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मेरी नई कहानी ‘यार को मैंने जाबजा देखा…’

आज अपनी ही नई कहानी प्रस्तुत कर रहा हूँ जो एक कथा श्रृंखला का हिस्सा है- प्रभात रंजन 
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यार को मैंने जाबजा देखा
प्रभात रंजनउसकी बायीं आँख के ठीक नीचे कटे का निशान था. बड़ा-सा. चेहरे में सबसे पहले वही दिखाई देता था.
‘तीन टाँके लगे थे’, उसने बताया था.
देखने में दो दिखाई देते थे. टाँके का तीसरा निशान शायद मिट गया था. होगा. निशान धीरे धीरे मिट जाते हैं.
‘और घाव?’
मुझे याद है उसने आखिरी मुलाकातों में से किसी मुलाकात में कहा था. ‘होस्टल की डोरमेट्री में मुझे ऊपर वाला बेड मिला था. एक रात उठ खड़ी हुई थी. जब तक संभलती-संभलती पंखे का ब्लेड लग गया था. वो तो आँख बच गया’,
उसने बताया था.
घाव का निशान रह गया…
जब उसका मेल आया तो सबसे पहले यही याद आया.
याद आया जब आखिरी बार मिला था. कमाल की बात थी, अभी दो, शायद तीन घंटे पहले उससे वह मिल चुका था लेकिन उसे इस मुलाकात की नहीं उस मुलाकात की याद आ रही थी जिसे वह बरसों बरस आखिरी मानता आया था.
कुछ ख़ास नहीं था मेल में…
यार को हमने जा-बा-जा देखा/ कहीं जाहिर कहीं छुपा देखा..’ आबिदा परवीन की गाई इस नज़्म की पहली दो पंक्तियाँ लिखकर उसने पूछा था- ‘इसमें जा-बा-जा का क्या मतलब है.’
जाहिर है सवाल अंग्रेजी में था.
सवाल का जवाब सीधा था. लेकिन कई बार सीधा जवाब भी सीधे दे पाने से पहले कई सवाल मन में उठने लगते हैं…
कुछ नहीं. 20 साल पहले की जुदाई 20 साल बाद मिलन में बदल गई थी.
आई, मिली, गई और अब…
सब लग रहा था जैसे सपना हो.
सपना ही तो था. एक सुन्दर सपना जो बीच में ही टूट गया हो… उसके बाद चाहे जितनी नींद आये सपना वही नहीं आता…
कुछ ख़ास नहीं था. बस यूँ ही. एक सपना था…
यूँ ही मुलाक़ात…
कई बार यूँ ही कुछ हो जाता है कि अगला पिछला बहुत कुछ उघड़ने लगता है.
कल अचानक सुनयना का फोन आ गया था- ‘हाँ, सुनो सुशांत! मैं दिल्ली में हूँ. यहाँ नकुल के साथ मीटिंग थी. उसी से तुम्हारा नंबर मिला. तुमसे अपनी वेबसाईट के बारे में कुछ इम्पोर्टेन्ट बात करनी थी. शाम में मिल सकते हो.’
उसने पहले की तरह एक साँस में कह दिया. इतने सालों बाद भी उसकी आवाज में ज्यादा बदलाव नहीं आया था. न ही बोलने का अंदाज बदला था. उसी अधिकार से बात कर रही थी. वह भी उसी तरह सुनता रहा.
रिश्तों में शायद मिलना-जुलना, भेंट-मुलाकातें उतना मायने नहीं रखती, अधिकार मायने रखते हैं. जब तक एक दूसरे पर अधिकार का यह भाव बना रहता है, रिश्ते बने रहते हैं.
क्या अब भी वैसी ही लगती होगी?
वही जिसकी बायीं आँख के ठीक नीचे कटे का निशान था.
तब गूगल नहीं था.
वह अचानक दूर हुई और गुम हो गई. सब ऐसे हुआ जैसे कोई बहुत प्यारा अचानक बाढ़ में बह गया हो. कभी कोई सुराग न मिला हो. मेरे स्कूल का दोस्त राकेश ऐसे ही बाढ़ में अचानक बह गया था.
नाव पलट गई थी…
अभी पिछले साल अचानक उसका नाम गूगल में डाला- सुनयना. उसकी कम्पनी का प्रोफाइल निकल आया था. ‘घुमक्कड़खाना’ नाम से एक वेबसाईट थी. मैंने अंदाजा लगाया कि उसका अपना होगा. देश भर में घूमने जाने वालों के लिए जरूरी होटलों और रेस्तरां के बारे में उस साईट को सबसे विश्वसनीय साइट्स में एक माना जाता था. सुनयना वाही का नाम लिखा था. एक फोटो भी था. इसके अलावा उसके बारे में और कुछ नहीं पता चला. शायद उसने किसी वाही से शादी कर ली हो.
फेसबुक पर इस नाम के तो कई प्रोफाइल थे मगर किसी की तस्वीर उससे मिलती जुलती नहीं लगी. जिन प्रोफाइल के साथ तस्वीर नहीं थी उनका प्रोफाइल भी उससे मेल नहीं खा रहा था.
दो तीन दिन तक मैं उसके बारे में नेट पर सर्च करता रहा. फिर धीरे धीरे अपनी दिनचर्या में लौट आया था, जिसे हम सब अपना जीवन समझते हैं. पिछला जीवन फिर पीछे छूट गया था. लगभग भूल चुका था कि एक दिन यूँ ही…
यूँ ही अपने नए एयरटेल 3 जी डाटा कार्ड की स्पीड को परखने के लिए गूगल पर अपने पुराने दोस्तों को ढूंढने का खेल खेल रहा था. मंजय, धीरज, घंटी, बंटी को खोज लेने के बाद उसने उसका नाम टाइप कर दिया था. अजीब शै है. एक बार गूगल पर नाम टाइप कीजिए और जैसे जीवन की सीवन उधड़ने लगती है.
ख़ुशी हुई थी. संतोष. वह कामयाब हो गई थी.
मैं खुद भी बहुत जल्दी सेटल हो गया था. दिल्ली में आकर एक कैरियर मैगजीन में चला गया था. आज उसका संपादक था. अगर तब दोनों का साथ रहा होता तो शादी हो गई होती. चेहरे पर मुस्कराहट आ गई थी.
शादी तो…  शायद सुनयना को भूल चुका था तब तक.
सच में भूल चुका था.
मैं तो उस दिन एयरटेल का 3 जी नेटकनेक्ट परख रहा था! मुजफ्फरपुर के मैनजेमेंट कॉलेज में हम एक ही बैच में थे. घर वालों ने मेरे कम नंबर की वजह से सारी उम्मीदें छोड़ दी थी. यह उम्मीद छोड़ दी थी कि वह कम से कम बीपीएससी की परीक्षा पास कर लेगा तो  नामांकन वहां एकमात्र मान्यताप्राप्त मैनेजमेंट कॉलेज में करवा दिया था. वहीं मिली थी.
भगवानपुर से आती थी.
तब मिलना जुलना, लड़के लड़कियों का आपस में बातचीत करना इतना आसान नहीं था. लेकिन हम मिलते थे. कभी देवी मंदिर में, कभी ग्रुप बनाकर सिनेमा देखने के दौरान, कभी जुब्बा साहनी पार्क में पिकनिक. एक बार कॉलेज ट्रीप में नेपाल गए थे- काठमांडू! 2 रात की ट्रीप थी.
उस दौरान….
हमारे तीन साल के प्यार भरे जीवन में वही दो रात यादगार बने रहे. काठमांडू में कॉलेज के ट्रीप में साथियों के साथ बिताई दो रातें! हम ज्यादातर भविष्य की बातें करते या उस ट्रीप की! हम जब एक हो जायेंगे तो हनीमून मनाने काठमांडू चलेंगे- मैं कहता!
धत्त! कहते हुए वह अपना दुपट्टा ठीक करने लगती थी.
एक रात काठमांडू के पुराने शहर में एक प्राचीन मंदिर के बाहर मैंने धीरे से कहा था- शादी कर लें!
‘हाँ, अभी और यहीं’, उसका यह जवाब सुनकर मुझे लगा मजाक कर रही है. लेकिन उसने फिर कहा, ‘सच कह रही हूँ. चलो. मैं तैयार हूँ.’
‘अभी…कैसे’ मैं ठीक से कुछ जवाब नहीं दे पाया था.
गुजरे बरसों में कई बार यह दृश्य दिमाग में कौंध गया.
क्या सच में कहा था उस ने?
जैसा कि आम तौर पर होता है वही हुआ. पढ़ाई ख़त्म हुई, कॉलेज आना-जाना बंद हुआ और मिलना-जुलना ख़त्म. ठीक से बिछड़ने का मौका भी नहीं मिला. कसक रह गई थी कि एक बार और भविष्य की बातें करता उससे फिर मंजिल की तलाश में निकला जाता. एक आस बनी रहती. परदेस से देस वापस लौट आने की एक आस, एक मंजिल.
लौट जाने के लिए जिनके पास कोई जगह नहीं होती वे सचमुच बड़े बेसहारे होते हैं! एक सपना तो रहता… लेकिन जैसे झटके में नींद टूट गई हो. सपना टूट गया जैसे…
उसके घर के बगल में रहने वाले सुनील ने कुछ महीने बाद एक दिन मिलने पर बताया कि वह नागपुर चली गई थी. वहां उसकी बड़ी बहन रहती थी.
गम गलत करने, कमरे में अँधेरा कर उसकी याद में सोचते चले जाने या हाल में ही नेपाल के बीरगंज से खरीदे सोनी के अपने मिनी टेप रेकॉर्डर पर जगजीत सिंह की ग़ज़ल सुनने का टाइम ही नहीं मिला.
देश में निजी कंपनियों का विकास हो रहा था और सब कुछ बहुत तेजी से बदल रहा था. वह पहले पटना फिर दिल्ली आ गया.  संघर्ष, नौकरी, संपादकी… उसकी गाड़ी चलती चली गई.
चलती जा रही थी कि उस दिन लगा जैसे किसी बंद पड़े हॉल्ट पर गाड़ी अचानक रुक गई हो.
उसका फोन आया था अचानक…
नकुल ने बच्चों को मीडिया के गुर सिखाने के लिए इंस्टिट्यूट खोल लिया था. दिल्ली में उसका संस्थान भी चल निकला था. बाद में उसने फोन किया था तो पता चला था कि सुनयना ने अचानक ही नंबर मांग लिया था. वहीं पड़ी मैगजीन उलट-पुलट रही थी कि तुम्हारा नाम आया. पूछा कि क्या आप इसे जानते हैं?
हाँ कहने पर पूछा कि कहीं ये मुजफ्फरपुर के तो नहीं हैं. मैंने हाँ कहा तो नंबर मांग लिया. बात क्या है? मैंने कोई जवाब नहीं दिया.
वह तो उसके संस्थान के वेबसाईट का काम दो साल से संभाल रही थी. संयोग था दो साल से नकुल के वेबसाईट का काम संभाल रही थी और उसे पता नहीं था. वैसे भी वह उसका दोस्त था कोई कर्मचारी या बिजनेस पार्टनर नहीं.
मैं मिलने गया था. मैगजीन का अंक फाइनल करना था. तब भी.
वैसे भी अक्सर देर रात तक काम करना ही पड़ता है.
उसने 7 बजे का टाइम बताया था. शाम में कह रही थी गुलमोहर पार्क में किसी से मिलना था. उसके बाद देर रात उसकी फ्लाईट थी. ‘आ जाओ बीच में कहीं बैठ लेते हैं.’
मैं बीच की जगहों के बारे में सोच रहा था. जगह ऐसी हो जहाँ गुलमोहर पार्क से जाने में अधिक समय न लगे और उसके साथ वह कुछ अधिक समय बिता सके. ग्रीन पार्क मार्किट का कैफे कॉफ़ी डे ठीक रहेगा.
मैंने एसएमएस पर यही मैसेज टाइप कर दिया.
नोयडा से वह काफी पहले निकल गया. उस दिन दोपहर के बाद से ही काम में उसका मन नहीं लग रहा था. बरसों बाद ऐसी घबराहट उसे महसूस हुई थी. बरसों से ऐसे किसी से मिलने गया ही नहीं था. आखिर वह समय से पहले निकल पड़ा.
मैं आठ बजे से बहुत पहले पहुँच गया था. गाडी पार्क करके इधर उधर घूमता रहा. याद आया काठमांडू में एक दिन तो सारा दिन दोनों पैदल ही घूमते रह गए थे. सारा दिन…
वह आठ बजे के थोड़ी देर बाद आई. वैसे ही जल्दीबाजी में. उसने पीछे से ही देखकर उसे पहचान लिया था!
‘सुशांत!’ अपना नाम सुनकर वह पीछे मुड़ा तो हैरान रह गया. सुनयना खड़ी थी.
अँधेरे में उसका मुँह तो ठीक से नहीं दिखाई दे रहा था. लेकिन मैंने पहचान लिया था. शायद हर रूप का एक आकार हमारे मन में बचा रह जाता है. 20 बरस बाद दूर से एक झलक देखते ही उसका आकार मन में उभरने लगा.
उसने उसे पीछे से पहचान लिया था. घूमते हुए मेरे चेहरे पर हैरानी देखकर वह थोडा सा झेंप गई थी. ‘आदमी में ज्यादा कुछ थोड़े बदलता है,. वे वैसे के वैसे रहते हैं.’
मैं मुस्कुराकर उसे देखता रहा. समझ गया था कि उसने उसे इस तरह से पहचान लेने की सफाई दी थी. उसे खुद आश्चर्य हो रहा था कि उसने पहचान लिया था.
उसे खुद झेंप रही थी कि उसने पहचान लिया था…
ऐसा लगा ही नहीं कि वह बहुत दिनों बाद मिल रही थी. वह बोलती जा रही थी. उसकी बातों में पुराने दिनों की कोई कसक नहीं थी. न कुछ नए दिनों जैसा भी नहीं दिख रहा था. वह बोलती जा रही थी. बाद में उसने नागपुर में एमसीए कर लिया था. बैंगलोर में एक मल्टीनेशनल में काम कर रही थी कि कि यह घुमक्कड़खाना… दुनिया भर में घूमने खाने की
उसकी ख्वाहिश पूरी हो गई थी… ‘तुमको जहाँ जाना हो बता देना… हमें कॉम्प्लीमेंट्री कूपन मिलते रहते हैं.’
उसने कुछ नहीं कहा. बस सिर हिला दिया था.
‘मुझे याद है… तुमने कहा था कि तुमको हमेशा नई नई जगहों पर जाना, खाना पसंद है. बचपन से ही पापा का इतनी जगह ट्रांसफर हुआ कि किसी एक जगह से कोई लगाव ही नहीं रह गया…’ मैंने कहा और दूसरी तरफ देखने लगा.
हो सकता है स्ट्रॉ से कोल्ड कॉफ़ी पीते हुए रूककर उसने अपनी बड़ी बड़ी आँखें उठाकर देखा हो.
वह बोलती जा रही थी. उसके बारे में उसने ज्यादा कुछ नहीं पूछा.
‘अच्छा ये बताओ मुझमें कुछ बदलाव दिखाई देता है तुमको?’ उसने आँखें नचाते हुए पूछा.
‘हाँ, आँखों के नीचे अब घाव का निशान नहीं दिखाई देता है!’
‘घाव का निशान मिट जाने से पहचान बदल जाती है क्या?’ उसने पूछा और अचानक उठते हुए कहा, ‘अब चलूँ. एयरपोर्ट पहुँचना है. तुम्हारा नंबर है मुम्बई पहुँचकर कॉल करती हूँ.’
बातचीत का प्रसंग निजी होते ही वह उठ खड़ी हुई थी- उसने महसूस किया. जैसे उसे अचानक याद आ गया हो कि गलती से उसने बीती दुनिया में कदम रख दिया हो. वह अपने वर्तमान में आ गई.
अपनी गाड़ी चलाते हुए मैं घर आ गया था. ऑफिस जाने का मन ही नहीं हुआ. उसी के बारे में सोचता रहा. कितना कुछ सोचा था उसने पूछेगा. कुछ भी नहीं पूछ पाया. उसने तो यह भी नहीं पूछा कि यह वाही कौन है जिसका सरनेम उसने
अपने नाम के साथ जोड़ लिया था.
वह तो यह बताना भी भूल गया था कि पढ़ाई, नौकरी के चक्कर में वह शादी भी नहीं कर पाया था. कि अब भी उसे कभी कभी उसकी याद आती थी… कि… देर रात उसका मैसेज आया था… समय से उसने अंदाजा लगाया था कि अब वह
प्लेन में बैठ चुकी होगी.
जा-ब-जा का मतलब होता है- हर कहीं, हर जगह! उसने जवाब टाइप कर दिया. नीचे टेक केयर लिख दिया.
निशान मिट जाते हैं लेकिन घाव रह जाते हैं- उसका मन हुआ कहे. लेकिन किस से!
अपने अपने फोन में उसने आबिदा परवीन की आवाज में यही गीत लगा लिया.
ब्लूटूथ स्पीकर ऑन कर लिया था.
यार को मैंने जा-ब-जा देखा
कहीं जाहिर कहीं छुपा देखा
जब कोई पुराना घाव उभर आता है तो दर्द बहुत देता है!

 
      

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20 comments

  1. पढ़ते हुए एक दर्द सा रह गया। बहुत खूब लिखा है।

  2. कुछ निशान कभी नहीं मिटते……

  3. "आबिदा परवीन की गाई इस नज़्म" shayad ye ghazal hai

  4. वो तो आँख बच गया
    हमारे तीन साल के प्यार भरे जीवन में वही दो रात यादगार बने रहे. काठमांडू में कॉलेज के ट्रीप में साथियों के साथ बिताई दो रातें!
    शाम में कह रही थी
    कहानी बहुत अच्छी है। लेकिन हिन्दी के ये तीनों वाक्य ग़लत हैं।

  5. लौट जाने के लिए जिनके पास कोई जगह नहीं होती वे सचमुच बड़े बेसहारे होते हैं……..यही….इसी तरह की कहानियाँ पसंद हैं …|

  6. अच्छी व रोचक कहानी। समयके साथ दफन घाव जब कभी उभरते हैं तो…

  7. हर घाव के निशान रह जाते हैं | कुछ घाव के साथ जिन्दगी चलती रहती है | निशान बचे- ना – बचे घाव तो पूरी जिन्दगी रहते हैं जिसके सहारे हम जिन्दगी को जीते हैं |

  8. अच्छी कहानी

  9. bahut achchi kahani

  10. achchhi kahani …

  11. बहुत उम्दा. आपके कथाओं की सबसे बड़ी खासियत यह होती है की उसमें गजब का प्रवाह होता है जो पाठक में कथा अंत तक पढ़ने का जिज्ञासा बरकरार रखता है. वास्तव में दाग मिट जाते है घाव नहीं मिटता. वैसे आपकी यह कथा आपके पहले की कथाओं से कुछ अलग लगी , जो मुझे हाल में हिन्दी युग्म से छपी कुछ कथासंग्रहो की याद दिला गई.

  12. A flow-full but flawless story.

  13. किस्सागोई होना कोई आपसे सीखे …शानदार

  14. बहुत संदर कहानी डेवलप हो रही है। बस एक टिप्पणी है कि कहानी कहने वाला बार बार प्रथम पुरुष से अन्य (तृतीय) पुरुष में आता जाता है।

  15. बहुत अच्छी कहानी । आपकी भाषा और शैली में गजब का प्रवाह है जो कहानी को एक सांस में पढ़ने को विवश कर देती है ।

  16. Howdy! I’m at work surfing around your blog from my new iphone! Just wanted to say I love reading through your blog and look forward to all your posts! Carry on the great work!

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