ऐसा लग रहा है लेखकों ने अपने सारे दाग धो दिए हैं, मैं हिंदी-लेखकों की बात कर रहा हूँ. जिस भाषा के लेखक देश में हर आतातायी दौर में गुम्मी-सुम्मी ओढ़े रहे वे आज प्रतिरोध के सबसे बड़े प्रतीक बने हुए हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि प्रतिरोध की माला जपने वाले वामपंथी लेखक ही नहीं बल्कि असहिष्णुता के माहौल के खिलाफ प्रतिरोध की अलख जगाने का काम उदय प्रकाश ने किया, जो बरसों से वामपंथियों के निशाने पर रहे हैं. यह हिंदी लेखकों की विश्वसनीयता वापसी का दौर है.
शासन-सत्ता, जो लेखन को हमेशा से एक पावरलेस काम मानती रही है आज इन लेखकों के खिलाफ बयान दे रही है. प्रधानमंत्री, संघ प्रमुख मोहन भागवत, भाजपा प्रमुख अमित शाह, अरुण जेटली, निर्मला सीतारमन आदि मंत्रीगण दादरी और कलबुर्गी/पुरस्कार वापसी पर बयान दे रहे हैं. आजादी के बाद लेखकों की एकजुटता और शब्दों की ताकत प्रदर्शन का यह सबसे बड़ा अवसर है. और अब शायद ही कोई यह बात कहे कि लेखकों का समाज पर कोई असर नहीं है. समाज में बढती असहिष्णुता, कटुता, साम्प्रदायिकता के खिलाफ जो माहौल देश भर में बन रहा है, जो बेचैनी बढ़ रही है पुरस्कार लौटाने वाले लेखक उसके प्रेरक तत्व बने हुए हैं.
मुझे सबसे अधिक दया आ रही है साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी पर. अकादेमी अध्यक्ष बनने वाले पहले हिंदी लेखक पर जो अपने पद पर बने रहने के लिए बेशर्मी की सारी हदें पर कर चुके हैं. उनके कार्यकाल में साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त लेखक कलबुर्गी की हत्या हुई और अकादेमी की तरफ से कोई बयान जारी नहीं हुआ. अब समय आ गया है कि अकादेमी की विश्वसनीयता को बचाने के लिए और लेखकों की इस बगावत के सम्मान में उनको अपने पद से स्वेच्छा से हट जाना चाहिए. अब लीपापोती की कोशिशें बेकार है. बहुत देर हो चुकी है. कल को हिंदी वाले इस बात पर शर्मिंदा महसूस करेंगे कि एक हिंदी लेखक अकादेमी का अध्यक्ष बना था, जिसने अकादेमी की प्रतिष्ठा को धो कर रख दिया. तिवारी जी आप तो क्रान्तिदर्शी लेखक अज्ञेय के शिष्य रहे हैं. उनको याद कीजिए और बेतिया हाता गोरखपुर कूच कर जाइए.
सत्ता के सामने शब्दों की सत्ता आज बड़ी लग रही है. उन सारे लेखकों को मेरा प्रणाम है जिन्होंने पुरस्कार लौटाकर सत्ता को बौना साबित कर दिया है और हम लेखकों का सर गर्व से ऊंचा कर दिया है.
हाँ सही कहा पुरस्कार लौटा देने भर से लोग प्रेरणा श्रोत बन गए है……