सुपरिचित लेखिका नीलिमा चौहान आजकल ‘पतनशील पत्नियों के नोट्स’ लिख रही हैं. एक नए तरह का गद्य, देखने का अलग नजरिया. आज अगली क़िस्त पढ़िए- मॉडरेटर
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बीवी हूँ जी, हॉर्नी हसीना नहीं
हम लाचार बीवियों के लिए रसोई से बिस्तर तक का सफर बहुत लम्बा होता है ।
हर रात तेल और मसालों की गंध से लबालब अपने हरारत भरे बदन को बिस्तर तक पहुँचाते पहुँचाते अपने दिलो दिमाग पर जमी औरताना किचकिच को साफ करती चलती हूँ। माफी चाहती हूँ कि आज भी तुम अपने बिस्तर पर हॉर्नी-हसीना की जगह बहस के लिए पिल पडती बेस्वाद बीवी ही को पाने वाले हो। बीवी जो हर रात हमबिस्तरी के तुम्हारे सारे इरादों को अपनी जि़द से चूर-चूर करती सारी घर गृहस्थी को बिस्तर पर ही मेहमाननवाज़ी करवाने चली आती है । बीवी जो इधर-उधर की आजू-बाजू की अड़ोस-पड़ोस की तेरी-मेरी-उसकी और न जाने किस-किस की रंजिशों से ,शिकायतों से, चुगलियों से , ठसाठस भरी गुर्रानी बिल्ली बनी बिस्तर को पानीपत का मैदान बनाने के लिए उतारू दिखाई देती है। बीवी जो शौहर की नसों के फनफनाते हुए तनाव को ईनाम में सरगर्मियों से भरा जलवा-ए-हुस्न पेश करने की बजाय अपनी बासी सड़ी जनाना बातों से ठंडा करने में कोई कसर नहीं छोडती । बीवी जो जिस्म नहीं रह गई, जुनून नहीं रह गई बस एक थुलथुले लिजलिजे गोश्त में तब्दील हो चुकी है। बीवी जो जिसके बदन में नज़ाकत और शरारत भरी कामुक शिरकतों को महसूस करने की कवायद में मनहूसियत ही हाथ लगती है। देखो न तुम्हारे चेहरे पर चस्पाँ इन बयानों को साफ तौर पर पढ़ पा रही हूँ मैं ।
हाँ याद है मुझे मैं वही औरत हूँ जिसे आए दिन हमबिस्तर होने का बुखार चढा रहता था और जो पूरे हफ्ते के स्कोर को अँगुलियों पर गिनकर और उसमें कुछ एन्काउँटरों का इज़ाफा करके अपनी सहेलियों को अपनी खुशहाल शादीशुदा जिंदगी के सबूत पेश किया करती थी । हाँ मैं वही औरत हूँ बस कुछ हालात और कुछ मजबूरियों और अपनी जिद्दी आदतों की मारी हूं। इन तमाम पाबंदियों से गुजरकर जिस्म बनने में लिए पूरी ईमानदारी से ताकत लगाकर भी जब हारती हूँ तो मखमली बिस्तर भी श्मशानगाह का अहसास देने लगता है । एक बार जिस्म की आवाज़ दिमाग तक पहुँचे और मैं बीवी से प्रेयसी की शोख अदा में आऊँ उससे पहले ही चिढ,कोफ्त,खीज, घुटन मेरे दिमाग को कसकर गिरफ्त में ले लेते हैं। जितनी तेजी से तुम पति से एक जिस्म में तब्दील होते हो उतनी रवानगी मेरे बूते की नहीं। हरकत के बदले हरकत, जुनून के बदले जुनून, प्यास के बदले प्यास, जिस्म के बदले जिस्म। नहीं नहीं मैं पीछे छूट रही हूं तुम भागे जा रहे हो । रुको मुझे देह से पहले मन को खुलकर पेश करना था। सजे हुए थाल में सलीके से पेश किए हुए लजीज़ व्यंजन की तरह। देख नहीं रहे क्या इस लपक और झपट में जिस्मों से पहले दिलों के कदमताल की मेरी तमन्ना हार रही है ।
हर बार ठीक उस वक्त जब तुम किला फतह कर रहे होते हो मैं बांध के परे रह गई कसमसाती हुए, प्यास से मुरझाई हुई नदी बनकर रह जाती हूँ। यह लो एक बार फिर एक बेमकसद कवायद में हारी हुई हताश एक बीवी रह गई है और एक जमकर बरसा हुआ जिस्म दोबारा पति में तब्दील होकर पीठ घुमाकर बेखबर सोया पड़ा है ।
उफ!! यह रात कैसी जहरीली नागन सी है! कितनी आवारा,कितनी बदचलन,कितनी खार खाई सी!
क्राई एंड रूल
मैं अक्सर सोचती हूं कि मैं आखिर क्यों रोती हूँ?
इस जिद्दी जालिम जमाने के पास मुझे रुलाने के सौ तरीके हैं या मैं खुद ही अपने ऑंसुओं को जमाने के खिलाफ हथियार बनाकर रोती हूं । मैं बचपन से रोती आई हूं । बच्चों वाली बातों पर रोना जब तुम छोड़ चुके थे, ठीक तभी मैंने बड़ों वाली बातों पर रोना शुरू किया होगा । तुम जिस उम्र में अपने गुस्से और तैश के औजारों को पैना कर रहे थे तब मैं जायज़ नाजायज़ बातों पर रोने बिलखने को अपनी आदत ही नहीं आखिरी अस्त्र मान चुकी थी। भाई की मार पर बदले में बराबर का न मार पाने के, और सब मुझसे ही पानी मांगते हैं से लेकर सहेलियों के साथ पिक्चर और शॉपिंग जाने पर मनाही और लड़कों से दोस्ती पर घरवालों की लताड़ खाने जैसे दु:खों तक हर दु:ख मुझे रुलाता था। रोते हुए अक्सर मैं यह भी नहीं जान पाती थी कि आखिर मैं कितनी दु:खी हूँ और दु:खी हूँ भी कि नहीं ।
हम बचपन में एक खेल खेलते हुए गाते थे “एक लड़की धूप में बैठी रो रही थी, उसका साथी कोई नहीं, उठो सहेली आँसू पोंछो अपना साथी ढूंढो”। मैं अक्सर घुटनों में मुँह छिपाए जमीन को ताकती उदास लाचार लड़की तब्दील हो जाती और बाकी सब सखियां आस पास गोलदायरे में घूमा करतीं। मुझे याद है कि तब मुझे कितनी गहरी टीस को महसूस किया करती थी। आज भी मैं दराज में आँचल फँसकर फेवरिट महँग़ी साड़ी के फट जाने जैसी किसी भी छोटी से छोटी बात से लेकर तुममें अपना सच्चा साथी न ढूंढ पाने की तड़प जैसी सीरियस हर बात पर रो देती हूँ।
तुम अक्सर मेरे आँसुओं से चिढ़ जाते हो पर मुझे याद हैं वो पुराने दिन जब तुम्हारे कंधे पर सिर रखकर मैं ज़ार-ज़ार रोया करती थी और तुम्हारे चेहरे पर आ गए सार्थकता के अहसास को करीब से देखा करती थी । वो तुम ही थे न जो अपने हाथों से मेरा गीला चेहरा पोंछते हुए कहा करते कि “डार्लिंग तुम्हारा हर आँसू मेरे लिए मोती से भी कीमती है” पर अब तुम बदल से गए हो। तुम्हें मेरा रोना इमोश्नल मैलोड्रामा लगता है अपनी जिद को मनवाने का हथियार लगता है। मैं क्या करूं मजबूर हूं मैं ! खाली शब्दों से अब तुम मेरी कोई बात समझ ही कहाँ पाते हो तुम खीजकर मुझपर चिल्लाते हो बस मेरा गला रुँध जाता है । मुझे हारकर तो रोना ही होता है जीतने के लिए भी अक्सर रोना पड़ जाता है।
ऑफिस में आज का दिन बुरा गया, महरी ने बिन बात की छुट्टी मार ली, तुम्हारी माँ ने जलती हुई बातों के नश्तर चुभोए, प्री मैंस्ट्रुअल क्रैम्प्स सहे नहीं जा रहे जैसी किसी भी बात पर दिल में भरा हुआ कई दिनों का गुबार बस आँखों के रास्ते ही तो निकल पड़ता है पर आँसुओं का सैलाब थम जाने के बाद कैसी ठँडक भरी राहत और हल्कापन सा महसूस होता है। फिर से नई मजबूती भरती सी महसूस होती है। तुम भी तो मुझे और मेरे दुख को जायज़ मानने की शुरुआत ही मेरे रो पड़ने के बाद किया करते हो।
तुम मर्द अपनी ज़िंदगी में शायद दो चार बार ही रोते होंगे। तुम्हें शेयर मार्किट में लगाए पैसे के डूब जाने या किसी अपने के मर जाने जैसे मजबूत कारण चाहिए रोने के लिए। पर हम औरतें किसी भी दु:खी कर सकने वाली बात पर रो सकती हैं। यह हमारा अधिकार है। दु:ख को मनाने और जताने का अधिकार। हारने से पहले जीतने का रास्ता हैं ये आँसू। कोई हमसे हमारा सारा सुख चैन आराम, प्यार, खुशियां छीनने की कूवत भले ही रखता हो पर हमारा रो सकने का अधिकार दुनिया की कोई भी ताकत हमसे नहीं छीन सकती। वैसे भी, कभी भी किसी भी बात पर आँखों में आँसू न ला पाने वाली औरत को जमाना पक्की और खालिस मर्दानी कहकर कितनी शक भरी नज़रों से देखता है। जैसे रोता हुआ मर्द मर्दाना नहीं लगता , वैसे ही सूखे हुए टीयर ग्लैंड्स वाली औरत कभी किसी को फेमिनिन लगी है क्या?
न न, मैं किसी को अपने आँसुओं पर पाबंदी लगाने की मौका नहीं दे सकती। तुम्हारी टफनेस तुम्हें मुबारक, मैं तो बात बात पर रो पड़ने वाली ड्रामा क्वीन ही भली ।
ज़ालिम है ये दुनिया जिसे मेरी झूठी मुस्कान सुँदर और सच्चे आँसू बुरे लगते हैं।
Heartfelt,honest and BOLD narration!You have put things in perspective, logically and beautifully.
Kudos!
इतनी बेबाकी से लिखना आसान नहीं ….बधाई
आसान नहीं है इतनी साफगोई से लिखना। बधाई।
आसान नहीं है इतनी साफगोई से लिखना। बधाई।
ये क्या लिख दिया आपने….. सच्चाई तार तार कर दी।
Behtareen
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लाजवाब. यह पिछले पोस्ट से अधिक सघन है, बहुत अंतरंग बातों को बहुत सुती हुई भाषा में कहा है. रिश्ते के भीतर-बाहर की बातें बहुत धारदार अंदाज़ में कही गयी हैं. रोने का हक इस ठसक के साथ कहा गया है कि पढ़ कर मन खुश हो गया. और इसे कहते हुए औरत और आदमी बनते कैसे हैं, इसे भी बहुत सधे हुए शब्दों में कह दिया है आपने. बधाई
बेहतरीन
प्रभावी !!!
शुभकामना
आर्यावर्त
बहुत जबर्दस्त लिखा । पहली किश्त भी लाजबाब थी।
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " बाजीगर – ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
ज़ालिम है ये दुनिया जिसे मेरी झूठी मुस्कान सुंदर और सच्चे आंसू बुरे लगते हैं ।
Behatarin tareeke se el aurat ke man ko samajhane ki koshish par samadhan ?
Bindaas
Pulsating,yet disarmingly frank