बुरा न मानो होली है की अगली कड़ी- मॉडरेटर
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वरिष्ठ लेखिका गीताश्री से बातचीत करने की कोशिश की, बड़ी मुश्किल से उनका यह होली सन्देश मिल पाया है- मैं क्या सन्देश दूँ मेरा जीवन ही सन्देश है. तुन्हारी होगी होली, मेरी तो हो ली! पत्रकारित्ता को लात मारी साहित्य में आई, यहं आलोचकों ने मेरी कहानियों के रंग में भंग डालने की कोशिश की. मैंने साहित्य को माच्चू पिच्चू की ऊँचाइयों पर ले जाने की कोशिश की उन्होंने उसे पहाड़ों को तोड़ने वाली खाई कहा. मैं अपनी बहनों को यही सन्देश देती हूँ इस होली पर कि हिंदी को सबसे पहले उन आलोचकों से मुक्त करवाने की जरुरत है जो यह समझते हैं कि लेखिकाएं उनके कंप्यूटर के की बोर्ड से पैदा होती हैं और डिलीट होती हैं. इस होली के संवत में सबको जला कर भस्म कर दो बहनों!
मेरा विनम्र निवेदन अपने भाई(भाइयों) से है कि वह कृपया इसे न पढ़े. मेरा लेखन किसी भाई का मोहताज नहीं है. वह बहन ही क्या जो भाई के कीबोर्ड से सभी अक्षर न उखाड़ दे. अरे उसने इंटरव्यू दिया तो कौन सा महान हो गया. पूरे इंटरव्यू में एक बार भी मुझे उसने बहन कह कर याद नहीं किया. कहे का भाई! एक नंबर का कोठेबाज है इस होली मैं इससे ज्यादा कुछ कहना नहीं चाहती.
मेरी क्या होली! अपने अंजुमन में हूँ. न अपना भाता है न कोई पराया, संवत के साथ जल जाए सब मोह, सब माया! दूध की जली हूँ आइसक्रीम भी फूंक फूंक कर खाती हूँ! यही सन्देश है मेरा कि नए रंग में रंगें, जोगिया या लाल के फेरे में न पड़ें, अपना रंग लगाएं, अपना रंग जमायें. इस होली सारे बंधन छोड़ आगे बढ़ जाएँ. बहनों बंधन का होना भी कष्टकर है, न होना भी. बेहतर है कि पुरुषों को बांधकर आगे निकल जाएँ!
अरे हाँ, बहनों के साथ साथ भाभी को भी होली की शुभकामनाएं!
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भगवानदास मोरवाल का सन्देश– मेरा ‘हलाला’ ही मेरा सन्देश है. जिन्होंने ‘नरक मसीहा’ छापा वे सब नरक में जाएँ. भाई सब लोग देखो मैं गाँव का आदमी हूँ किसानी संवेदना को कभी छोड़ नहीं सकता. ‘हलाला’ को लोग गलत समझ रहे हैं, असल में यह किसानी संस्कृति का प्रतीक है- हल ला ला! लोग आजकल विकृत संस्कृति पर किताबें लिख लिख कर लोकप्रिय हो रहे हैं. कोई लघु-लघु प्रेम कर रहा है, कोई कोठे पर जा रहा है. भारतीय संस्कृति को बचाना है तो हल ला ला! हल नहीं लाओगे मरोगे मेरा क्या, मैं तो फिर एक किताब लिख दूंगा.
युवा संपादक सत्यानंद निरुपम का होली पर सन्देश– होली असल में और कुछ नहीं चिर यौवन का प्रतीक है और लप्रेक इसी की याद दिलाता है. आज मैं सभी युवा साथी और साथिन लेखकों से यही आह्वान करता हूँ कि होली की संवत के साथ पुराने सभी लप्रेक जला दें और नए लप्रेक का संकल्प लें. जीवन एक ही रंग में जिए जाने का नाम नहीं है, उसको रंगबिरंगा बनाएँ. लप्रेक है तो हम हैं, हम हैं तो लप्रेक! जय होली! जय लप्रेक! और प्यार की बोली ही ठीक है, न खाएं भांग की गोली!
बाकी बातें बाद में अभी एक मीटिंग में जा रहा हूँ!
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