हिंदी में नज्में कम लिखी जाती हैं. अहसास की शिद्दत कविताओं में कम दिखाई देती है. कुछ बने-बनाए सांचे हैं, कविताओं के, विचार के ढांचे हैं, जिनमें रूह की सच्ची आवाज दब जाती है. कल पटना पुसक मेले में स्मिता पारिख के नज्मों के संग्रह ‘नज्में इंतज़ार की’ का लोकार्पण हुआ. उनकी नज्मों में अहसास को उनके मूल में पकड़ने और उनको उसी रूप में रचने की बेचैनी है. आखिर कविता को साहित्य की सबसे सच्ची विधा इसीलिए भी तो कहते हैं. कुछ चुनिन्दा नज्में- प्रभात रंजन
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1.
दूसरी औरत
मैं वो हूँ जिसे घरों मे जगह मिलती नहीं
बंद कमरों में मिलतीं हैं रहमतें मुझको
मैं खुलेआम किसी की कुछ नहीं लगती
फिर भी सुनती हूँ कि मैं जान हूँ उनकी
न मुझे रुतबा मिले, न सकूँ न है कोई नाम मेरा
कुछ लोग मुझे ‘दूसरी‘ कहा करते हैं
मैं उनके सपनों में बसा करती हूँ
वो अपने जीने की वजह भी कहते हैं मुझे
उनकी महफ़िल में न नाम, न निशान है मेरा
उनकी रातों को मैं फिर भी रंगा करती हूँ
वो अपनी सीमाओं में रहकर मुझसे मिलते हैं
मैं हर वक़्त उनकी राह तका करती हूँ
उनकी शुहरत पे मैं एक दाग़ की मानिंद हूँ
जिसको दुनिया की नज़रों से छुपाते हैं वो
अपनी हसरत तो मैं उनसे छुपा लेती हूँ
ये मुहब्बत ही कमबख़्त उभर आती है
‘भूल जाओ‘ कहकर वो मुँह फेरते हैं अक्सर
मैं तनहा अपने अंधेरों में भटक जाती हूँ
उनको साँसों की तरह रोज़ जिया है मैंने
वो बिना साँस लिएजीने को कहते हैं अब
अपनी हालत पे रोती हूँ, तो हसती हूँ कभी
ऐ मौत आ तू ही जुदा कर दे हमें
आ तू ही अब बेख़ौफ़ बना दे मुझको
आ तू ही बतला दे उनको क़ीमत मेरी
और मुझको मोहब्बत का सिला भी दे दे
2.
ख्वाब जागे हैं
फिर नींद गुम… ख़्वाब जागे हैं अभी
बसने दो पलकों में सुलगती यादों को
उन गुज़रे हुये पलों के
भीगे एहसासों से…..
एक रात में भी कुछ लम्स जी लूँ…..
फिर संवारूं सूनी पलकों को….
कि जिनसे रौशन होता है
मेरी रूह का कोना कोना
तन्हाई महक उठती है
तेरी साँसों की मादक ख़ुशबू से
जुगनुओं से जल उठते हैं…
मेरी आँखों के चराग…..
मुट्ठी में भींचकर रखना चाहती हूँ….
वो बीता एक एक लम्हा…
पर वक़्त ही तो है…….
फिसल जाता है ….।
गुज़रना फ़ितरत है उसकी…..
फिर नींद गुम…. ख़्वाब जागे हैं अभी …
बसने तो दो पलकों में… सुलगती यादों को।
3.
फर्क तुझमें मुझमें
तेरी ख़ुशियाँ.. तेरे अहसास
तेरा हँसना.. तेरा खिलना….
मुझसे बिछड़कर भी तेरा…
अपने आप में गुम रहना….
तेरी महफ़िलें… तेरी शोहरतें…
तेरी चाहतें…. तेरे जज़्बात….
और इन सब के बीच….
तनहा … अधूरा सा तू…..
सोचता तो होगा ना कभी….
कि कितनी बेरंग होती तेरी ये
शोरगुल वाली ख़ोखली ज़िंदगी
अगर इसमें मेरी पाक मोहब्बत का
रंग यूँ घुला ना होता….. कुछ रंग मेरी शोख़ी का
कुछ अंश मेरी हस्ती का
तुम्हारे अधूरेपन को पूर्ण बनाती मैं
तुम्हारे अंदर की आवाज़ को
तुम्हारे होंठों तक पहुँचाती … मैं… समाज और झूठी शान की बेड़ियों में फँसा तू…।
इश्क़ की दीवानगी के परवाज़ लिए मैं
ख़ौफ़ और मजबूरी का पुलिंदा तू….
अल्हड़ नदी सी बेख़ौफ़ बहती मैं…. तू चाहता तो बहुत है मुझसा बनना…
तू खुद को कोसता भी है….
और तू ये जानता भी है…
कि तेरी ज़िंदगी के मायने हैं मुझसे
और मैं बनी हूँ तेरे लिए….. तू मुझसे प्यार भी करता है और नफ़रत भी….
क्यूँकि ना तू मेरा हो सकता है … ना किसी और का….
मैं… तुझको तेरे अधूरेपन, तेरे ख़ालीपन
का अहसास कराती हूँ हरपल….
और तू मेरे बग़ैर जी भी नहीं पाता,,,,
क्यूँकि तेरी रूह का आईना हूँ मैं…
और ये हक़ीक़त जानता है तू…..
तेरा हँसना.. तेरा खिलना….
मुझसे बिछड़कर भी तेरा…
अपने आप में गुम रहना….
तेरी महफ़िलें… तेरी शोहरतें…
तेरी चाहतें…. तेरे जज़्बात….
और इन सब के बीच….
तनहा … अधूरा सा तू…..
सोचता तो होगा ना कभी….
कि कितनी बेरंग होती तेरी ये
शोरगुल वाली ख़ोखली ज़िंदगी
अगर इसमें मेरी पाक मोहब्बत का
रंग यूँ घुला ना होता….. कुछ रंग मेरी शोख़ी का
कुछ अंश मेरी हस्ती का
तुम्हारे अधूरेपन को पूर्ण बनाती मैं
तुम्हारे अंदर की आवाज़ को
तुम्हारे होंठों तक पहुँचाती … मैं… समाज और झूठी शान की बेड़ियों में फँसा तू…।
इश्क़ की दीवानगी के परवाज़ लिए मैं
ख़ौफ़ और मजबूरी का पुलिंदा तू….
अल्हड़ नदी सी बेख़ौफ़ बहती मैं…. तू चाहता तो बहुत है मुझसा बनना…
तू खुद को कोसता भी है….
और तू ये जानता भी है…
कि तेरी ज़िंदगी के मायने हैं मुझसे
और मैं बनी हूँ तेरे लिए….. तू मुझसे प्यार भी करता है और नफ़रत भी….
क्यूँकि ना तू मेरा हो सकता है … ना किसी और का….
मैं… तुझको तेरे अधूरेपन, तेरे ख़ालीपन
का अहसास कराती हूँ हरपल….
और तू मेरे बग़ैर जी भी नहीं पाता,,,,
क्यूँकि तेरी रूह का आईना हूँ मैं…
और ये हक़ीक़त जानता है तू…..
4.
मैं कैसे तुझसे प्यार करूँ?
जो तुझमें ज़िंदा है, वो तू है ही नहीं,
बता ऐ अजनबी मैं कैसे तुझसे प्यार करूँ?
न वो जुनून है, वो लगाव, न वो ऩजर ही रही,
अब तो पहले सा तुझमें कुछ रहा भी नहीं ।
तुझसे मिलके कुछ उदास सी हो जाती हूँ,
बता ऐ अजनबी मैं कैसे तुझसे प्यार करूँ?
अब तो दरारें ही दरम्यान हैं अपने,
ना वो सिलसिले, ना चाहतें ना गुफ्तगू बाकी,
मैं तेरे शहर में तुझको कहाँ तलाश करूँ,
बता ऐ अजनबी मैं कैसे तुझसे प्यार करूँ?
तेरा ये शहर भी तेरे मिजा़ज जैसा है,
ना खुल के मेरा हो, ना अपना मुझको होने दे,
तेरी महफिलों में मेरा नाम तक शुमार नहीं,
बता ऐ अजनबी मैं कैसे तुझसे प्यार करूँ?
तेरे करीब आने की हसरत में,
मैं अपने आप से हर पल यूँ बिछड़ती रही,
ना तू है, न मुहब्बत और ना अब मैं रही पहले सी,
बता ऐ अजनबी मैं कैसे तुझसे प्यार करूँ?
अच्छी रच्नाये
बहुत बहुत धन्यवाद कविताजी
स्मिता पारिख जी की 'नज्में इंतज़ार की' से सुन्दर रचना प्रस्तुतिकरण हेतु आभार! स्मिता जी को हार्दिक बधाई!