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रश्मि भारद्वाज की कहानी ‘जलदेवी’

रश्मि भारद्वाज की कविताओं से मैं बहुत प्रभावित हुआ था. लेकिन उसकी इस कहानी ने मुझे चौंका दिया. किसी लोककथा की शैली में यह कहानी बढती चलती है, गाँव के जमीन से जुड़ी ठोस कहानी. मुझे गर्व होता है कि मेरी छोटी बहन इतना अच्छा लिख सकती है. ज्यादा लिखना नहीं चाहिए नजर लग जाएगी लेकिन वह लिखती रही तो हिंदी स्त्री-लेखन में एक बड़ा शिफ्ट पैदा कर सकती है. शुभकामनाएं रश्मि- मॉडरेटर 
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 जलदेवी

एक दिन वह अचानक कहाँ से आ गयी किसी को पता नहीं था। तेज़ बारिशों के संग आई थी वह। वह अचानक ऐसे ही प्रगट हो आई थी जैसे कि उस साल आई बाढ़ । अनामंत्रित, अनचाही, अप्रत्याशित। लोग कहते पानी के साथ बह आई है। कहाँ से, क्यों, इसका उत्तर उनके पास नहीं था ना ही कभी उसने कुछ बताया। हर प्रश्न के उत्तर में उसके पास बस उसकी सजीली आँखों का मौन था या फिर थी एक उन्मुक्त हँसी।

हफ़्ते भर की मूसलाधार बारिश ने गाँव के सीमांत पर बहती बागमती नदी का जलस्तर बढ़ा दिया था। तब सरकारी बांध नहीं बना था। गाँव वालों के हाथों बनी टीलेनुमा बांध की क्या मजाल थी जो पानी को रोक पाता। पानी हरहराते हुए गाँव में घुस आया। पूरा गाँव उस उफनते पानी की चपेट में , ऊपर से गरजती बारिश। गाँव के बड़े-बूड़े चंद्रिका माई की सौगंध उठा कर कहते थे कि बीते बीस- पच्चीस सालों में उन्होंने इतनी भयंकर बारिश और नदी के पानी का ऐसा कहर नहीं देखा था। नदी जो जीवनदायिनी थी, सोने से चमकते अनाज के ढेर और पीने को ठंडा मीठा पानी देती थी , आज शिव का रौद्र रूप धरे तांडव पर उतरी थी। ढ़ोर -मवेशी, कुत्ते, बिल्ली , बर्तन- भांडे, कपड़े, फूस के कच्चे पक्के घर और इंसान , हर ओर सब कुछ बहा चला जा रहा था । ‘शायद यह धरती पर बढ़ रहे पाप का फल है! कलयुग सायद ऐसे ही बह जाएगा और फिर से नयी दुनिया बनेगी’ , भोला पंडा अपनी माला फेरते कहते ।

गाँव में बहुत कम जगहें थी जो ऊंची जगह पर  थी, जहां जाकर जान बचाई जा सकती थी। एक शिवालय की छत, एक चनरिका माई का टीला जो गाछी के बीचो-बीच बना था , एक मिथिलेश ठाकुर जी की हवेली और दूसरे उससे सटे ही राम जीवन सिंह जी का पक्का बड़ा घर । उसे हवेली इसलिए नहीं कहा जा सकता था कि बाबू मिथिलेश ठाकुर की विशाल सफ़ेद संगमरमर सी हवेली के सामने वह लाल ईंटों और लाल-लाल खंभों के दलान वाला बड़ा सा मकान घर ही लगता था । अगर ठाकुर की जर्जर लेकिन गर्वोन्नत हवेली अपनी ऊंची नाक लिए बगल में नहीं खड़ी होती तो पहली ही नज़र में रामजीवन सिंह बड़ी हवेली के मालिक कहे जा सकते थे लेकिन ऐसी बांटने वाली सोच कभी उनके मन में नहीं आई थी । मिथिलेश ठाकुर के लिए उनके दिल में बड़े भाई का सम्मान था । सौतेली माँ के प्रकोप से बचने के लिए अपने पुरखों का घर और खेती बारी सब छोडकर अपनी नवब्याहता के साथ इस गाँव में बसने का फैसला रामजीवन सिंह के लिए आसान नहीं होता अगर मिथिलेश जी ने बड़े भाई से भी बढ़कर स्नेह और संबल नहीं दिया होता। रसोई के बर्तन, भांडे जोड़ने से लेकर बच्चों की कलमपकड़ाई तक हर कदम पर मिथिलेश जी का पितृवत स्नेह उनके साथ बना रहा। यही कारण था कि कई मतभेदों के बाद भी उनका सम्मान कभी ठाकुर साहब के लिए कम नहीं हुआ ।

सैकड़ों बीघे की जमींदारी और बाग बगीचों के स्वामी थे मिथिलेश ठाकुर लेकिन गाँव वालों के बीच लोकप्रियता में रामजीवन सिंह से उन्नीस ही बैठते थे। गाँव में ब्राह्मणों के घर गिने चुने थे और भूमिहारों में थे बस इन दोनों के ही परिवार। बाकी पूरा गाँव इन दोनों के पुरखों द्वारा बसाया हुआ था और अधिकांश ऐसी जातियों के थे जिनके साथ छुआछूत बरतना ऊँची जाति वालों को घुट्टी में सिखाया जाता है। मिथिलेश ठाकुर की पत्नी राजकुमारी देवी छुआछूत की प्रथा को बड़े – बूढ़ों द्वारा दिए गए तिजोरी की चाभी के छल्ले सा ही संजों कर रखती। उनकी सास सुबह उठकर किसी नीची जाति का मुंह भी देख लेती तो दिन भर कोई नया काम शुरू नहीं करती। राजकुमारी देवी का राज आते आते हालात बदलने लगे थे। गांव में ऐसे भी ऊँची जाति के परिवार नाममात्र को थे। ऊपर से दिल्ली कलकत्ते से आये पैसों ने वहां की हवा बदल दी थी। जमींदार न अब उतने जमींदार रह गए थे न उनकी प्रजा उतनी प्रजा। नए आये पैसों ने सत्ता के समीकरणों को बदला तो नहीं था लेकिन रस्सियाँ ढीली जरूर हो गयीं थीं। मसलन घर में बरतन बासन करने को अब जल्दी कोई तैयार नहीं होती। ऊपर से राजकुमारी देवी के नखरे कौन झेले कि सीरा घर ( पूजा घर ) के पास मत जाओ ; चूल्हा मत छुओ । खुल के ना कहने की ताकत अब भी नहीं आई थी लेकिन बहाने नित नए बनाये जाते , ‘ मलकाइन जी , पेट में पत्थर है , काम नाहीं होत हैं , डागटर बाबू कह रहे पहिले पत्थर निकलवाओ। अब हरिया पइसा भेजे तो आपरेसन करवाएं गरमी के बाद ।’ ऐसे ही अनंत बहाने। तंग आकर राजकुमारी देवी ने अपनी बहिन के यहाँ से एक विधवा बंगालिन ब्राह्मणी मंगवाई थी। वह सिलीगुड़ी की थी,  आगे पीछा कोई नहीं। यहाँ रहने को घर , घी चुपड़ी दो वक्त की रोटी और राजकुमारी देवी की उतारी धोती मिल रही थी। औरत को इससे ज़्यादा के इच्छा नहीं पालनी चाहिए। यह बात उसे ज़िन्दगी ने छुटपन में ही सिखा दिया था इसलिए साल भर से इस हवेली की दुधारू गाय बनी थी। बहुत कुछ चुपचाप पी जाती थी। अपमान , दुःख , भय , असुरक्षा और बहुत कुछ।

 साफ़ सफाई का रोग राजकुमारी देवी में अब अपनी सीमा पार कर गया था। नौकर चाकर दबी जुबान में कहते कि बाल बच्चा हुआ नहीं , यह सब नेम निष्ठा कहीं न कहीं उसी का मलाल है। गोल कमरा बंद कर घन्टो नहातीं। ब्राह्मणी पानी ढोते ढोते हलकान हो जाती। खाने में एक बाल भी निकल आता तो पूरी तरकारी दुबारा बनती।  बाज़ार से आए सिक्के तक धोतीं।
वह तो बहुत बाद में ही जान पायी ब्राह्मणी कि राजकुमारी देवी के सफ़ाई के लिए इस बढ़ती सनक के पीछे उनका और मालिक का दिनों दिन बिगड़ता रिश्ता है। इसी बहाने मलकाइन ख़ुद को भुलाए रखती हैं । ईश्वर जाने कमी किसमें थी  लेकिन मालिक ने दूसरी शादी भी नहीं की। पर जाने क्या बात थी कि मलकाइन से बस खाने पीने की जरूरतों के अलावा कोई बात ही नहीं होती थी! रात को दालान वाले कमरें में मलकाइन पहले दूध का गिलास थमाने तो जाती थीं लेकिन अक्सर ही रोती लौटती और ख़ुद को गोल कमरे में बंद कर लेती। ब्राह्मणी के आ जानेपर धीरे- धीरे उन्होंने यह काम भी बंद कर दिया। खाना परोस पंखा झलती रहतीं फिर ठाकुर साहेब की छोड़ी हुई थाली में अपना भोजन निकाल लेतीं। ब्राह्मणी को आश्चर्य होता कि तब उन्हें सफाई की बात क्यों नहीं सूझती थी ! जूठी थाली का बचा हुआ भोजन ऐसे ग्रहण करतीं जैसे प्रसाद खा रही हों । फिर खाना खाकर गिलास भर मलाई वाला दूध ब्राह्मणी के हाथों में थमा ख़ामोशी से अपने कमरे में जाकर दरवाज़ा बंद कर लेती थी।
उस ख़ामोशी का अर्थ क्या था और यह कौन सा अनकहा समझौता था , ये तो ब्राह्मणी को ज़ल्दी ही पता चल गया , जब एक बार पैर दबाते उसके हाथों को ठाकुर ने कस कर पकड़ लिया और ….
अगली सुबह ब्राह्मणी राजकुमारी देवी से नज़रें नहीं मिला पा रही थी लेकिन वो ऐसे बर्ताव करती रहीं जैसे कि सब सामान्य हो और तो और ख़ुद ही मालिक के पसंद की पपीते के कोफ्ते बनाने लगीं। बाकी पर्दे भी हट गए जिस दिन ठाकुर साहेब ने उसे कुछ सफ़ेद गोलियां थमाई और खाने का तरीका समझाया।
प्रजा पऊनी अपनी हद में रहे  राजा की बरक्कत और रुतबा उसी में है । यह सोच ठाकुर साहब के अंदर गहरी थी । उन्हें यह हमेशा याद रहता कि वह जमींदार है। उनका ओहदा अक्सर उनके अंदर के इंसान से टकरा बैठता और जीत अहंकार की ही होती। ठाकुर साहब ठाकुर ज़्यादा रह जाते और इंसान थोड़े से कम हो जाते। उनके अंदर बैठा मर्द एक स्त्री शरीर को भोग तो सकता था, बिना उसके जात या स्तर का विचार किए लेकिन वह उनकी संतान की माँ भी हो सकती है, यह सोच तक गवारा नहीं थी उन्हें। पत्नी पर उन्होने रहम खाया था दूसरी शादी नहीं करके लेकिन संतान नहीं देने के लिए उसे कभी माफ़ भी नहीं कर पाये थे। शरीर की भूख जागती तो यहाँ वहाँ भटकते। हाय रे गृहलक्ष्मी ! पति के एहसान तले दबी उसने वह इंतज़ाम भी घर में ही कर दिया था और सब कुछ चुपचाप ख़ामोशी से पी गयी थी। ये अलग बात है कि यह सब करते हुए कलेजे पर रखे पत्थर ने उन्हे थोड़ा और पत्थर बना दिया था।

जबकि इसके ठीक उलट रामजीवन सिंह और उनकी पत्नी शुभरूपा देवी को जीवन के थपेड़ों ने ऊंच नीच की दीवारों के परे जाकर इंसान के दिलों में झांकना सिखा दिया था।  सौतेली माँ की मार और गालियों ने बचपन में ही रामजीवन सिंह के हृदय और पैरों की जकड़न खोल दी थी। भूखे पेट मार खाकर सुबकते हुए जब घर से भागते तो दिन भर कभी किसी के घर मडुवे की रोटी खाते , कभी कहीं नोनी का साग और ख़ुदिया चावल का भात। न जाति पूछते न भूखे पेट ने कभी यह सोचा। सारे  बेवजह के नियम कायदे भरे पेट वालों की अय्याशी हैं । भूखे पेट तो दिल और दिमाग को सिर्फ एक ही बात सूझती है – रोटी। फिर न जाति मायने रखती है  न नियम कानून , न ईश्वर।
कच्ची उम्र में विवाह के बाद शुभरूपा देवी ने भी बड़े बुरे दिन देखे। कहने को जमींदार घर में ब्याही गयी थी लेकिन सास सामने बैठकर घी-मिठाई खाती और उन्हें  सूखी रोटी भी मुश्किल से नसीब होती। एक दिन रामजीवन सिंह ने तय कर लिया कि बस अब और नहीं। रातों रात सामान समेटा और पत्नी को लिए दादा की बसाई रैय्यत के एक टुकड़े में झोपडी डाल ली।वह दिन और आज़ का दिन। जो अरजा अपनी मेहनत और शुभरूपा देवी के मज़बूत लेकिन स्नेहिल संग साथ की वजह से । पाई पाई जोड़कर खेत –खलिहान ख़रीदा। घरौंदा सजता गया। वह सारा सम्मान मिला जो शायद पिता की छोड़ी हुई जमींदारी संभाल कर नहीं मिलता। जमींदारी के साये से निकालकर उन्होंने आम आदमी की जिंदगी को नज़दीक से देखा। उनका टूटना , बिखरना लेकिन फिर भी हार नहीं मानना सीखा। उनकी नयी जमींदारी इस नए गांव के लोगों के दिलों में थी। यही वजह थी कि हारी बीमारी , आपदा , सुख दुःख के सभी पल बांटने गांव वाले भागे जाते थे रामजीवन सिंह की ड्योढ़ी पर। चाहे दुखवा मुसहर को माँ के इलाज के लिए पैसे चाहिए या कि शंकर हलवाई को नयी दूकान जमाने की जगह।

इस बार की भयंकर बाढ़ में गाँव वालों को कोई आसरा याद आया तो वह रामजीवन सिंह का घर ही था। शुभरूपा देवी ने अपने दिल की तरह ही अपने घर का दरवाज़ा भी खोल दिया और पत्तों की तरह बहे जा रहे लोगों को एक ठौर मिली , उम्मीद जगी कि बच गए तो फिर बसा लेंगे उजड़ गया घोंसला। घर के कमरे , आँगन , दालान हर तरफ लोग ही लोग और पोटलियों में सिमट आया उनका अब तक का जोड़ा संसार।
घर से लगे गलियारे में खपड़े की छत पड़ी थी। वहाँ मवेशियों के चारे रखने की जगह के अलावा दो तीन अतिरिक्त कमरे भी बने हुए थे, जहाँ गाय -भैंसे बाँधी जाती थीं। आज़ वहाँ पचास से भी ज़्यादा लोग अंटे पड़े थे। क्या मुसहर , क्या दुसाध ,  क्या कहार हो कि कुर्मी ! इनके बीच आपस में भी जो रोटी- बेटी की दीवार खड़ी रहती थी , आज़ भहरा गयी थी। घर के पीछे बाड़ी का भी यही हाल था। जो थोड़ी सी भी जगह मिल रही थी लोग बाग वहीँ दुबके पड़ रहे थे। विपत्ति ने इंसान और जानवरों का फ़र्क भी मिटा दिया था।
जीवन कितना कीमती है इसका भान आपदाओं के समय ही होता है जब अपने आँखों के आगे लोग अंतिम साँसें लेते दिखते हैं। जीवन जीने के आदी हो जाते हैं हम । मान लेते हैं कि सब कुछ हमेशा के लिए है । तभी जैसे कोई अज्ञात शक्ति एक गहरे धक्के के साथ मानो नींद से जगाती है कि कुछ स्थायी नहीं है। उधार पर मिली है ये साँसें जिसे जब चाहे ब्याज के साथ लौटाने की ताकीद कर सकता है ऊपर वाला।

‘जाने है भी कि नहीं वह ऊपर वाला !’  विधवा रूकिया काकी जिसका एकलौता बेटा दिल्ली कमाने निकल गया था , अंचरा से धार- धार बहते आंसू पोंछते कहती , ‘होता तो देखो कभी न डूबने वाला चनरिका माई का टीला अभी दिखाई भी नहीं पड़ता ! वह बूढा बरगद जो विष्णु जी के छतनार शेषनाग सा फन काढ़े माई की रक्षा करता था। गांव की जाने कितनी पीढ़ियों ने वहां झूले डाले थे।  सुहागनों ने लाल चुन्नियां बांधते हुए अपने नयी जीवन की डोर माँ के हाथों थमाई थी , आज़ नाती पोतों वाली हुईं , कितनी तो भरी पूरी जिंदगी देख स्वर्गधाम को पधारी । इस बार की बाढ और बारिश ने गांव के उस बूढ़े वामन को कुछ यूँ गिराया जैसे कि भातो दुसाध की महीने भर पहले डाली झोपड़ी बही हो। अपनी इन्हीं अभागल आँखों की देखी बता रही हूँ। वो उधर भतुआ का रात दिन की मेहनत के बाद नयी बहुरिया के लिए डाला छप्पर बहा और तेज़ बिजली चमकी और फिर ऐसी भयंकर आवाज़ , ऐसी….  कि आज़ तक नहीं सुनी। फिर अन्हार छा गया। गांव का सबसे बुजुर्ग जिसने पीढ़ियों को सींचा चला गया था।’  रुकिया काकी कहती जाती और ज़ार ज़ार रोती। रोते हुए अक्सर हमें बीता बिसरा हुआ सब याद आने लगता है। दुःख आवाज़ दे कर कई और पीड़ा के पलों को बुला लेते हैं और फिर आँखें  अनायास ही झर झर बहना शुरू हो जाती हैं । काकी बूढ़े बरगद के लिए रोती जाती कि अपने बीते दिनों को याद में जब काका बरगद की डार पर सावन में  चुपके से झूले डाल आते थे। शाम को काकी दिशा मैदान के बहाने सखियों संग उस झूले पर पेंग भरती, संजों लाती खुले आसमान के टुकड़े और ताज़ी हवा के झोंकें, या कि रोतीं भातो के नए अंखुआए सपनों के बह जाने पर….  यह कौन जाने !

और ऐसे ही जब चारों ओर पानी ही पानी था। रामजीवन सिंह के दरवाजे की लाल और ठाकुर जी के दालान की संगमरमर की सफ़ेद सीढ़ियाँ तक पानी में डूबी थीं। दोनों घर किसी तैरते जहाज़ से दिखते थे और उनके अंदर फंसी थी सैकड़ों जिंदगियाँ। आकाश में बैठे लाखों , नहीं रामपुर वाली दादी तो कहती है कि इंद्रदेव के महाशंखों हाथी लगातार अपने असंख्य सूँड़ों से पानी उलीचे जा रहे थे और बड़ी बूढ़ियों की आँखों से भी रिस रहा था उतना ही पानी। वह उसी पानी में कहीं से बहती चली आई थी।
वह माने जाने कौन ! जाने कहाँ से आई थी ! पानी  में बह रहे सैकड़ों चीज़ों और मुर्दा जानवरों के साथ बहती हुई लेकिन जिन्दा। गेंहुआ रंग जो भूख , थकन और कीचड़ से सांवला पड़ गया था। रूखे  , जटाओं से केश और चिथड़ी रंग उडी साडी , जो उसके शरीर को ढकने में असमर्थ थी। इतने पानी में भी वह साबूत खड़ी साँसें ले रही थी और ख़ुद को घेरे खड़ी कौतूहल से भरी आँखों को देखकर खिल-खिल हंसे जा रही थी। लोग उसे यूँ हँसता देख हैरान थे या उस भयंकर बारिश में जिन्दा बह आने पर , वो ये तय कर पाने में असमर्थ थे। नाम पूछने पर भी वहीँ हंसी। घर बार , पिता -पति ! उत्तर वही हंसी। शुभरूपा देवी झट से चादर ले आई और उसे ढक दिया। कीचड़ में सनी होने के बाद भी उसकी देह फटे कपड़ों में झांकती लोलुप आँखों को मूक आमन्त्रण दे रही थी। एक जवान गेहुँआ देह अपने पूरे स्त्री सौंदर्य के साथ। शुभरूपा देवी उसे कपड़े से ढांपढूंप कर अंदर लें आयीं। अंदर आते ही वह भहरा कर गिर पड़ी। उसे संभालते , चौकी पर लिटाते शुभरूपा देवी ने जो देखा तो घोर आश्चर्य में पड़ गईं।  हाथों से उस अनजान और भूख से बेदम हुई लड़की के लिए लाया दूध का गिलास टन्न की आवाज़ के साथ गिर पड़ा । वह पेट से थी। कृशकाय शरीर और अंधेरे की वजह से अब तक कोई यह भांप नहीं पाया था।

पूरे तीन दिन की भयंकर बारिश के बाद भी आकाश थका नहीं था ।  ज्यों राजा इंद्रदेव अपने हाथियों को सुस्ताने का आदेश देना भूल गए थे । लोग अपने अपने दुःख भूल उसे घेरे खड़े थे। वह एक आश्चर्य थी ! अब हँसी रुक गयी थी उसकी। कुछ भी पूछे जाने पर अपनी काली लंबी बरौनियों को तेज़ तेज़ झपका देती थी जैसे कह रही हो कि तुम्हारे सवाल मेरे लिए बेमानी हैं। अनुभवी कल्यानी काकी ने आँखों ही आँखों में इशारा दिया कि पूरे पेट से है । बच्चा आने को पूरी तरह तैयार है लेकिन इ तो बतहिया जैसा कुच्छो समझ बूझ ही नहीं रही। बस फिक्क फिक्क हँसे जा रही है, काकी की पेशानी पर चिंता की सघन लकीरें थीं और आँखों में आँसू।
तब सबने झाँका उन सुंदर लेकिन भावविहीन आँखों में जो वाकई खाली थीं । बस ढेर सारा पानी था वहाँ जो हँसते हुए भी गिरता और रोते हुए भी । जब इंसान पर सुख दुःख असर करना बंद कर देते हैं तो वह अपने रोने हंसने को भी परिस्थितिओं के नियंत्रण से मुक्त कर देता है। जब चाहे दिल खोलकर हँसता है , जब चाहे उन्मुक्त होकर रोता है। वह भी शायद उसी स्थिति को पा चुकी थी। तो क्या वह वाकई बतही थी !

 गाँव वालों की खुसुर पुसुर को अनसुना करती अब वह बुक्का फाड़े रोए जा रही थी।  नदी और स्त्री कभी कभी ही अपनी सीमाएँ तोड़ती है लेकिन जब भी तोड़ती हैं , दुनिया डोल उठती है। आज़ दोनों अपनी सीमाएं भूल चुकी थी। नदी अपने लिए तय किए गए किनारों को छोड़ कहर बरपाने पर आमादा थी और एक अनजान लड़की नौ महीने का पेट लिए  विक्षिप्त अवस्था में शुभरूपा देवी के दरवाज़े ठौर मांगने पहुंची थी।

शुभरूपा देवी की नींदें उड़ गयी थी । उस बच्ची को न अपने शरीर का होश था न अपना , कैसे संभालेगी अब इसे !  ईश्वर का यह कैसा न्याय है और कौन होगा यह हृदयहीन जो इस फूल सी कोमल लड़की को इस हाल में छोड़ गया ! शुभरूपा देवी सोचती जाती और आँखों से झर झर अश्रू बहते जाते। उसके सिर पर हाथ फेरती और मन ही मन माता को अनगिनत मन्नतें मान डालती । इस अनजान नन्ही से लड़की के लिए उनके दिल में अपार स्नेह उमड़ आया था । लोग अभी अपने दुख से उबर भी नहीं पाये थे लेकिन उस अनाम लड़की का दुख उन्हें खुद से बड़ा लगने लगा था । कोई चाह कर भी उससे नफ़रत या संदेह की दृष्टि से नहीं देख पा रहा था। यह शायद उन साफ़, निष्कलंक दिखती आँखों का असर था कि कोई कुछ भी गलत सोचने को तैयार नहीं था या फिर बुरे हालात जिन्होने लोगों को एक अदृश्य स्नेह की डोर में बांध दिया था। सुख में अक्सर हम ख़ुद को अकेला कर लेते हैं लेकिन हमारा दुख हमें हर किसी के दुख से जोड़ता है। सामान्य दिनों में शायद उस लड़की को दो अच्छे बोल तो क्या माफ़ी भी नहीं मिलनी थी लेकिन चारों ओर हरहराते पानी और दिन रात बहते आकाश ने सबके दिलों की नफ़रत भी ज्यों धो डाली थी। हर सिर प्रार्थना में झुके थे , हर हाथ जुड़े हुए थे। अब उनकी प्रार्थना में वह भी शामिल थी।

ऐसी बातों के पंख लगे होते हैं। वो उड़ते – उड़ते हर कान से टकराती जाती हैं। जिसने भी सुना हतप्रभ रह गया। यह हालत और देव का ऐसा विधान !
ब्राह्मणी से यह ख़बर सुनकर राजकुमारी देवी ने मुंह बिचकाया , ‘ और खोलें उस बतहिया के लिए अपने घर के दरवाज़े ! जाने कहाँ का पाप उठा लायी है ! बिना कुल गोत्र जाने , नाम पता जाने घर में पनाह दे दिया इन लोगों ने। ऐसा भी क्या धर्मात्मा बनना ! अब क्या करेगी धर्मपुर वाली इस मुसीबत का !’
ब्राह्मणी ने एक ठंडी सांस भरी और रोटियाँ सेंकने लगी। वह कभी चाह कर भी मलकाइन या ठाकुर साहब से घृणा नहीं कर पायी। जो दूर से देखते हैं वह क्या जाने, ब्राह्मणी रोज़ दो ऐसे लोगों को देख रही थी जो हालात कि कठपुतली  बने ख़ुद को झूठे आडंबर की दीवारों में जकड़े बैठे थे। बाहर से मज़बूत दिखते ये दोनों अंदर से उतने ही खोखले और खाली थे लेकिन उनका अहंकार उन्हें न एक दूसरे का दुख समझने दे रहा था न किसी और का।
बाढ़ आने के बाद ठाकुर जी ने रामजीवन सिंह के घर जाना बहुत कम कर दिया था । ब्राह्मणी भी दूध देने जाती तो चुपचाप पी लेते और उसे जाने का इशारा करते। राजकुमारी देवी से पहले ही संवाद नहीं के बराबर था। दोनों एक घर में रहते हुए भी अपने अपने किनारों में कैद थे और ब्राह्मणी इनके बीच का सेतु बनी एक अनकही व्यवस्था में चुपचाप अपना योगदान दिये जा रही थी। उनका अंदर ही अंदर घुटना देख रही थी । उनकी उस अनकही पीड़ा की साक्षी थी जिसकी निर्माता भी वो दोनों ख़ुद ही थे। वह ख़ुद सताई हुई थी लेकिन उसे ख़ुद से ज़्यादा सताई हुई राजकुमारी देवी लगतीं जो अपने सामने ही अपनी सौत को चुपचाप झेल रहीं थीं । ठाकुर के साथ गुजारी रातों ने ब्राह्मणी को एक ऐसे इंसान से मिलवाया था जो अंदर से बहुत कमजोर है । स्त्री के साथ गुजारे अंतरंग पलों में ही एक पुरुष को समझा जा सकता है , या तो वह वहशी दरिंदा बन उठता है या फिर एक असहाय शिशु । रात को ब्राह्मणी ठाकुर साहब की माँ की जगह ले लेती थी, उनकी सारी कमजोरियों , असुरक्षा और अकेलेपन को ख़ुद में समेटती हुई । शोषित ही रक्षक बन जाता । फिर कहाँ बची रहती कोई  नफ़रत, कोई क्षोभ !

उसके आने के अगले ही रात फिर भयंकर बारिश हुई। उधर आसमान चीख रहा था उधर वह दर्द से छटपटा रही थी। कल्याणी चाची ने जल्दी से गरम पानी लिया और शुभरूपा देवी उसे अपने अंदर वाले कमरे में ले गयी। उधर बच्चे के रोने की आवाज़ घर में गूंजी और जैसे आसमान भी सकते में आ गया। घनघोर बारिश अचानक ही थम आई। उसने अपनी जैसी ही एक कोमल, फूल सी बच्ची को जन्म दिया था। कल्याणी चाची साफ़ सफ़ाई कर बच्ची को शुभरूपा देवी की गोद में दे आई। उसकी माँ तो उसके होने से भी बेसुध चुपचाप पड़ी छत को घूरे जा रही थी।

 भोर की पहली किरण के साथ ही शुभरूपा देवी ने बच्ची की सूरत देखी और ज़ोर से चिहुँक पड़ी जैसे काला लहराता नाग देख लिया हो। गोरा रंग, भूरे घुँघराले बाल और गहरी भूरी आँखें। ओह! एकदम वही चेहरा , वैसा ही रंग , वैसे ही केश और वही आँखें ! वह धम्म से खाट पर बैठ गईं। बंद आँखों से पानी झड़ने लगा। हाय ! विधाता, यह क्या दिखा रहे हो !

उसी दिन वह जैसे आई थी वैसे ही अचानक कहीं चली गयी थी। उसे जाते हुए किसी ने नहीं देखा । सब नन्ही बच्ची में मगन थे । वह अचानक ऐसे चली गयी जैसे बच्ची को उसकी सही जगह पहुंचाने भर के लिए आई हो ! जैसे उसके आने का एकमात्र उद्देश्य ही यही था और कुछ न समझना –बूझना भी उसके इसी उद्देश्य का हिस्सा। जैसे वह कभी कुछ भूली ही नहीं हो। नहीं तो यह कैसे याद रखती कि उसे कहाँ जाना है! कहाँ उसे और उसके नवजात को ठौर मिलेगी ! वह साधारण स्त्री नहीं थी । इस भयंकर पानी में जब कोई बाहर कदम तक नहीं निकालने की  हिम्म्त कर सकता था । वह चली गयी थी या डूब गयी थी ! आज़ सालों बाद भी कोई नहीं जान सका उसका सारा सच ।

बच्ची के जन्म और उसकी रहस्यमयी माँ की ख़बर सुन कर राजकुमारी देवी भी ख़ुद को रोक नहीं पायी । उन्हें ड्योढ़ी पर देखते ही घबरा कर शुभरूपा देवी ने बच्ची के मुंह पर कपड़ा डाल दिया लेकिन कुछ सच पर्दे डाल देने से भी नहीं छुपाए जा सकते। राजकुमारी देवी ने बच्ची के चेहरे पर पड़ा कपड़ा  हटाया और अचानक उन्हें लगा कि पृथ्वी डोल रही है ठीक वैसे ही जैसे कि एक बार उनके छुटपन में डोली थी। आँखों के आगे अन्हार छा गया था और कुछ सूझ नहीं रहा था। वह कुछ पल निष्प्राण सी खड़ी रहीं और फिर ढह गयी। शुभरूपा  देवी ने नहीं संभाला होता तो धरती पर जा गिरतीं।

वह नवजात शिशु अगर उनकी कोख से जन्म लेती तो भी शायद ऐसी ही होती । बिलकुल वही केश , वही रंग , वही गहरी भूरी आँखें मालिक जैसी । मिथिलेश ठाकुर के जैसी !

आज़ जाने कितने दिनों बाद वह धार-धार रोयीं थी जैसे अब तक जमा मन का सारा ताप बहा देना चाहतीं हों । जैसे कि पत्थर पिघलता हो अंदर कोई और जलधारा फूट फूट निकली जाती हो । मालिक ने यह क्या किया ! यह कैसी सज़ा दी उम्र भर की उन्हे, ख़ुद को और उस अनजान लड़की को । किन पलों ने उन्हें सारी मर्यादाएँ भुलवा दीं और वह अपनी भूख के आगे अपना इंसान होना भी भूल गए!  क्या उनका ख़ुद का अन्तःकरण अब उन्हे माफ़ कर पाएगा ! क्या वह माधोपुर वाली अनाथ श्यामा दुसाधन थी जहां मालिक अक्सर बटेदारी वसूलने जाते थे ।उसके साथ तो बाकायदा प्रेम संबंध ही जी रहे थे मालिक ।  साथ गए अपने पति रामा नाई से सब हाल सुनकर नाईन ने गोर रंगते हुए कई बार दबी ज़ुबान में मालिक की एक रखैल होने का इशारा नहीं दिया था ! राजकुमारी देवी के रोने पीटने और और घर में ही यह ब्राह्मणी वाली व्यवस्था उपलब्ध करवाने के बाद ठाकुर ने माधोपुर जाना साल भर से छोड़ रखा था।  तो क्या वह श्यामा ही थी या कोई और ! अब सारे सवाल माने खो चुके थे । उत्तर मिलते भी तो उनका अर्थ खो चुका था । इस बार की बाढ़ सब कुछ बहा ले जा चुकी थी – उनका झूठा मान सम्मान , उनके आडंबर , उनके बड़े जतन से छिपाए गए सच । सब कुछ बह चुका था और ठाकुर परिवार नंगा खड़ा था अपने खोखलेपन के साथ। अपनी नकली मर्यादा और झूठे उसूलों की भहराई हुई दीवार के साथ ।

और फिर उस गाँव ने वो देखा जो कभी किसी ने न देखा था न सोचा था। आने वाली कई पीढ़ियाँ जिसे सुन कर आश्चर्य से आँखें चौड़ी कर लेती हैं । रोती हुई राजकुमारी देवी जाने किस भावावेश में उठीं और बच्ची को छाती से चिपटा लिया । सारा जीवन एक सज़ा की तरह काट चुकी राजकुमारी देवी मन ही मन मिथिलेश ठाकुर की सज़ा तय कर चुकीं थीं । वह जानती थी कि मिथिलेश ठाकुर को उनके इस गुनाह की सज़ा नहीं दी जा सकती थी । जो दे सकती थी , वह जाने कहाँ जा चुकी थी । शायद रामजीवन सिंह भी बड़े भाई के स्नेहवश कुछ नहीं बोलते लेकिन अपने अन्तःकरण से बढ़कर कोई बड़ी अदालत नहीं होती ।  अपने सामने बड़ी होती बच्ची को देखकर अब ठाकुर साहब हर पल पछतावे की आग में जलेंगे। बच्ची को छाती से चिपटाए उन्हें एक असीम सुख की अनुभूति हो रही थी। वह जिसे पाप की औलाद समझती थीं , उस बच्ची ने उन्हें आज़ ख़ुद से मिलवाया था । जिसकी माँ को वह बतही समझती थीं , वह जाते हुए उन्हें आईना दिखा गयी थी कि बतही तो वो ख़ुद भी थीं जो औरत नहीं रहकर एक लाश बन गईं थीं । पुरखों की हवेली में विक्षिप्त घूमतीं, उनके द्वारा छोड़े गए झूठे आडंबर और ओहदे को ढोती हुईं।

पानी उतरने लगा था । लोग बाग धीरे –धीरे फिर से अपने उजड़े घरौंदे को सजाने के लिए तिनका-तिनका जोड़ने में जुट गए थे । रुकिया काकी चनरिका माई के अस्थान पर अपने बूढ़े, कांपते हाथों से एक बरगद का पौधा रोप आई थी । गाँव मे जलदेवी आई है । वह नहीं रहेगीं लेकिन यह पौधा जल देवी के साथ बड़ा होता आने वाला कल देखेगा ।उसके नन्हें हाथों की छाप पड़ने पर मुस्काएगा और उसके पैरों में बजते नुपूर की झँकार सुनता रोज़ थोड़ा-थोड़ा बड़ा होता जाएगा । रुकिया काकी जानती थी की वह आने वाला कल आज़ से ज़्यादा उजला, ज़्यादा चमकदार होगा क्योंकि रोशनी को रोकने वाली जर्जर दीवारें पानी के साथ ढह गईं थीं।

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20 comments

  1. आभार मित्र कमलजीत

  2. Jab bhi koi kavi kahaani likhta hai to Kahaani mein kuchh jodta hi hai… Apne patron, Parivesh aur udheshy ki drishti se ek safal kahaani hai…Dost Rashmi ji ko Bhavishay ke liye bahut bahut Shubhkaamnayen!! Aabhaar agraj Prabhaat ji !!
    – Kamal Jeet Choudhary

  3. This comment has been removed by the author.

  4. सभी मित्रों का बहुत शुक्रिया कहानी को समय देने के लिए।

  5. नीलाभ जी बहुत शुक्रिया। लेकिन इस कमेंट में कहानी पर नहीं लिखकर आप वीरू सोनकर पर लिख रहे, ये भी प्रायोजित तो नहीं ! कहानी पर अपने मन से अनेक लोगों ने टीप लिखी!किसी एक को टारगेट करना समझ नहीं आया!आप वरिष्ठ रचनाकार हैं, आपसे हम अधिक परिपक्वता की उम्मीद करते हैं!गलत तो नहीं न!

  6. उत्कृष्ट रचना बधाई रश्मि

  7. उत्कृष्ट रचना बधाई रश्मि

  8. कहानी अच्छी है, पर काफ़ी कुछ प्रायोजित मामला लगता है. मसलन, शब्दों के पारखी वीरू सोनकर नाम के जीव को जो औरों को नसीहत देता घूमता है और मैत्रेयी पुह्पा जैसी सामान्य लेखिका के कमेण्ट पर लिखना छोड़ बैठने की नौटंकी भांज सकता है, यह नहीं नज़र आया कि गरजते बादल है, वर्षा नहीं,वो किस मसरफ़ का कवि और किस मसारफ़ का समीक्षक !!

  9. कहानी धीरे धीरे धीरे धीरे आगे बढ़ती रही और हम उसमेँ डुबकी लगाते लगाते समाजिक कुरीतियोँ पर प्रहार करते पटल पर पहुँच जाते है?
    पर एक बात जो चौकाती है वह देवी ठाकुर की ही. ….
    थी
    या कोई और

  10. सामंतवाद और पितृ-सत्ता की पोल झटके से खोलती हुई देस पर की कहानी… 🙂 शुरू से अंत तक रोचकता से परिपूर्ण

  11. बहुत प्रभावशाली कथा। रश्मि को साधुवाद।

  12. शानदार कहानी; बढ़िया शैली..

  13. lazawab……. rashmi jee

  14. गाँव बथान, हवेली – घर में घूमते फिरते कब अपने घर के देहरी को अनुभव करने लगे, पता ही नहीं चला ………बधाई रश्मि जी एक जीवंत रचना लिखने के लिए …..!

  15. रश्मि द्वारा इस कहानी किस्सागोई की 'लोककथात्मक' शैली अपनाने के बावजूद भी सपाट चरित्रों के कारण कहीं भी कथा तत्व भटकाव का शिकार नही हुआ जातिवाद और सामन्तवाद की धसकती जमीन मे छिपे वर्गीय वर्चस्ववाद का खुलासा तो है ही साथ ही स्त्रीविमर्श को परखने का नया नजरिया भी है

  16. I have read a few excellent stuff here. Definitely value bookmarking for revisiting. I wonder how much effort you put to create one of these excellent informative site.

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