फिल्म ‘जुगनी’ पर युवा लेखिका अनु सिंह चौधरी जी ने इतना अच्छा लिखा है कि पढने के बाद मैं यह सोच रहा था कि फिल्म अब कहाँ देखी जा सकती है. वह ज़माना तो रहा नहीं जब फ़िल्में सिनेमा हॉल में हफ़्तों टिकी रहती थी. आप भी पढ़िए- मॉडरेटर
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एक लड़की टिकट विंडो पर खड़ी होकर जेनरल का टिकट मांगती है – पंजाब जाने की अगली ट्रेन का। पीठ पर बैगपैक, माथे पर झूलते बेतरतीब बाल, लेकिन एक किस्म की बेख़ौफ़ बेपरवाही। ये जुगनी की मुख्य किरदार है, विभावरी। दाएं का हाथ पकड़कर बाएं से पूछती एक लड़की एक लोक गायिका बीबी सरूप की तलाश में एक छोटे से कस्बे की चौखट पर चली आती है, और फिर एक अनजान गांव की ओर मुड़ जाती है। विशाल भारद्वाज की आवाज़ में डुगडुगीडुग गीत क्या शुरु होता है, एक यकीन बंध जाता है। अगले दो घंटे का सफ़र निराश नहीं करेगा।
ये वास्ते रास्ते झल्ले शहरां
रमते जोगी वाला कायदा
आवभगत में मुस्कानें
फ़ुर्सत की मीठी तानें
दाएं का हाथ पकड़ के
बाएं से पूछ के
ऐसी किसी फ़कीरन का एक सफ़र! किसी मलंग मस्ताने का एक सफ़र!
आप जब अपने किसी दोस्त की कोई रची हुई कोई चीज़ देख रहे होते हैं तो निष्पक्ष होकर उसे देख ही नहीं पाते। अपने दोस्तों की रचना में हमें अपनी ज़िन्दगी के अक्स दिखाई देते हैं – हमारी अपनी तकलीफें, अपनी उलझनें, अपने ग़म, अपने इश्क़। या फिर उसकी उलझनें, उसके ग़म, उसके इश्क़। शेफाली भूषण की फ़िल्म जुगनी की यही ख़ासियत है कि इसकी कहानी यूनिवर्सल है। एक न एक बार हम सब ज़रूर विभावरी हुए हैं अपनी ज़िन्दगी में। एक न एक बार ज़रूर मस्ताना-सा इश्क़ किया है हमने। नहीं किया तो ख़ाक जिया फिर।
जुगनी की कहानी है खोज है। एक किस्म का आत्मअन्वेषण। कई परतों में ये आत्मान्वेषण चलता रहता है। बीबी सरूप क्यों किसी पर भरोसा नहीं कर सकती? उसका बेटा मस्ताना फिर कैसे इतनी आसानी से यकीन कर लेता है – कुछ इस तरह कि नहाते हुए अपने आंगन में घुस आई एक अजनबी लड़की के सामने भी वो पहली बार में भी किसी तरह असहज नहीं होता। मस्ताना तरल है। सहज। निश्छल। अगर मस्ताना उत्कल नदी है तो विभावरी ठहरी हुई एक झील। दोनों एक-दूसरे से जुदा भी हैं, एक दूसरे में शामिल भी हैं। इसलिए ज़ुबानों का जुदा होना और सोच में अलग होना बेमानी हो जाता है। नदी और झील जहां मिलते हैं वहां की मिट्टी को उर्वर कर जाते हैं। इस उर्वर मिट्टी में रची-बसी मिट्टी की धुनें विभावरी चुनती है और उसे शोहरत के बाज़ार में ले जाकर जगमग कर देती है। मस्ताना और विभावरी के बीच का रिश्ता फिर भी एक-दूसरे को बांधने के लिए उत्कट नहीं होता। उस रिश्ते का नूर दोनों को अपनी-अपनी दुनिया को रौशन करते रहने का हौसला देता रहता है, और जुगनू की यही ख़ासियत है। ये फ़िल्म वो प्रेम कहानी नहीं जिसके सुखान्त होने की उम्मीद हो, या दुखान्त होने का अफ़सोस हो। मस्ताना और विभावरी जितनी देर साथ होते हैं, एक-दूसरे को रौशन करते रहते हैं। एक-दूसरे के अंधेरे रास्तों में जुगनू की कमज़ोर ही सही, लेकिन थोड़ी सी रौशनी बिखेरते रहते हैं।
विभावरी बेचैन है क्योंकि उसे वो नहीं मिल रहा जिसकी खोज में वो बीबी सरूप के दरवाज़े जा पहुंची है। मस्ताना उसे एक पीर की मज़ार पर ले जाता है। पीर की चौखट पर दुआ रख दी जाती है। सजदे में दीवाने लोग कव्वाली की चादर मज़ार पर बिछाए हैं। मैं नहीं जानती क्लिंटन सेरेजो कौन है। लेकिन जो भी फ़नकार है ये, कमाल है। वरना एक थिएटर हॉल में जमा हुए कुल जमा चार दर्शक एक कव्वाली यूं आगे झुककर इतनी तन्मयता के साथ नहीं सुनते। न सिसकियां भरते हैं, न वाहवाहियां लुटाते हैं, न राहत फतह अली ख़ान के नाम की दुआएं भेजते हैं।
निस दिन निस दिन निस्बत अल्लाह
अल्हड़ मैं पिया मोरा अल्लाह
अगर जुगनी पर भरोसा न भी बन पाए तो भी ये फ़िल्म विशाल भारद्वाज और ए आर रहमान के उस भरोसे के लिए देखी जानी चाहिए जिसके दम पर दो चोटी के मौसिकीकार इस फ़िल्म से जुड़ गए। जुगनी का संगीत उसकी कहानी की तरह ही दिल से बनाया गया है। उतनी ही शिद्दत से जितनी शिद्दत से हम किसी को डूबकर प्यार करते हैं। उसी ही ईमानदारी के साथ, जितनी ईमानदारी से हम बिना किसी अपेक्षा के, अनकंडिशनली प्यार करते हैं किसी को। उतने ही भरोसे के साथ, जिस भरोसे के साथ ख़ुद को सौंप देते हैं अपने महबूब के हाथ। जुगनी फ़िल्म मस्ताना और विभावरी के बीच उस एक सीन के लिए भी देखा जाना चाहिए जिसमें दो दुनिया के दो महबूब अलग-अलग रागों और ज़ुबानों में, लेकिन एक ही सुर में अपने किसी रूठे हुए महबूब को याद करते हुए एक-दूसरे की बांहों में निढाल हो जाते हैं। और फिर बुल्ले शाह हमारी आंखों के कोरों से ढुलक जाते हैं। अपने एक इश्क़ में जाने कितनी मोहब्बतों का ग़म जीते हैं हम, उसका बोझ ढोते हैं!
हट मुल्ला मैनूं रोक न
मैंनूं अपनी तोड़ निभावण दे
अपनी तोड़ निभाके मैनूं
घर कजरा दे जावणं दे
कजरी बनिया इश्क़ नी घट्टदी
मैनूं नच के यार मनावण दे
मैनूं नच के यार मनावण दे
दो अलग-अलग ग्रहों के जीव अगर इश्क़ में, या फिर जुनून में, एक ही धरातल पर आ बैठें तो क्या होता है? इश्क़ का अंजाम गांठों में बांध दिया गया कोई एक रिश्ता ही क्यों हो? हम क्या ढूंढ रहे होते हैं ताउम्र? ये कैसी प्यास है जो बुझती नहीं, ये कौन-सी खोज है जो कभी पूरी ही नहीं होती? जुगनी फ़िल्म नहीं है, दरअसल वो जगमग रौशनी है जो विभावरी और मस्ताना के साथ-साथ हमारे रास्ते को भी जगमग कर उठती है. जुगनू ऐसे बेमानी सवालों के जवाब ढूंढने की कोई कोशिश नहीं करता। ये फ़िल्म जितना इसके किरदारों का सफ़र है, उतनी ही हमारी भी यात्रा है।
एक फ़िल्म की समीक्षा में हर किरदार और हर सीन पर टीका रचा जा सकता है। लेकिन जुगनी ये डिज़र्व नहीं करती। इस फ़िल्म को एक ही तरह से इज़्जत नवाज़ा जा सकता है – इस फ़िल्म के सफ़र को अपना निजी, बेहद निजी सफ़र बनाकर।
पढ़ सुन के देखने की तमन्ना जोर मारने लगी