हिंदी में लिखने वाले ऐसे कवि-कवयित्रियों की तादाद बढ़ रही है कविता जिनके लिए कैरियर नहीं है, कुछ पाने की महत्वाकांक्षा नहीं. उनके लिए कविता समय, समाज में जो खो रहा है उसको दर्ज करने की बेचैनी है. अंकिता आनंद की कविताओं को पढ़ते हुए यह महसूस हुआ. बावजूद इसके कि उनके बयान की अपनी शैली है, कविता-विषयों की ताजगी है और भावों तीव्रता. पढने और सोचने लायक कविताएं- मॉडरेटर
1.
प्रतिकार
जब अपने डर से पनपी नफरत में तुम मुझे कुछ भी कहोगे, मेरे साथ कुछ भी करोगे,
जब मुझे मलिन करने की अन्धाधुन्ध कोशिश में
तुम्हारे भीतर स्थित काजल कोठरी के लिजलिजेपन की कलई खुलेगी,
तब तुम्हारी कुत्सित मजाल देख मेरे क्रोध की पाशविक चीखें आसमान को चीर के रख देंगी
और मेरी भिंची मुट्ठियों में होगी तुम्हारे पैरों के नीचे की जमीन.
तुम हमेशा मुझे याद दिलाते थे कि मुझमें और तुममें कितना फ़र्क है.
मैं हमेशा खुद को याद दिलाती थी कि ख़ुद में और तुममें फ़र्क बनाए रखूँ . . .
कम से कम इतना फ़र्क,
कि ख़ुद को बिगाड़ न बैठूँ.
याद रहे,
इस बार मैं वह फ़र्क भूल जाऊँगी.
क्योंकि अगर अब तक तुमने मुझे बनने नहीं दिया
तो अब शायद इस बिगड़ने में ही मेरा बनना हो.
2.
मैनेजमेंट
कुछ लोगों को अच्छी बात हजम नहीं होती.
चिढ़ते फिरते हैं.
कहते हैं,
“जिसे देखो मैनेजमेंट करने चला है.”
अरे, इनके घरों की बत्ती गुल करके
हाथ में ढिबरी थमा दीजिये,
तो भी ये ले मशालें चल पड़ेंगे.
अहमक समझते नहीं कि कितनी ज़्यादा ज़रुरत है इस देश में,
एक लोकतंत्र में,
मैनेजमेंट की,
कितनी ज़रुरत है
यूनियन लीडर को मैनेज करने की,
कारखाने में मरे मजदूर के परिवार को मैनेज करने की,
अत्यधिक जानकारी से कुलबुलाते पत्रकार को मैनेज करने की,
एफ.आई.आर दर्ज करने वाले पुलिस अफसर को मैनेज करने की,
कोर्ट के मुंशी को मैनेज करने की,
जज को . . .
सॉरी, सॉरी गलती से . . .
प्लीज़ मैनेज, ओके?
3.
अंतर पहचानें
समाज में रहना है तो शादी करनी होगी.
हाँ, शादी के अन्दर होने वाले बलात्कार, मार–पिटाई, आदि, ज़़ाती मामले हैं.
बच्चे पैदा नहीं करोगे तो समाज आगे कैसे बढ़ेगा?
बच्चे अगर माँ–बाप को घर से निकालें, ये भले ही उनका निजी मसला है.
श्राद्ध–कर्म समाज का नियम है.
उसका खर्च वहन करने के लिए पैसे नहीं? ये तुम्हारी अपनी दिक्कत है.
इज्ज़त कमानी है तो समाज की समझ में आनेवाली कामयाबी हासिल करनी होगी.
उससे तुम खुश हो या नहीं, इस माथापच्ची का वक्त समाज के पास नहीं.
व्यक्तिगत और सामाजिक में फ़र्क है, क्या इतना भी नहीं समझती?
4.
अनुत्तरित
पिछली गर्मियों में
अगर तुमने मेरे पसंदीदा प्रेम–गीत ध्यान से सुन लिए होते
तो इस बारिश मेरे ज़हन में
उन किरदारों के चेहरे खाली नहीं जाते.
5.
कलम और कूटनीति
(शिवानी [गौरा पंत] जी की स्मृति में)
पत्रकारिता की डिग्री ले ज्योंही हमने पद पर मोर्चा संभाला,
संपादक ने एक नेताजी की वर्षगाँठ पर लिखने का भार डाला.
भोजस्थल पर पहुंच हमने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई,
तो लगा मानो पूरी की पूरी इन्द्रसभा ही धरती पर उतर आई.
बाहर कतारबद्ध खड़ी थीं नाना प्रकार की देशी–विदेशी गाड़ियाँ,
व मखमली दूब के उद्यान में कहकहे लगातीं, लाल–चम्पई चंदेरी–कोटा में महिमामयी नारियाँ.
और एक दृश्य का अवलोकन कर तो मैं हुआ विशेष रुप से क्षुब्ध,
जब एक सज्जन ने मदिरा–पात्र ऐसे रिक्त किया, जैसे तप्त धरणी पर जलबिंदु हो गयी हो लुप्त.
इतने में साक्षात् नेताजी पधारे, “आपकी प्रतीक्षा में तो हम बूढ़े हो गए,”
यूँ कहकर अपने कर–कमल जोड़ वे दुहरे हो गए.
“कभी हम आपको, कभी अपने घर को देखते हैं,” इस पंक्ति को स्वरचित सा दुहरा कुछ खिंच सा गया उनके अधरों का बाँया कोना,
और सचमुच, जो साहस बटोर उनके शीश महल की ओर दृष्टि फेरी, तो हमें भी आ गया अपने स्टूडियो अपार्टमेंट की स्थिति पर रोना.
तभी नेताजी के अनुभवी चक्षुओं को अपने मुख के भावों की समीक्षा करते देख मैं झेंपा,
व अपनी अपदस्थ्ता को छिपाने हेतु उनकी और प्रश्न का एक तीर फेंका.
“सुना है आपने असामाजिक तत्वों को शरण दी है?”
वे बोले, “अजी, हमने तो आजीवन गांधीजी कि स्तुति की है.
‘पाप से घृणा करो, पापी से नहीं’, बापू ने तो यही संदेश दिया है.
तभी तो इन पापियों के शुद्धिकरण का जिम्मा हमने अपने सर लिया है.”
“लोग यह भी कहते हैं कि . . .”, पिछली बार का प्रत्युत्तर सुन मेरी आवाज़ थी अब तक लड़खड़ाई.
“अब छोड़िए भी लोगों की,” एक निश्छल स्मित बिखेर उन्होंने हाथ में सुनहरी कलम थमाई.
अपनी ग्रीवा के भीतर सोमरस डालते हुए, एक प्रसिद्ध चलचित्र की स्मृति उन्हें विभोर कर गई,
“‘क’ से कलम होती है, ‘क’ से ही कूटनीति, ‘क’ से कभी तो हमें सेवा का अवसर दीजिए, भई.”
अपनी इस व्यंग्योक्ति पर लगाया उन्होंने ऐसा ठहाका,
मानो सीधे चंद्रमा पर फहरा आऐं हो अपनी विजय पताका.
बोले, “आइए, भीतर चलें, आप कलमकारों की हम ही कर सकते हैं सच्ची कद्र,
और इस बार मुझे भी उनका आमंत्रण ठुकराना प्रतीत हुआ कुछ अभद्र.
अतः बढ़ चला उनके घर की और कुछ सहमते, ठिठकते हुए,
कभी उनको, कभी उनके घर को, कभी स्वयं को देखते हुए.
6.
अब मेरी बारी
जब तुमने हमेशा मुझे टुकड़ों में ही देखा है,
जब तुम्हारे लिए मैं कभी संपूर्ण रही ही नहीं,
तो ये लो,
संभालो मेरा ये टुकड़ा,
मेरा स्तन,
जिसे मैं हवा में उछाल रही हूँ.
फिर देखते हैं
अगर आसमान से गिरती लपटों में झुलसे तुम्हारे हाथ
कुछ और टटोलते हुए
वापस आते हैं.
7.
द्विविवाह
मैं तुम्हारे प्रेम में वफ़ादार नहीं
तुम अकेले नहीं हो
हर क्षण मेरे मन में
अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने वाले।
वैसे हमने बात तो कर ही रखी थी इस बारे में
कि ऐसा कुछ हुआ
तो हम शांतिपूर्वक अपनी अलग–अलग राह चुन लेंगे।
पर अब तुम मुझसे दोनों में से चुनने को कहो
तो ये भी संभव नहीं।
तुम दोनों को अलग नहीं कर सकती।
मेरे उतने ही करीब हो तुम दोनों,
तुम
और तुम्हारे ना होने का भय.
सो उस दूसरे के साथ जीने की आदत डाल लेना चाहती हूँ.
नहीं चाहती कि उससे पीछा छुड़ाने के चक्कर में
तुम मुझसे छूट जाओ.
सौ (मन की) बात की एक बात
भाड़ में गई तुम्हारी निरपेक्षता
और तेल लेने जाए तुम्हारी कट्टरता.
मैं तो बस दुनिया देखना चाहता हूँ.
चाय का प्याला हाथ में लिए,
गीली पलकों से
माँ को याद करते हुए,
तुम सबको भूल जाना चाहता हूँ.
Naye tewar ki achhi rachana
Achchi kavitayen!
Very sentimental and social input poems. Very nice.
अच्छी कवितायेँ
विषयों की विविधता के बावजूद कवि की पकड़ कही ढीली नही पड़ी। एक अलग अस्वद और शिल्प की ज़रूरी कविताएँ ।
बेहद भावपूर्ण और सामयिक कवितायेँ।उमस वाली गर्मी में ताजा हवा के झोंके के मानिंद।
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