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दलित विमर्श की सीमा या सवर्ण सोच की सीमा?

पिछले दिनों किन्हीं अमरनाथ ने जनसत्ता में दलित विमर्श की सीमा शीर्षक लेख लिखा था. युवा लेखक, अध्येता आकाश कुमार ने बहुत विद्वत्तापूर्ण और तार्किक ढंग से उनका जवाब लिखा है. दोनों लेख एक साथ पढ़ते हैं. पहले आकाश कुमार का और फिर अमरनाथ का- मॉडरेटर 
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अमरनाथ जी ने अपने लेख ‘दलित विमर्श की सीमाएं’ (12 जुलाई, जनसत्ता) में दलित साहित्य की सीमाएं बताने की कोशिश की है । हिंदी में पच्चीस साल पुराना हाशिये का सहित्य जो अब लगभग मुख्यधारा में अपनी पैठ बना चुका है की आलोचना जरूर होनी चाहिए लेकिन क्या उसे खारिज़ कर देने की कोशिश भी करनी चाहिए? अमरनाथ अपने लेख में यही वो कोशिश करते नज़र आते हैं जो दलित साहित्य लिखे जाने की शुरुआत में हिंदी के आलोचकों ने की । लेख की शुरुआत में ही अमरनाथ दलित साहित्य को उस ज्वालामुखी की आग की तरह बताते हैं जिससे आसपास के मनुष्यों, जीवों और वनस्पतियों को गंभीर खतरा पैदा हो जाता है । यह एक नई बात है, दलित साहित्य को इस तरह से मानवता के लिए गंभीर खतरा पहले किसी ने नहीं कहा, इसपर गौर करना चाहिए ।

अपनी बात के प्रमाण के तौर अमरनाथ दलित लेखकों के दलितों द्वारा लिखे साहित्य को ही दलित साहित्य मानने और स्वानुभूति सहानूभूति का द्वंद्व खड़ा करने की बात करते हैं, वे दलित लेखकों पर आरोप लगाते हैं कि वे गैर दलितों को बाहर वाला मानते हैं । अपनी बात को पुष्ट करने के लिए वे किसी ‘वरिष्ठ’ आलोचक के बेहद अमानवीय तर्क का सहारा लेते हैं- ‘तब तो घोड़े पर कविता लिखने के लिए घोड़ा बनना पड़ेगा ।’ दलित के लिए उदाहरण भी घोड़े का! खैर, ज़ाहिर सी बात है इंसान घोड़ा नहीं बन सकता न ही कोई घोड़ा अपनी बात लिख सकता है । लेकिन कल्पना करें की अगर कोई घोड़ा लिख सकता तो! घोड़े का उदाहरण पेश करने वाले क्या यह दावा कर सकते हैं कि उनका लिखा घोड़े के लिखे जैसा ही होता । ओमप्रकाश वाल्मीकि ने लोगों के जूठन खाकर परिपक्व होते अपने बचपन का जैसा विवरण दिया है क्या वैसा ही अमरनाथ दे सकते थे? लोगों का जूठा खाने की अमानवीय प्रथा पूरी एक कौम सदियों से निभाती आ रही है लेकिन क्या दलित साहित्य पर सवाल उठाने वाले; दलित साहित्य हम भी लिख सकते हैं की ज़िद करने वाले किसी लेखक ने कभी इसपर लिखने की ज़हमत उठाई? सारा हल्ला तब हुआ जब दलित लेखकों ने खुद के लिखे साहित्य को अलग से देखे जाने की बात की । लेकिन यह भी अचानक नहीं हुआ । दलित साहित्य में यह बहस काफ़ी लम्बे समय तक चली कि दलित साहित्य कौन लिख सकता है । वे दलित साहित्य के शुरूआती दिन थे जब दलितों ने ‘दलित साहित्य’ के बैनर तले लिखना शुरू ही किया था । जवाब में हिंदी के ‘विद्वान्’ आलोचक तैयार बैठे थे – दलित साहित्य जैसा क्या होता है? साहित्य तो साहित्य होता है । प्रेमचंद लिख गए दलितों पर, निराला लिख गए.. सही बात है दलितों पर दलित लेखकों के अलावा सबसे ज्यादा प्रेमचंद ने ही लिखा, पर उस समय जब अम्बेडकर का भारतीय राजनीति में आगमन हो चुका था, पूना पैक्ट हो चुका था । ज़ाहिर है प्रेमचंद उन चुनिंदा लेखकों में से थे जिनके ज़ज्बात दलितों से जुड़ते थे । ‘सद्गति’ जैसी कहानी कोई भूल सकता है भला । लेकिन उन्हीं प्रेमचंद को दलितों के साहित्य के खिलाफ औजार बनाया हिंदी के आलोचकों ने । ऐसे में दलित लेखकों ने दावा किया कि जो दलित हैं वे ही दलित साहित्य लिख सकते हैं, गैर दलितों का लिखा हुआ सहानुभूति का साहित्य है जबकि जरूरत स्वानुभूति के साहित्य की है और इस तरह वे उन्हीं प्रेमचंद के खिलाफ बोलने को विवश हुए और और उनकी रचनाओं को काउंटर किया (‘कफ़न’ कहानी विवाद को हिंदी के सुधी पाठक भूले न होंगे) ताकि उनके लिखे को सही जगह मिल सके । और आज जब दलित साहित्य खुद को स्थापित कर चुका है, सहानुभूति-स्वानुभूति का विवाद काफी पीछे छूट गया है । ऐसे में अमरनाथ जी द्वारा इस गड़े मुर्दे को उखाड़ने का निहितार्थ दलित साहित्य पर बेमतलब हमले के सिवा और कुछ नहीं जान पड़ता । यह भी गौरतलब है कि एक चौथाई सदी बीत जाने के बाद बार-बार दलित साहित्य लिखने की रट लगाने वाले गैर दलित लेखकों/आलोचकों द्वारा कोई ढंग का दलित साहित्य नहीं लिखा गया । अगर दलित लेखकों के स्वानुभूति के तर्क को खारिज़ ही करना था तो कुछ टक्कर का साहित्य लिखकर ही खारिज़ करते । अमरनाथ कहते हैं कि ‘स्वानुभूति पर अतिरिक्त बल देने के कारण दलित लेखकों में आत्मकथाएं लिखने की होड़ मची है, पर अन्य विधाओं के साहित्य के प्रति उदासीनता है ।’ क्या ही अच्छा हो कि इस कमी को गैर दलित लेखक अपनी सहानुभूति के साहित्य से ही पूरा करें । मजे की बात तो ये है कि अपने लेख में अमरनाथ खुद मान बैठे हैं कि गैर दलितों की दृष्टि दलितों के प्रति सहानुभूति की है । गैर दलितों द्वारा दलितों पर लिखे जाने की वकालत करते हुए वे लिखते हैं ‘इतिहास ने प्रमाणित कर दिया है कि सहानुभूति का साहित्य स्वानुभूति के साहित्य से किसी भी तरह कमतर नहीं है ।’ ये सब ऐसे समय में जब इंसान थोड़ा और इंसान बनने की और अग्रसर है, विकलांग लोगों के लिए ‘फिजिकली डिसेबल्ड’ के साईन बोर्डों को ‘डिफरेंटली एबल’ से बदला जा रहा है और उनके प्रति सहानुभूति प्रकट करने के बजाय उन्हें बराबरी का मौका देने की बात की जा रही है.. ऐसे समय में अमरनाथ सामाजिक षड्यंत्र के शिकार दलितों के प्रति सहानुभूति का रवैया रखने की बात कर रहे हैं । इससे पता चलता है कि दलित विमर्श की सीमा बताने की अमरनाथ जी की दिशा किस ओर है ।

इसलिए अमरनाथ बार- बार डा. धर्मवीर और उनके गुट के लेखकों को समूचे दलित साहित्य का प्रतिनिधि मानने की सोची-समझी भूल करते हैं । डा. धर्मवीर के लेखन से परिचित लोग जानते हैं कि उनकी विचारधारा ने दलित चेतना पर कितना बड़ा प्रहार किया है । अमरनाथ ने धर्मवीर और कैलाश दहिया को उद्धृत करते हुए उनकी बिलकुल सही आलोचना की है जो दलितों के अंतरजातीय विवाह पर प्रश्नचिह्न लगते हैं, यहाँ तक कि डा. अम्बेडकर की विचारधारा को नकारते हैं जिसपर समूचा दलित विमर्श टिका हुआ है । यहाँ तक तो ठीक है लेकिन भारतीय समाज पर सामान्य नज़र रखने वाले किसी भी इन्सान का भी यह कॉमन सेन्स होगा कि आज कोई भी दलित आन्दोलन बिना डा. अम्बेडकर को माने नहीं चल सकता फिर भी अमरनाथ डा. धर्मवीर और उनका समर्थन करने वाले मुट्ठीभर लोगों के बहाने समूचे दलित विमर्श को खारिज़ करने पर तुले हुए हैं, इसे नासमझी तो बिल्कुल नहीं कहा जा सकता । ‘रंगभूमि’ जलाये जाने का आरोप वे सारे दलित लेखकों पर डालते हैं, प्रेमचंद को ‘सामंत का मुंशी’ भी उनकी नज़र में सारे दलित लेखक ही कहते हैं । उनकी नज़र में अनिता भारती दलित लेखिका नहीं हैं जो कहती हैं रंगभूमि का जलना भारतीय साहित्य के इतिहास में काले अक्षरों में लिखा जाएगा (अनीता भारती, रंगभूमि और दलित अस्मिता के प्रश्न), उनकी नज़र में  कँवल भारती दलित लेखक नहीं हैं जो ‘धर्मवीर का फासिस्ट चिंतन’ नाम से पूरी किताब लिख देते हैं, उनकी नज़र में विमल थोरात, रजनी तिलक और तमाम दलित स्त्रीवादी लेखिकाएं कहीं नहीं हैं जो अम्बेडकर को नकारते हुए दलित विमर्श को भटकाने पर आमादा धर्मवीर और उनके समर्थकों का पुरजोर विरोध करती हैं । ज़ाहिर है अमरनाथ जी की इस चुनिंदा विस्मृति के पीछे कुछ कारण  हैं । ये कारण भी उनके लेख में साफ़ दिखाई देते हैं जब वे साहित्य पर बात करते-करते अचानक लिखने लगते हैं कि जाति का प्रमाणपत्र बनवा कर आरक्षण का लाभ लेने वालों का ‘धंधा’ खूब फल-फूल रहा है और दलितों के भीतर एक क्रीमीलेयर पैदा हुआ है । यहाँ ‘यूथ फॉर इक्वैलिटी’ के लोग याद आते हैं जो सामाजिक न्याय से खफ़ा होकर सारा गुस्सा आरक्षण पर निकालते हैं और इसे ही सामाजिक गैर-बराबरी का कारण बताते हैं । अमरनाथ जी की मानें तो इस कथित क्रीमीलेयर से वर्ग भेद बढ़ रहा है, मानो आरक्षण की व्यवस्था से पहले वर्ग समानता थी ।

अमरनाथ बार-बार उन मार्क्सवादी मुहावरों का प्रयोग करते हुए दलित विमर्श की आलोचना करते हैं जिनका प्रयोग करने से अब मार्क्सवादी भी बचते हैं । भारत में मार्क्सवाद को परिभाषित करने में जो गलतियां यहाँ के मार्क्सवादियों ने की उसे उन्होंने अब स्वीकार करना शुरू कर दिया है लेकिन अमरनाथ अब भी उसी पुरानी परिभाषा पर टिके हुए हैं । जाति को अनदेखा करना भारतीय मार्क्सवाद की एक बड़ी भूल थी जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा और किसी तरह की सर्वहारा क्रांति की संभावना से हम दूर होते गए । वर्ग भेद को आधार और जाति-जेंडर विभेद जैसी चीजों को अधिरचना का हिस्सा मानना मार्क्सवाद की सार्वभौमिक गलती थी जिसे समय-समय पर अलग-अलग देशों में दुरुस्त करने की कोशिशें हुईं । लेकिन अमरनाथ जी कि जिद है कि आधार-अधिरचना के ठीक उसी मॉडल को मानेंगे जो मार्क्स-एंगेल्स ने दिया था । लेख का अंत वे साफ़-साफ़ लिखते हुए करते हैं : ‘समाज के चिंतकों का ध्यान वर्ग-संघर्ष की हकीकत से हट कर दलित-विमर्श और स्त्री-विमर्श की भूलभुलैया में भटक गया है, जबकि जाति-पांति और छुआछूत एक मरणासन्न सामंती मूल्य हैं और वर्ग संघर्ष एक जिंदा हकीकत ।’ अब इस सादगी पर कौन न मर जाये ऐ खुदा.. अमरनाथ जी से पूछा जाना चाहिए कि अगर ये सब मरणासन्न सामंती मूल्य हैं तो क्यों दलितों पर होने वाले अत्याचारों में, स्त्रियों के साथ होने वाली यौन हिंसाओं में भयानक वृद्धि हुई है? अमरनाथ जी वर्ग भेद और सामाजिक गैर बराबरी के बीच का जो रिश्ता है उसे नज़रअंदाज करते हैं । पूंजीवाद की ओर अग्रसर अर्थव्यवस्था और इससे उपजे वर्ग भेद ने किस तरह जातिवाद को मजबूत करते हुए दलित और पिछड़ी जातियों को संसधानविहीन बनाया है और जातिवाद ने किस तरह पूँजीवाद की जड़ें पक्की की हैं उसकी तहों तक वे नहीं पहुँच पाते । अधिरचना के हिस्से की चीजें कब आधार को प्रभावित करने लगती हैं और खुद आधार की तरह व्यवहार करने लगती हैं उसकी सही समझ अमरनाथ जी के पास नहीं है । दरअसल, भारतीय समाज में वर्ग-संघर्ष की कोई भी संभावना बिना जाति की हकीकत को स्वीकार किये बगैर साकार नहीं हो सकती । जो लोग वर्ग संघर्ष में हिस्सा लेंगे वे कौन लोग होंगे ? ज़ाहिर है, वे जाति व्यवस्था का लाभ उठाकर देश के सर्वाधिक संसाधनों पर काबिज हुए तथाकथित ऊँची जाति के लोग नहीं होंगे । इसलिए भारतीय समाज में वर्ग संघर्ष का मतलब केवल आर्थिक गैर बराबरी को लेकर होने वाला संघर्ष नहीं हो सकता, इसमें जाति को शामिल करना ही पड़ेगा ।

वर्ग की अवधारणा संबंधी अपनी इस सीमित समझ के कारण अमरनाथ जी के लिए बंगाल का समाज एक आदर्श समाज है जहाँ राजनीति में जाति का कोई स्थान नहीं है । वे इसके लिए भी दलित एक्टिविस्टों की आलोचना करते हैं कि वे अपना सम्बन्ध महाराष्ट्र से जोड़ते हैं बंगाल से नहीं । अमरनाथ इस जगह सही हैं कि बंगाल की राजनीति में जाति कोई बड़ा मुद्दा नहीं बनती जैसाकि बिहार, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु आदि राज्यों में है । बंगाल में 34 सालों तक वाम मोर्चे की सरकार रही जिन्होंने आर्थिक गैर बराबरी के सवालों इर्द-गिर्द ही अपनी राजनीति को रचा । इसके पहले वहाँ कांग्रेस की सरकारों ने भी जाति को तवज्जो नहीं दी । दरअसल, जाति का न होना और जाति पर बात न करना दो अलग-अलग चीजें हैं । ऐसा नहीं है कि बंगाल के समाज में जाति या जातिवाद की मौजूदगी नहीं है फिर भी वहां की राजनीति ऐसी रही कि जाति पर ध्यान नहीं दिया गया । ये कैसी राजनीति है इसपर सोचा जा सकता है । इस राजनीति का परिणाम ये है कि इस सूबे के पिछले ग्यारह मुख्यमंत्रियों में एक भी दलित-पिछड़ी जाति का नहीं है न ही कोई बड़ा नेता इन तबकों से निकल पाया । खुद ममता सरकार के नए मंत्रालय पिछड़ा वर्ग कल्याण मंत्रालय के मंत्री उपेन्द्रनाथ बिस्वास का कहना है कि बंगाल में ऊँची जातियों का वर्चस्व इतना ज्यादा है कि निचली जातियाँ इसके खिलाफ किसी तरह का विरोध प्रदर्शन करने की हिम्मत भी नहीं कर पातीं, बीस प्रतिशत सवर्ण जातियों के लोग अस्सी प्रतिशत लोगों पर राज कर रहे हैं, स्थिति बिहार से भी बुरी है.. बंगाल ने किसी जगजीवन राम, मायावती, लालू प्रसाद या नीतीश कुमार को पैदा नहीं किया । आगे वे जोड़ते हैं कि ढोंग के मामले में बंगाली भद्रलोक को कोई मात नहीं दे सकता । (आउटलुक, दिसंबर 2012) । जबकि अमरनाथ जी के अनुसार बंगाल का समाज महाराष्ट्र, बिहार, उत्तर प्रदेश से बहुत आगे है और इन प्रान्तों में जातिप्रथा को राजनीति ने गोद ले लिया है । यहाँ अमरनाथ अपना स्टैंड साफ़ कर देते हैं कि जाति को सच्चाई को स्वीकार कर इसपर बात करना, इसे राजनीति का हिस्सा बनाना जातिवाद है और जाति पर मौन साधकर चुपके-चुपके जातिवाद करना प्रगतिशीलता । पश्चिम बंगाल के पिछड़ा वर्ग कल्याण मंत्रालय की ही रपट है जिसके मुताबिक सवा लाख से ज्यादा जाति प्रमाण पत्र के आवेदन लंबित पड़े हैं, लगभग सभी सरकारी विभागों में नियुक्तियों में आरक्षण का पालन नहीं हो रहा है, खुद मंत्रालय की योजनायें ठीक से काम नहीं कर रहीं । (मंत्रालय की सालाना प्रशासकीय रपट 2010-11) यह पश्चिम बंगाल ही है जहाँ ओबीसी का आरक्षण देश के बाकि हिस्सों के 27 प्रतिशत के मुकाबले 17 प्रतिशत है और वो भी पूरा नहीं किया जा रहा ।

इस सबके बावजूद अमरनाथ जी के लिए बंगाल जिंदाबाद है और इसके लिए वे गलत आंकड़े भी पेश करते हैं । बेहद आत्मविश्वास से वे लिख डालते हैं कि बंगाल में लगभग साठ से सत्तर प्रतिशत विवाह अंतरजातीय होते हैं और इस तरह वहां जातिप्रथा का बंधन सबसे कमजोर है । जबकि सच्चाई ये है कि बंगाल में अंतरजातीय विवाह का प्रतिशत सवा नौ प्रतिशत है जो महाराष्ट्र के सत्रह प्रतिशत और उत्तर प्रदेश के साढ़े ग्यारह प्रतिशत के मुकाबले कम है । सबसे ज्यादा अंतरजातीय विवाह पंजाब में (बीस प्रतिशत) होते हैं और बंगाल इस मामले में हरियाणा से भी पीछे है । (इंटरकास्ट मैरिज इन इंडिया : हैज इट रियली चेंज्ड ओवर टाइम, यूरोपियन पॉपुलेशन कांफ्रेंस, 2010) दलित लेखकों को गलत साबित करने के लिए बंगाल को महाराष्ट्र से बड़ा बताने की होड़ में वे बंगाल के उन्नीसवीं सदी के सुधारकों की लिस्ट जारी करते हैं और बताते हैं कि कैसे इन्होंने विधवा विवाह, स्त्री शिक्षा के पक्ष में और जातिवाद, सती प्रथा के खिलाफ़ आन्दोलन चलाया । उनके मुताबिक दलित लेखकों को बंगाल के इन सुधारकों से प्रेरणा लेनी चाहिए । तो क्या दलित आन्दोलनकारी ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले को भूल जाएँ जिन्होंने समाज की गालियां सुनते हुए बंगाली भद्रलोकों से काफी पहले स्त्रियों की शिक्षा के लिए देश का पहला स्कूल खोला, जातिवाद और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की जड़ों को हिन्दू धर्म में पहचानते हुए उसकी आलोचना की ? क्या वे शाहूजी महाराज को भूल जाएँ जिन्होंने वंचित तबकों की उन्नति के लिए पहली बार आरक्षण का प्रावधान किया ? क्या वे भीमराव आंबेडकर को भूल जाएँ जिनकी वजह से दलितों में पहली बार इतने बड़े पैमाने पर चेतना का प्रसार हुआ और अबतक जारी है; जिनके कानूनी प्रावधानों की वजह से लाखों दलितों को अपनी नारकीय ज़िन्दगी से छुटकारा मिला है ? महाराष्ट्र के इन नायकों के मुकाबले बंगाल के वे समाजसुधारक कहाँ ठहरते हैं जिन्होंने हिन्दू धर्म के कठोर प्रावधानों को थोड़ा लचीला भर बनाने की कोशिश की ताकि शोषण का यह तंत्र शोषितों के प्रहार से टूट न जाये ? सती प्रथा और विधवा विवाह न होना निचली जातियों की समस्या नहीं थी ये उन्हीं जातियों की समस्या थी जिनसे बंगाल के वे समाजसुधारक आते थे । और सुधार भी कैसा? जो विधवा विवाह अधिनियम 1856 है वो अपने मिजाज में कितना ब्राह्मणवादी और पितृसत्तात्मक है इसका पता इससे चलता है कि इसके तहत यदि विधवा वर्जिन है तो उसे अपने पुनर्विवाह के लिए अपने बाप, दादा, भाई या मां से अनुमति लेनी पड़ेगी, अगर वह वर्जिन नहीं है तभी वह अपनी मर्जी से पुनर्विवाह कर सकती है । यानि हर हाल में उसकी वर्जिनिटी पर परिवार का अधिकार बना रहेगा । जाति को लेकर भी बंगाल का कोई आंदोलन याद नहीं पड़ता ।

साफ़ है कि अमरनाथ जी का लेख दलित साहित्य के बहाने समूचे दलित आन्दोलन को खारिज़ करने के उद्देश्य से लिखा गया है उसकी ईमानदार आलोचना करने के उद्देश्य से नहीं । पर वे इसमें बुरी तरह असफल हो गए हैं, बिना किसी शोध के और बेहद लचर तर्कों के सहारे लिखा गया यह लेख कहीं से भी दलित विमर्श की सीमा नहीं बता पाता ।
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लेखक संपर्क- kumar.aakash91@gmail.com

दलित विमर्श की सीमाएं
अमरनाथ
धरती के भीतर सदियों से जलने वाली आग जब कभी सतह को चीरकर बाहर आ जाती है तो वह ज्वालामुखी बन जाती है उसमें से निकलने वाली आग, लावा आदि से दूरदूर तक पहाड़ बन जाता है, जमीन बंजर बन जाती है । आसपास के मनुष्य, जीव-जंतु और वनस्पतियों के लिए गंभीर खतरा पैदा हो जाता है। दलित साहित्य की स्थिति भी ज्वालामुखी से फूटने वाली आग की तरह ही है। सदियों से दबाए और कुचले गए लोगों को जब वाणी मिली और उन्हें अपने अनुभवों को बयान करने का मौका मिला तो उनके साहित्य में उनका सदियों से दबा आक्रोश मुखरित हुआ। उनकी भाषा से शालीनता गायब होती गई, आत्मालोचन को उन्होंने तिलांजलि दे दी और असहनशीलता ओढ़ ली ।
दलित-विमर्श के ज्यादातर रचनाकारों की मान्यता है कि दलित साहित्य उसे ही माना जाएगा, जिसका लेखन दलित कुल में जन्म लेने वाले व्यक्ति ने किया हो, क्योंकि दलितों की उस पीड़ा को अनुभव करने वाला एक दलित ही हो सकता है। दलित लेखकों ने प्रेमचंद जैसे साहित्यकार को ‘सामंत का मुंशी’ कहकर संबोधित किया और उनके उपन्यास रंगभूमिको दिल्ली में सार्वजनिक रूप से जलाया। दलित रचनाकार गैर दलित लेखकों को बाहर वाला मानते हैं और उनके द्वारा की गई आलोचना को एक सिरे से खारिज करते हैं। वे गैर-दलितों की उन टिप्पणियों को सहज ही अस्वीकार कर देते हैं, जिनमें उनकी रचनाओं की प्रशंसा न की गई हो।
ऐसे में सवाल है कि क्या उनके लेखन में सवर्ण चरित्र नहीं आते? और अगर आते हैं तो उनके बारे में दलित लेखकों का अंकन भला कैसे प्रामाणिक माना जा सकता है?  सवर्णों का अनुभव तो उनके पास होता नहीं। क्या वह तोड़ती पत्थरऔर भिक्षुकजैसी कविताएं हमें ख़ारिज कर देनी चाहिए, क्योंकि निराला न तो भिखारी थे और न उनके पास पत्थर तोड़ने वाली महिला का अनुभव था । इस सिद्धांत के अनुसार तो मजदूरों के जीवन के यथार्थ का अंकन सिर्फ मजदूर लेखक कर सकता है । एक वरिष्ठ साहित्यकार के शब्दों में तब तो घोड़े पर कविता लिखने के लिए घोड़ा बनना पड़ेगा । पता नहीं, कला के अन्य रूप मसलन संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला आदि के बारे में दलित चिंतकों का क्या नजरिया है ? क्या इन कलाओं को भी दलितों और गैर दलितों के खाँचे में बाँटने की योजना है?
हकीकत तो यह है कि हमारे साहित्य का अधिकांश हिस्सा स्वानुभूति का नहीं बल्कि सहानुभूति का है और इतिहास ने प्रमाणित कर दिया है कि सहानुभूति का साहित्य स्वानुभूति के साहित्य से किसी भी तरह कमतर नहीं है। साहित्य रचने वालों के लिए सिर्फ अनुभव ही जरूरी नहीं होता, उनमें भाषा पर अधिकार, लेखन क्षमता और अपेक्षित कल्पनाशीलता की भी चाहिए । अकारण नहीं है कि स्वानुभूति पर अतिरिक्त बल देने के कारण दलित लेखकों में आत्मकथाएँ लिखने की तो होड़ मची है मगर अन्य विधाओं के साहित्य के प्रति उदासीनता है।
दलित लेखकों की दूसरी बड़ी कमजोरी यह है कि वे आत्मालोचन भूलकर भी नहीं करते। जाति का गलत प्रमाण-पत्र बनवा कर आरक्षण का लाभ लेने वालों का धंधा खूब फल-फूल रहा है । दलितों के भीतर एक क्रीमीलेयर पैदा हुआ है। दलित लेखकों की नजर अपने भीतर की इनविसंगतियों पर नहीं पहुँच रही है। हाँ, दलित लेखक इस बात के लिए जरूर चिंतित हैं कि, ‘प्रेम और अंतरजातीय विवाह के नाम पर दलितों की सबसे अच्छी और पढ़ी लिखी लड़की गैरदलित ले उड़ते हैं। यूँ कहिए दलित लड़की दहेज में दलितों
 
      

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  5. सच्चाई से मुँह नहीं मोड़ना चाहिये, दलित साहित्य एक हकीक़त है और उसे अपना वाज़िब स्थान मिलाना ही चाहिये । दोनों लेखों को पढ़ने के बाद यही कहा जा सकता है कि अमरनाथ जी को आकाश कुमार के द्वारा दिया गया जबाब नहले पर दहला साबित हुआ है ।

  6. शक नही कि दलित रचनाकारों की कल्पना शक्ति एकांगी है।वह आत्मकथाओ के अलावा किसी विधा मे श्रेष्ठ साहित्य का सृजन नकर सके है।सिद्धांत मे भी अंतरजातीय विवाह पर नया बखेडा खडा हुआ है।

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