अशोक वाजपेयी अपनी जनतांत्रिकता के लिए जाने जाते रहे हैं. देश की जनतांत्रिक परम्पराओं पर जब भी संकट के बादल मंडराए हैं उन्होंने आगे बढ़कर उका प्रतिकार किया. 2002 में हुए गुजरात दंगों के समय उन्होंने सरकारी सेवा में रहते हुए खुलकर सरकार का विरोध किया था और प्रतिरोध की एक मिसाल पेश की थी. देश में खराब होते सांप्रदायिक माहौल, उसमें शासन की चुप्पी आज परेशान करने वाली है. अचानक से ऐसा लग रहा है जैसे देश का साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण किया जा रहा हो. ऐसे अशोक वाजपेयी ने साहित्य अकादेमी पुरस्कार वापस कर हम युवाओं में ऊर्जा का संचार किया है.
यह चिंता की बात है कि जो प्रतिरोध के पुरोधा माने जाते रहे हैं वे ऐसे माहौल में चुपचाप हैं. जबकि अशोक जी जैसे लेखक ने उस चुप्पी को तोड़ने का काम किया है. हम युवाओं को तनकर खड़े होने की प्रेरणा दी है. लेखक के रूप में अपनी भूमिका को समझने का सन्देश दिया है. अशोक जी सच में आज के युवा लेखकों के लिए अन्धकार में एक प्रकाश की तरह हैं.
जानकी पुल के पाठकों के लिए अशोक जी ने विशेष वक्तव्य दिया है-
“यह साहित्य, कलाओं, परम्परा और संस्कृति सबके लिए बहुत कठिन समय है. जिस बहुलता, समावेश और खुलेपन को, बहुभाषिकता और बहुधार्मिकता को हम पोसते और उससे शक्ति पाते रहे हैं, उस पर लगातार आक्रमण हो रहे हैं. हम इकहरेपन की तानाशाही के कगार पर पहुँच रहे हैं और संकीर्णता, हिंसा, हत्या, असहिष्णुता, प्रतिबन्ध सब लगातार बढ़ रहे हैं. अल्पसंख्यक होना लगभग अपराधी होना बन गया है. ऐसे समय में हम सृजनसम्प्रदाय के लोग चुप और उदासीन नहीं बैठ सकते हैं.”
Virod nayochit hona chahiye sach hai ki musalimo ko kuchh log sak ki najaro se dekhate hai Jo gal at hai
ap sahi bol rahe hai ashok jee.ham apke bato se sahmat hu.lagta he hai jaise ham is desh ke nagrik he na hai aisa ab bewahar hota hai
अशोक बाजपेई उस बुद्धिजीवी वर्ग से आते हैं जिन्हें उनकी औकात से जड़ मिल गया।
सांप्रदायिक माहौल को लेकर शासनतंत्र में कब चुपी नहीं रही…..?
2002 से पहले देश में कुछ भी अजनतांत्रिक नहीं हुआ था क्या? जो विरोध 2002 से शुरू हुआ?
सर ये कहना पूर्णतया गलत है। किसी एक उदहारण विशेष को उठाकर ऐसे गम्भीर मुद्दे से जोड़ना ठीक नहीं। अशोक जी ने 2002 में गुजरात दंगो का विरोध किया ये अच्छा था। पर उन्हें ये भी पता होता की गोधरा में मारे गये बच्चे साधू सन्त क्यों मारे गये तो क्या दोष था उनका? केवल एक पक्ष की बात कहना उचित नहीं। मैं कानपुरका रहने वाला हूँ। अखबार रोज पढता हूँ। कानपुर में हुये दंगो के इतिहास खंगलेगे तो पता लगेगा। की दंगो कब कैसे और कहाँ से शुरू होते है। आप खुद विद्वान् है। आज़ादी से पहले गणेश शंकर की मृत्यु से लेकर आज 2015 तक बहुत सारे सच देश से केवल इस लिये छिपाये गए की सौहार्द बना रहे। कुल मिलाकर अशोक जी की राय गलत और सवालिया है। व्यक्तिगत तौर पर मेरा मानना है की अल्पसंस्खयक होने का केवल लाभ उठाया जा रहा है।
हम अशोक जी के साथ हैं और सहमत भी