्यकर्ता लाल्टू जी ने किया है. बहुत प्रासंगिक, तर्कपूर्ण लेख है- मॉडरेटर 
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आशीष लाहिड़ी की बांग्ला निबंधों की किताब भद्रलोकि जुक्तिबादेर दक्षिणावर्त (भद्रलोक तर्कशीलता का दक्षिण को मुड़ना)में संकलित लेख आशीष नंदी: भ्रांतिसुखेर उल्लासका अनुवाद।                                                                    अनुवादक लाल्टू
मूल लेखक का परिचय: आशीष लाहिड़ी विज्ञान के इतिहास पर शोध करते हैं और कोलकाता के एसियटिक सोसायटी और राष्ट्रीय विज्ञान संग्रहालय में अध्यापन करते रहे हैं। उन्होंने बांग्ला और अंग्रेज़ी में कई किताबें लिखी हैं। वे कोलकाता के पावलोव इंस्टिटिउट के सदस्य हैं।
एक
अभ्यास की सीमाओं में बँधी चेतना के संकीर्ण संकोचकी वजह से कहीं अधिकतर बंगाली चिंतकों के ज़ेहनों में जाले तो नहीं पड़ गए? क्या उन्हें कायनात जीर्ण दिखती है? ऐसी आशंका कभीकभी होती है। इसकी एक पहचान यह है कि सवाल उठाने की जगह तुरत जवाब ढूँढने में उनका आग्रह अधिक है, वह जवाब कैसा भी क्यों न हो। ऐसी समझ आजकल कम दिखती है कि यह ज़रूरी है कि सही सवाल उठाया जाए, सही सवाल उठे तो जवाब भी किसी न किसी तरीके से ज़रूर मिल जाएगा।
बांगाली चिंतकों की चेतना की इस जड़ता पर आशीष नंदी जैसे लेखकों ने सख्त चोट की। उन्होंने खाकों में बँधे जवाब की तलाश छोड़कर खाका तोड़ते सवालों की खोज की। उन्होंने ऐसे कोणों से सवाल उठाए जो व्यवहार की सीमाओं में बँधी हमारी चेतना को झटका देते हैं, हमें हिलडुल कर बैठने को मजबूर कर देते हैं। इस नज़रिए से आशीष बाबू की किताब The Savage Freud (1995) (जंगली फ्रायड) थोड़े ही वक्त में छोटेमोटे क्लासिक का दर्ज़ा अख्तियार कर चुकी है। इस किताब में वे जिन विषयों को ले आए हैं और ज्ञान के कई सारे क्षेत्रों को मिलाकर जिस पद्धति से उन्होंने उन पर चर्चा की है, उसकी नवीनता को मानना ही होगा।
समर्पण के पन्ने से ही यह किताब चौंकाती है। तीन प्रसिद्ध भारतीयों को यह किताब समर्पित है : विनायक दामोदर सावरकर (1880-1965), दामोदर धर्मानंद कोसंबी (1907-1960) और नीरदचंद्र चौधरी (1897-1997)। उन्नीसवीं सदी के बीच से भारतीयपहचान को नया स्वरूप देने की जिस प्रक्रिया की शुरूआत हुई, नंदी जी के अनुसार ये तीन उस प्रक्रिया के तीन पहलुओं के खाँटी प्रतिनिधि हैं। सावरकर हिंदू राष्ट्रवाद के प्रतीक हैं। वे हिंदुओं को और अधिक जंगी, अधिक पौरुषमय, अधिक ठोस और संगठित करना चाहते थे। दूसरी ओर कोसंबी अनथक तर्कशीलथे। वे और अधिक वैज्ञानिक चेतना, अधिक भौतिकतावदी सोच, अधिक इतिहासबोध से भारतीयों को लैस करना चाहते थे। और गोरों का बोझढोने के काम में खुद को लगाने वाले नीरद बाबू भारत को एडवर्ड युगकी आधुनिकता में बाँध रखने के आखिरी प्रवक्ता थे। मोटामोटी इन तीन धाराओं में आज के भारतीयों की सोचसमझ को ढालकर आशीष बाबू उसकी एक चीरफाड़ करना चाहते हैं। एक ओर इस सोच का सजासँवरा प्रकाशित रूप है (उनके शब्दों में ‘language of‌ public‌ life’ – सार्वजनिक जीवन की भाषा) और दूसरी ओर अवचेतन में मौजूद उसका छिपा स्वरूप है (उनके शब्दों में ‘secret selves’ – छिपे आत्म), इन दोनों में द्वंद्व ढूँढ निकालने 
की कोशिश उन्होंने की है।
नंदी जी ने जिन तीन धाराओं का उल्लेख किया है, उन्हें थोड़ा हटकर, ज़रा पारंपरिक ढाँचे में यूँ समझ सकते हैं:
1) जंगी हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद, 2) आधुनिक विज्ञानमना तर्कशीलता (सेक्युलरिज्म जिसका हिस्सा है), और
3) दलाल संस्कृति। इन तीन धाराओं में हरेक को लेखक ने अपने विश्लेषण के औजारों से ध्वस्त करने की कोशिश की है, मकसद यह कि इस ध्वंसपर्व को पार कर आधुनिक  भारतीय आत्मपहचान की कोई एक या एकाधिक राह ढूँढी जा सकती है या नहीं, इसकी पड़ताल की जाए; वह राह सँकरी भी हो तो उन्हें कोई हर्ज़ नहीं है। आज के हिंदुस्तान में, जिसे वे सामान्य ज्ञान की संस्कृति (the‌ cultutre‌ of common sense)’ कहते हैं, इसके पीछे ज़बर्दस्त तकरीबन वैश्विकचेतना (dominant quasi-global consciousness)’ है। चाहे टूटाफूटा या तोड़ामरोड़ा सही, एक ग्लोब आज हिंदुस्तानी ज़ेहन की मेज पर सजा रहता है। भारत के आम लोगों को लेकर एक के बाद एक जो तर्कवितर्क सामने आ रहे हैं, वे उस quasi-global consciousness के ढाँचे में ही सक्रिय हैं। उनके विचार में उस तकरीबन वैश्विकचेतना का बीजकोश कुछ मूल विचारों के इर्दगिर्द पनपा है: 1) राष्ट्रराज्य, 2) राष्ट्रवाद, 3)  सिक्योलरिज़्म, 4) तरक्की, 5) इतिहास, 6) तर्कशीलता और 7) बिल्कुल रूमानी एक रीयलपोलिटिककी धारणा जो कि विषयवस्तु के नज़रिए से न तो वास्तविकता से मेल खाता है, न सही मायने में राजनैतिकहै। उनके विचार में ये धारणाएँ भारतीय राष्ट्र की संस्कृति के विविध ढाँचे या साँचेहैं। उनका मकसद यह है कि वे राष्ट्र के इन साँचों और ढाँचों से भारतीय जनजीवन को बाहर निकालकर दिखलाएँ कि इन सबकी नींव में असल में कुछ वर्चस्व की नीतियाँकाम कर रही हैं। उन्हीं नीतियों ने ही इन धारणाओं को राजनैतिक मायनों में बनाए रखा है।
यह बात माननी होगी कि आधेगोरे मेट्रोपोलिटन भारतीयों की राजनैतिक चेतना में कुछकुछ अछूत, नितांत चिढ़ पैदा करती समझे जाने वाली बातें आज भी ऐसे हिंदुस्तानियों के लिए काफी मायने रखती हैं जो उस चेतना टेबिल के बाहर जी रहे हैं। आशीषबाबू इन्हीं हस्तक्षेपों से जन्मी भ्रांतियोंपर ही चर्चा करते हैं। सिर्फ चर्चा करना कहना कम होगा, क्योंकि दरअसल उनकी यह किताब इसी ग़फलतमेंसुकून के उल्लास में रची गई है: ‘This book celebrates that ability to confuse and exasperate (यह किताब भ्रांति और परेशानी पैदा करने की उस क्षमता का जश्न मनाती है)
इन भ्रांतियों पर चर्चा के लिए उन्होंने भारतीय समाज और संस्कृति के एक विशाल क्षेत्र से समस्याओं को चुना है। किताब के सात निबंधों में पहला 1984 में दो हवाई जहाजों के अपहरण पर है, जिसे खालिस्तानियों ने किया था। दूसरे निबंध का विषय रूपकँवर का स्वेच्छासे किया सतीदाह है।  तीसरे का विषय अंतर्राष्ट्रीय अदालत में युद्धअपराधों पर राधाविनोद पाल की अलग राय पर है। चौथा किताब का शीर्षक निबंध है The Savage Freud: The first non-western psychlogist and the politics of secret selves in colonial countries (जंगली फ्रॉयड: पहला गैरपश्चिमी मनोविश्लेषक और औपनिवेशिक मुल्कों में छिपी आत्मपहचानें), विषय है फ्रॉयड के विचारों से मेल खाता पर फ्रॉयड से आगे जाता गिरीन्द्रशेखर बसु का मनोविश्लेषण सिद्धांत। छठा और सातवाँ निबंध दो भारतीय फिल्मों पर हैं; एक का विषय सत्यजित राय है, दूसरे का विषय आम लोकप्रियभारतीय सिनेमा है। तीसरे और चौथे निबंधों को अलग कर दें तो बाकी हरेक ऐसी किसी घटनापर रचित है, जिसकी लोकमानसमें ज़बर्दस्त मौजूदगी है। और इस ज़बर्दस्त मौजूदगी की जड़ में मीडिया नामक  सत्ताके कार्यकलाप हैं। यह मीडिया, खासकर अंग्रेज़ी भाषा में प्रचारित सर्वभारतीयमीडिया नंदी जी कथित इस तकरीबन वैश्विक चेतना का सबसे प्रकट रूप है।
इन निबंधों के अलगअलग मकसद से और अलगअलग तरीकों से लिखे जाने के बावजूदइनके संयोजन और संपादन में सोच की विशिष्ट दिशा साफ उभर आती है। इसे एक लाइन में यूँ बयाँ कर सकते हैं अपने भविष्य के बारे में हम कैसे सोचें?
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3 comments

  1. इस लेख में समीक्षक ने भारतीय दर्शन की विविधता को समझे बिना मनोविज्ञान के समर्थन में झंडा गाड़ दिया है. किसी दर्शन के विचार कहीं भी नियुक्त करने से अर्थ का अनर्थ ही होगा. क्या सांख्य और मीमंसा का दर्शन की तत्त्व मीमांसा एक जैसी है? या ज्ञान मीमांसा एक जैसी है? सहृदय का अर्थ दयालु मान लेना घोर मूर्खता है. तदनुसार, यह भी मान लेना की सभी दार्शनिक ऐसा ही सोचते थे और धर्म-शास्त्रों की पकड़ में फँसें हुए थे, ये भी गलत है. कश्मीरी प्रत्यभिज्ञा दर्शन के आचार्य उत्पलदेव के अनुसार 'हृदय' का अर्थ 'being reflectively aware' में लिया है.

    दर्शन में मनोविज्ञान की सात्विक विद्या है और बाकी सभी राजसिक हैं, इसका अर्थ दर्शन के शब्दों में ही निहित है. सत्व, रस, तम आदि गुण सांख्य और योग में हैं, बाकी दर्शनों में नहीं. विज्ञान की बाह्य जगत की उपलब्धि उनसे मानी जाती है जिसे जड़ समझा जाता है. दर्शन जड़ और चेतन दोनों पर विचार करता है. मनोविज्ञान केवल चेतनता पर विशिष्ट तरीके से अपनी बात कहता है. अलग अलग तत्त्व मीमांसा और ज्ञान मीमांसा प्रणाली अलग तरह से सिद्धांतों को निरूपित करती है. बर्कली और बेकन के चर्चा करने वालों को स्पिनोज़ा के अद्वैत जैसे दिखने वाले सिद्धांतों पर भी चर्चा करनी चाहिये, जिसे डेलयूज़ दर्शन का राजकुमार कहते हैं.

    सब कुछ वेद में हैं, यह दृष्टिकोण गलत है. पर यह दृष्टि की भारतीय दर्शन बाकियों के सामने सैद्धांतिक अनुमान से बढ़ कर कुछ नहीं है, या भारतीय दार्शनिक केवल अनुमान पर काम करते थे और इन सवालों के जवाबों ने आखिर में ब्रह्म जैसी धुँधली सत्ता की ओर संकेत किया, घोर अन्याय है. कम से कम एक क्लिष्ट दर्शन प्रणाली के साथ खिलवाड़ से अधिक कुछ नहीं.

    इसी तरह के उदहारण के लिए जिसने भी स्पिनोज़ा के दर्शन प्रणाली को ध्वस्त करने का दावा किया है (चाहे वो कांट हो, या हीगेल हों) उनकी समर्थता को हम परखना चाहेंगे.

    यह तो निश्चित है की समीक्षक भी भ्रान्ति और परेशानी पैदा करने की अपनी क्षमता का जश्न मनाना चाहता है. यही परिपाटी हर दर्शन प्रणाली को कम समझने वाले लोगों ने अपनाई है, चाहे वो बौद्धों को हीनयान या महायान में विघटन हो, या वेदांत के कई शाखाओं में हो. ऐसा ही चलता रहेगा जब तक हम खुद समर्थ नहीं बन जाते.

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